उम्मीद और विश्वास के सहारे,
कदम खुद-ब-खुद बढ़ गये,
तलाश थी जिनकी मजिल पर,
वे किनारे ही मिल गये।
वक्त ने सब कुछ सिखाया
और
उन्होनें बातों से ही रूलाया
बेवफाई का नाम दूँ
या
मुकद्दर इसे कहूँ,
जिस बात पर गुरूर था हमें ,
वे उससे ही मुकर गये,
ये प्यार था
या
धोखा था मेरा,
जो हम भीड़ में उनको ,
अपना समझ बैठे,
इंसान ही तो था मैं
और की ही तरह
धोखे को उनके इजहार समझ बैठे,
बदनाम जो करूँ उनको तो
खुद का भी डर
बस याद न आये वो पल मुझे,
और
न कभी कोई उनकी खबर हो,
जीना तो जीना है
चाहे मर-मर के जियो
या
जी-जी कर मरो।।
7 comments:
जीना तो जीना है
चाहे मर-मर के जियो
या
जी-जी कर मरो।।
वाह...बहुत अच्छी रचना...
नीरज
बहुत सुंदर रचना.
आलोक सिंह "साहिल"
बहुत बेहतरीन रचना है।
उम्मीद और विश्वास के सहारे,
कदम खुद-ब-खुद बढ़ गये,
तलाश थी जिनकी मजिल पर,
वे किनारे ही मिल गये।
दर्द से भरी रचना,अति सुन्दर.
जीना तो जीना है
चाहे मर-मर के जियो
या
जी-जी कर मरो।।
बहुत सुंदर रचना.
bhaut achhi rachna
bahut achha sandesh
mitra aapki kavita padhi, atisundar.
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