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Sunday, September 7, 2008

अफसाने तेरे- गजल

बंद पलकें दीदार करती हैं हुस्न का तेरे।
खामोश लब इकरार करते हैं प्यार का तेरे।।

रास्ते चुप होकर गुजरते हैं घर से तेरे।
क्यों अब दूर नजर आते हैं अफसाने तेरे।।

वक्त ने दिल को बना दिया पत्थर तेरे।
हो जाये अभी खत्म फसाने तेरे।।

फिर लोग लगाते हैं क्यों तोहमत इश्क का तेरे।
भरी महफिल में हम भी सर झुकाये मुकर जाते हैं नाम से तेरे।।

न था मिलना हमको ए-संगदिल मेरे।
भूलकर भी कभी दिल से न जाना मेरे।।

2 comments:

नीरज गोस्वामी said...

नीशू जी
बहुत अच्छा प्रयास है आप का कोशिश करते रहिये क्यूँ की ग़ज़ल लिखना आसन विधा नहीं है....पहले मुझे भी नहीं मालूम था लेकिन गुणी जनों ने समझाया और मैंने मेहनत की तब कहीं जा कर अब थोड़ा बहुत लिख लेता हूँ...आप भी सीखिए और लिखिए.
नीरज

वीनस केसरी said...

अच्छी कविता
अच्छे भाव
अच्छी अभिव्यक्ति


अच्छी कविता इसलिए कह रहा हूँ क्योकि एक छंद उक्त रचना ग़ज़ल तभी कहलाती है जब वो बहर में हो
ग़ज़ल लेखन विधि के बारे में अधिक जानने के लिए यहाँ पर जाइये
(बस एक ही शर्त है की सीखने के लिए आपके अन्दर जज्बा हो और दिल से सीखने की ख्वाहिश हो)

www.subeerin.blogspot.com

वीनस केसरी