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Tuesday, September 30, 2008

मेरा काव्य -"सब कुछ कितना बदल गया "


सब कुछ कितना बदल गया
जो तुम नहीं हो ,
ये हवायें क्यों चलती नहीं
ये घटायें क्यों बरसती नहीं
ये मौसम क्यों बदलता नहीं
ये आसमां क्यों बरसता नहीं
बंद कलियां क्यों नाराज हैं
फूल भी क्यों उदास है
शाम क्यों गुमशुम ढ़लती है
सूरज क्यों चुपचाप निकलता है
चिड़िया क्यों चहकती नहीं
रास्ते क्यों साथ चलते नहीं
क्या
शायद इनको भी पता है कि
तुम नहीं हो।

.........................शब्द ही हूँ मैं..............


शब्द ही माध्यम है मेरे
या
मैं ही हूँ शब्द?
मुश्किल था समझना
खुद को,
कुछ कहूँ
या
न कहूँ
बिना शब्द
पहुँचती है
मेरी भावना
मेरी संवेदना
मेरा प्यार
करता हूँ
विचार हमेशा
बिना शब्दों के
अधूरा हूँ मैं।
खामोश हो जाती है
मेरी शख्सियत
खो जाती है
मेरी पहचान
इसलिए
इन शब्दों को
बनाया मैंने
हथियार
खुद को
पहचानने में
आखिर ये शब्द ही तो
हैं
जो बयां करते हैं मुझे,
मेरे जज्बात को
मेरी आवाज को
इन शब्दों से
ही तो हूँ मैं
और
मेरी अभिव्यक्ति ।

क्या आप जानते है ? - " rakhshanda" । जी हां मैं जानता हूँ

आतंकवाद पर मेरा लेख - "आतंकवाद न तो धर्म , न ही क्षेत्र और न ही जाति देखता है यह तो दुश्मन है मानवता का .......... "
लिंक-' http://neeshooalld.blogspot.com/2008/09/blog-post_8163.html पर कई लोगों की टिप्पणी आयी। जिसमें " rakhshanda" जी की टिप्पणी में सवाल किया गया ? कि "जी नही , ये तो आप कहते हैं ना की आतंक का कोई मज़हब नही होता..लेकिन मीडिया की नज़र में आतंक का मज़हब होता है...तभी तो दिल्ली ब्लास्ट में पकड़े जाने वाले तथाकथित मुजरिमों का तो पूरा बायोडेटा आज बच्चे बव्चे की जुबां पर है..वो कहाँ रहते थे, क्या पढ़ते थे, उम्र कितनी थी चेहरे कैसे थे...लेकिन उडीसा और कर्नाटक में आतंक फैलाने वाले आतंकियों के बारे में उन्हें सांप सूंघ जाता है, हम में से कोई नही जानता नीशू जी की वो भी इंसान हैं या भूत हैं...धरती पर रहते हैं या आसमान से आए हैं...क्या आप जानते हैं?
" rakhshanda" जी की टिप्पणी का जवाब .......
सबसे पहले तो यह बात साफ हो जाये कि उड़ीसा और कर्नाटक में जो भी घटना घटी है उसके लिए जिम्मेदार है राजनीति ? लक्ष्मणानंद की हत्या हुई बदले में बजरंग दल और आरएसएस ने लोगों को उकसाया । साथ ही साथ ईसाई समुदाय पर हमले करवाये और चर्चों पर कहर बरपाया ( तोड़फोड़ की ,आगजनी की )। ईसाई समुदाय पर यह आरोप भी लगाया ये लोगों को पैसे के दम पर धर्म परिवर्तन करा रहे है ( वैसे पहले भी विश्व स्तर पर ऐसे आरोप आते रहे हैं) । गरीब हिन्दू को धन का लालच देकर धर्मानान्तरण कराया जाता है । बात अगर यह सही है तो न्यायालय का सहारा लिया जाना था। लोगों को उकसा कर आम आदमी को इसका शिकार नहीं बनाया जाना चाहिए था। सरकार भले ही कुछ न करे । यह घटिया राजनीति में सब कुछ सम्भव है पर न कोई भूत है और न ही कोई आसमान से आता है हमारे आपके बीच से ही ये तत्व कार्य कर रहें हैं। हाल के गुजरात दंगे और गोधरा की रिपोर्ट आपने देखी होगी क्या कुछ परिणाम सामने आया नहीं । राजनीति का सफेद कफन पहन कर ये नेता आम लोगों की जिंदगी से खिलौनौ की तरह ही खेलते हैं। और हम कुछ समझ भी नहीं पाते है। क्योंकि हम राजनेता नहीं है न।धर्म कोई भी हो जाति कोई भी पर किसी में मारकाट नहीं है । हिंसा को खरीदा जाता है पैसे से। और खूनी होली खेली जाती है देश के साथ।

Monday, September 29, 2008

यौन शोषण के शिकार होते हमारे बच्चे। दागदार होती गुरू शिष्य पंरपरा ,बचाव कैसे ?


शिक्षा के मन्दिर में हो रहा है यौन शोषण और हमारे बच्चे हो रहे हैं इसका शिकार तो अपनी आवाज बुलंद कर इस तरह की घटनाओं को दीजिए मुँहतोड़ जवाब।न्यूज पेपर और टी वी में आये दिन हम बाल यौन शोषण की खबरें देखते और सुनते हैं। बच्चों के साथ यौन शोषण की घटनाएं बढ़ रही हैं यह समस्या समाज के लिए चिंता का विषय है। हाल ही में उत्तम नगर केन्द्रीय विद्यालय के छात्र के मौत का मामला सामने आया । पहले यह मौत तो पानी की टंकी में डूबने से हुई ऐसा कहा जा रहा था । पर पोस्टमार्टम रिपोर्ट से खुलासा हुआ कि बच्चे के साथ यौन दुरचार किया गया और फिर बाद में हत्या करकर उसे पानी की टंकी में डाल दिया गया जिससे यौन शोषण का खुलासा न होसके। दूसरी घटना हरियाणा के बल्लभगढ़ की है जहां आदर्श विद्यालय की दो छात्राओं को टीचर द्वारा अगवा कर यौन शोषण किया गया और बाद में छात्राओं को छोड़कर टीचर फरार हो गया। छात्राओं ने बताया कि अध्यापक ने फेल करने की धमकी देकर ड़ेढ साल से यौन शोषण कर रहा था। एक खबर हरियाणा के दुर्जन पर की मीडिया में छायी रही जहां दो टीचर ने ढात्रा को फेल कर देने और नम्बर कम कर देने की धमकी दे उनका यौन शोषण कर रहे थे। और मामला तब सामने आया जब लड़की गर्भवती हो गयी। और बाद में पता चला कि इसी तरह १६ छात्राओं के साथ उसी टीचर ने दुर्व्यवहार किया था।
गुरू शिष्य की परम्परा पर एक धब्बा लग गया है । इस तरह की घटनाओं ने हमारे समाज में एक विकृति को जन्म दिया है । और ऐसा नहीं कि केवल यह सारी घटना में शिकार लड़कियां ही है बल्कि की लड़के भी यौन दुराचार के शिकार हो रहे हैं। हमारा सामाजिक ढ़ाचा ही कुछ ऐसा है जहां पर इस तरह की घटनाओं को छिपाने की कोशिश की जाती है। एक तो सामाजिक बुराई और दूसरा नाते रिश्ते दार में बेज्जती इत्यादि समस्या इस घटना को बढ़ा रहे हैं । पुलिस की भी कोशिश होती है कि मामला सुलझ जाये । पर मेरा तो यही मामना है कि जो परिवार ऐसी घटनाओं से पीड़ित है वह खुलकर सामना करें न कि मामले को दबायें अन्यथा कोई और भी इन लोगों का शिकार होगा।

रूपये में पांच


काग्रेस के महासचिव और सांसद राहुल गांधी ने फिर दोहराया है कि विकास योजनाओं का लाभ जमीन तक नहीं पहुच रहा है। उनका कहना है कि गरीबों तक एक रूपये में पांच पैसे ही पहुच पाते हैं। जब कि आज के करीब दो दशक पहले राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी ने कहा था कि गरीबों तक एक रूपये का पन्द्रह पैसे ही पहुच पाता है । तो क्या यह माना जाए कि हालात और बदतर हुए है? कुछ दिनों पहले जो ट्रासपरैंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट आयी है , जिसमें कहा गया है कि भारत में भ्रष्टाचार बढ़ा है । राहुल का इशारा यही है । राहुल ने कहा कि योजनाओं का क्रियान्वयन राज्य स्तर पर सही नहीं हो रहा है।
रोजगार गारंटी योजना को लागू करते हुए सरकार ने यह दावा किया था कि इसमें इसका दुरूपयोग रोकने के कई प्रावधान किए गये हैं । पर रिपोर्ट बताती है कि इसमें बहुत गड़बडियां बताती है । रिपोर्ट में कहा गया है कि पैसे की बड़े पैमाने पर हेराफेरी की गयी है। । कुछ लोगों को सस्पेड किया गया है। पर देश में नौकरशाही को संवेदनशील और जवाबदेह बनाने की की गंभीर कोशिश आज तक नहीम की गयी। सरकार चाहती तो योजनाओं को सफल कर सकती थी। पर कोई कड़े नियम नहीं लागू किये। स्थआनीय स्तर पर जन प्रतिनिधियों को अधिकार देने और उनके जरिये योजनाओं पर नियत्रण पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। जनप्तिनिधि और नौकरशाहों में कई जगह तो गढजोड विकसित हो गई। इन योजनाओं की राशि का बंदरबांद कर लिया जा रहा है। जब तक नीयत साफ नहीं होगी समाज को बदले की दृढ़ इच्छा राजनीतिक नेतृत्व के भीतर नहीं होगी। यह खेल चलता रहेगा।

Sunday, September 28, 2008

आतंकवाद न तो धर्म , न ही क्षेत्र और न ही जाति देखता है यह तो दुश्मन है मानवता का ..........


भारत में हाल ही में हुए बम ब्लास्ट और अब दिल्ली बम धमाके के बाद पकड़े गये कुछ आतंकी और एनकाउटर ने कई सवाल को जन्म दिया । आतंकवाद पर भी कई प्रमुख सवाल हुए। जो भी आंतकी इंडियन मुजाहिद्दीन के पकड़े गये वे सभी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के हैं। आजमगढ़ को मीडिया ने इस तरह दिखाया कि जैसे आजमगढ़ मेम रहने वाले सभी लोग आंतकवादी हो। आंतक को किसी क्षेत्र विशेष से नहीं जोड़ा जाना चाहिए । यहां पर मिडिया लोगों में क्षेत्रवाद को बढ़ावा दे रहा है।
दूसरा मुद्दा जो सबसे भयानक है वह यह कि जितने भी आंतकी पकड़े गये है वि सभी मुसलमान है और लोगों की यह विचार धारा सी बनती जा रही है कि सारे हमले मुस्लिम ही करते है। जिससे देश में धर्मनिर्पेक्षता पर खतरा बन गया है । क्या पूरी मुस्लिम कौम को ही संदेह की नजर से देखा जाना सही है। भारत मेम हाल के बम धमाको में बहुत से मुसलमान भाई भी हादसे के शिकार हुए है।
आंतकवाद न तो जाति देखता है न ही धर्म देखता और न ही क्षेत्र देखता है । महरौली बम दमाके मेम मासूम बच्चा जो कि बम को आतंकी से यह कहा कि अंकल आप का कुछ गिर गया भला उस मासूम बच्चे की क्या गलती है। तो फिर यह आरोप लगाना गलत होगा कि आजमगढठ या फिर मुस्लिमह ही आतंको बढ़ावा दे रहें हैं।
आजमगढ़ का अपना अलग इतिहास रहा है आजमगढ़ कि अभिनेत्री शबाना आजमी ने इस तरह के सवालों पर बहुत ही दुख व्यक्त किया है । आजमगढ़ में केवल मुस्लिम की ही नहीं बल्कि और भी लोग रहते है । राहुल सांस्कृत्यान जैसे महाकवि भी आजमगढ़ कि ही देन है।
ऐसे मीडिया और राजनीतिक खिलाड़ियों को इस तरह के सावालों को नहीं उठाना चाहिए जिससे की देश की संप्रभुता को खतरा पहुँचे।

भारत नहीं है बेटियों का देश नहीं फिर क्यों मना रहे हैं डाँटर्स डे ?


सभी बेटियों को बधाई। आज बेटियों का दिन यानी डाँटर्स डे है । वैसे लोगों की सोच बेटियों को लेकर कुछ हद तक बदली है पर हमारे देश में अभी भी स्थिति कुछ ज्यादा अच्छी नहीं है।भारत में कहने को तो लड़कियों को लक्ष्मी का रूप माना जाता है,मगर लोग व्यवहार में इसका अमल नहीं करते। बल्कि हमारे यहां लोग खौफनाक ढ़ग से भ्रूण हत्याओं को अंजाम देते है। उत्तर भारतीय राज्यों में हालात ज्यादा खराब है, जहां आज भी लड़कियों को एक जिम्मेदारी समझा जाता है। गांवों में रहने वाले अशिक्षित लोग ही नहीं,शहरों में रहने वाले पढ़े लिखे दंपत्ति भी पुत्र रत्न की चाह में बेटियों का कत्ल कर रहे हैं। यही वजह है कि सेक्स अनुपात के मामले में भारत दुनिया के देशों में बहुत पीछे है।
हरियाणआ में सेक्स अनुपात इतना असंतुलित हो गया है कि शादी के लिए बिहार और उत्तर-पूर्वी राज्यों से लड़कियों कोखरीदकर लाया जा रहा है। भारत में केरल ही ऐसा राज्य है, जहां सेक्स अनुपात लड़कियों के पक्ष में है। सेक्स अनुपात के मामले में भारत २२० देशों की लिस्ट में अंतिम चार में शामिल है। इस मामले में ब्रिटेन और अमेरिका ही नहीं श्रीलंका , अफगानिस्तान ,इराक ,नेपाल , पाकिस्तान ,बाग्लादेश भी भारत से बेहतर हैं।
वैसे आज लड़कियों ने यह सिद्ध कर दिया है कि अगर उन्हें पूरी तरह से छूट मिले तो वह लडकों से किसी मामले में पीछे नहीं है । हमारे देश की राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटल इसका जीवंत उदाहरण है । पेप्सीको की सीईओ इंदिरा नूयी, यूपीए की अध्यक्ष सोनिया जी, इत्यादि अनेक महिलाएं अपनी उपस्थिति को देश में दर्ज कराये हैं।

Saturday, September 27, 2008

भारतीय क्रिकेट टीम में नया चेहरा टेस्ट में अभी भी नहीं दिखा, ईरानी ट्राफी से कोई खास फायदा नहीं दिखा


रेस्ट आफ इण्डिया की टीम ने ईरानी कप पर कब्जा कर लिया । मैच के चौथे दिन रणजी चैम्पियन विजेता दिल्ली को १८७ रनों से करारी शिकस्त दी । वैसे ईरानी ट्राफी का यह मैच एक तरफा रहा । मैच पर गेदंबाजों का दबदबा कायम रहा । वैसे यह मैच इस नजरिये से अधिक महत्तवपूर्ण था क्योंकि चयन समिति को इन्हीं २२ खिलाड़यों को प्रदर्शन के अनुसार भारतीय टीम में जगह देनी है जो कि आस्ट्रेलिया के खिलाफ आगामी सीरीज खेलेगी। वैसे तो कोई बल्लेबाज इस मैच में कुछ खास नहीं कर सका सिवाय गौतम गंभीर और राहुल तथा धोनी को छोड़कर। जो कि कुछ चिंता का विषय हो सकता है चयबन समिति के लिए ।
वैसे ईरानी ट्राफी का यह मैच हमारे युवाओं के लिए एक अच्छा अवसर जरूर था पर किसी युवा ने खुद को ज्यादा साबित नहीं किया । सचिन की जगह पर बद्रीनाथ ने भी कुछ खास नहीं किया । और मोहम्मद कैफ ने उम्मीद के मुताबिक अपना योगगान नहीं दिया । और कोई युवा बल्लेबाज नहीं रहा जिसके खेल को देख कर यह कहा जाय कि इसे टेस्ट टीम में जगह मिलनी चाहिए । वैसे हमारे गेदंबाज ने बहुत अच्छा प्रयास किया । हरभजन सिंह , भारतीय टेस्ट कप्तान कुंबले , मुनफ पटेल शेष भारत के लिए और दिल्ली के गेंदबाज ईशांत शर्मा और नंदा ने बढ़िया गेंदबाजी की ।
भारत आगामी ९ अक्तूबर से आस्ट्रेलिया के खिलाफ चार टेस्ट मैच की सीरीज खेली जायेगी वैसे इस बार की आस्ट्रेलियाई टीम उतनी दमदार नहीं जितनी कि पिछली बार थी । इस बार आस्ट्रेलिया टीम में नये चेहरे की भरमार है । चार या पांच ऐसे खिलाड़ी है जो कि पहले भारत मेंखेल चुके हैं। पर फिर भी आस्ट्रेलिया की टीम को कम आंकना गलत होगा।
अब चयनकर्ता को टीम के चयन के लिए मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है जैसा कि ईरानी ट्राफी में बल्लेबाजी एकदमसे गायब रही तो ऐसे में हमारे पुराने खिलाड़ियों को आजमाया जाना चाहिए । नये कंधों पर अगर जिम्मेदारी दीजाती है तो उम्मीद अच्छे की करना गलती होगी। सचिन , सौरव ,लक्ष्मण व द्रविड़ जैसे अनुभव का चयन समिति को लाभ लेना चाहिए । साथ कुछ युवा को मौका देना चाहिए।

जख्म को हरा कर दिया इस धमाके ने ,फिर दहली दिल्ली , अब हम सुरक्षित नहीं ?


जख्म अभी भरा नहीं था कि उस पर दुबारा से वार कर दिया गया ।शनिवार का काला दिन आज फिर दिल्ली वालों के लिए दहशत भरा रहा। दक्षिणी दिल्ली के महरौली में हुआ यह धमाका बहुत ही भीषण था । प्रत्यक्षदर्शीयों ने बताया की एक बाइक पर दो लोग जो कि २० से २५ साल के थे । मार्केट में एक बैग को फेक चलते बने । जिससके कुछ ही देर बाद यह धमाका हुआ । बम धमाके में मरने वालों में कई लोग शमिल है जिसमें एक १० साल का बच्चा भी है जिसने बैग को उठाकर कहा था कि " अंकल आप का बैंग गिर गया , और इसके तुरंत ही बाद धमाका हुआ जिसमें बच्चे की मौके पर ही मौत हो गयी। पुलिस ने घायलों की संख्या २० तथा मरने वालओ की संख्या एक बतायी है ।
दिल्ली में पिछले दिनों एनकाउटर में दो आतंकवादियों को मार गिराया था और कई को दबोच लिया था। तब ऐसा लगा था कि दिल्ली अब कुछ सुरक्षित है? पर आज दिल्ली के हर नागरिक का सवाल यही है कि क्या हम सु्रक्षित है? पुलिस पे एक बार फिर से सवालिया निशाना साधा जा रहा है। देश की राजधानी में इस तरह की दहशत आम लोगों के दिल में एक खौफ पैदा कर रही है । निर्दोष लोगों और बच्चे अपनी जान देकर आतंकवाद की कीमत चुका रहे हैं । दिल्ली की मुख्यमंत्री ने मृतको के परिवार के लिए राहत की घोषणा कर दी और घायलों को देखने एम्स गयी । पर बार बार सवाल यही है कि क्या कीमत है इंसान की ? ऐसे हादसे कब रूकेगें ? गृह मंत्रालय भी चुप्पी साधे बैठा है । दिल्ली पुलिस भी लाचार है ? अब इस तरह से हो रहे बम धमाके तो यही बताते है कि आंतकवादी को अपनी करतूत को पूरा करने से कोई नहीं रोक सकता ? जब जहां चाहे खुले आम अपने अनुसार बम फोड़ सकते हैं।फिलहाल अब सुरक्षित नहीं नजर आती दिल्ली । दिल्ली अब 'दिल वालों की नहीं' बम वालों की है ।

Friday, September 26, 2008

युवाओं का फैशन भी अजीब है , दिल्ली का युवा फैशन बना है "सिगरेट"


जलता खुद भी जलाता है,
दूसरों को भी ,
ऐसी जलन है इसकी फिर
भी क्यों जलती है दिल्ली ?
फैशन में दिल्ली किसी शहर से पीछे नहीं है। फैशन के दौर में कपड़े ही नहीं बल्कि हमारे जीने का ढ़ग, रहन सहन और खान पान को भी बहुत ध्यान दिया जाता है। दिल्ली के युवाओं में आजकल जिस चींज का फैशन आपको देखने को मिल जायेगा वह है " सिगरेट" । वैसे तो धूम्रपान करना किसी भी तरह से सही नहीं है युवा वर्ग इन सब बातों परे हटकर सिगरेट के फैशन को बहुत ही तेजी से अपना रहा है । लड़के ही नहीं बल्कि दिल्ली की बिंदास बालायें भी इस फैशन परस्ती में लड़को से कंधों से कंधा और कश से कश मिलाकर वातावरण को गंदा कर रही है। वैसे तो सिगरेट लोगों को सिवाय बीमारी के अलावा कुछ खास नहीं देता है पर हमारी युवा पीढी के लिए यह खासी पंसद बन गया है ।
वैसे तो भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में तम्बाकू से निर्मित वस्तुओं का व्यापार बहुत अधिक मात्रा में है जिससे सरकार को एक मोटी रकम भी मिलती है टैक्स के रूप में । पर स्वास्थय मंत्रालय ने २ अक्तूबर से सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान को निषेध घोषित कर दिया है । और इसके उल्लघन पर २०० का जुर्माना किया जायेगा । सुनकर अच्छा लगता है कि अब इस कानून के आने से बहकते युवाओं के कश -म-कश लेने वाली जिंदगी को कुछ परेशानी हो सकती है । शुरू में हो सकता है कि कुछ लोग इस कानून के चपेट में आये और सिगरेट के साथ - साथ २०० का चूना पाकेट पर लगे तो ऐसे में रहे सावधान। बाकी तो भारत है कानून यहां बनते है तोड़ने के लिए ।

बच्चे भविष्य भारत के, गुडिया , रामू और श्याम के हाथ में कलम नहीं है कूड़े की बोरी


जिन हाथों में कलम होना चाहिए उन हाथों में कूड़े की बोरी देख कर मन बहुत ही दुखी होता है। इन नन्हें मुन्हें बच्चों की सुबह होती है कूड़े के ढेर पर । पिछली सर्दी में मुझे किसी काम से जल्दी उठकर कहीं बाहर जाना हुआ। घना कोहरा और कटीली हवाओं के चलते मैंने हाफ स्वेटर और उसके ऊपर से जैकेट पहन रखा था। मन न होते हुए घर से बाहर निकला कुछ स्पष्ट दिखायी न दे रहा था । आटो का इंतजार कर रहा था कुछ बच्चों की आवाज पास आती हुई सुनाई दी । मन में यह बात आयी कि शायद स्कूली बच्चे खड़े होकर अपनी बस का इंतजार कर रहे होगे। कोहरे कि वजह से कुछ दिख न रहा था। पर कुछ छोटे बच्चे पास आते दिखे उम्र मात्र ५ साल से कुछ ऊपर रही होगी । तन पर कुछ गंदे कपड़ों के सिवा कुछ भी नहीं । ठिठुरन भरी सर्दी में जब हम चैन से सोते है तो ये नन्हें मुन्हें बच्चे अपनी दो जून की रोटी के लिए गली मुहल्लों की गंदगी के चक्कर काटते हैं। शायद अपने जीवन को आगे बढाने के लिए । कोई उम्मीद नहीं होती सिवाय जीने के और जीवन संघर्ष के।
भारत सरकार ने वर्ष २००६ में बाल श्रम कानून को संसद में पारित कर अपनी जिम्मेदारी से छुटकारा पा लिया । पर क्या इस कानून के आने से बाल मजदूरी में कोई कमी आयी ?क्या कानून बनाना ही हमारी प्राथमिकता है ? मैने बहुत से ऐसे बच्चों से बात की है जो होटलों या चाय की दुकान या फिर मजदूरी करते हैं । मैंने पूछा कि यहां काम करना तुमको कैसा लगता है ? तो लाचारी से मुस्कुराते हुए जवाब था खाना पेट भर मिलता है । पढ़ाई के बारे में पूछा तो कई बच्चे ऐसे है जो कि पढ़ना चाहते हैं पर मजबूरी है कि मजदूरी करनी पड़ती है। ऐसा नहीं कि इन बच्चों को इनकी मजदूरी का मेहनताना पूरा मिलता है । जी तोड़ मेहनत के बार केवल रहना और खाना साथ ही कभी कुछ फटे पुराने कपड़े।
भारत की आबादी का बढ़ना और इन बच्चों की दुर्दशा का किसी के पास कोई जवाब नही है । सरकार के साथ ही साथ कई गैरसरकारी संगठन कार्य करते है बच्चों के लिए पर क्या ये संगठन आखं बंद करके चलते समाज में ? क्यों नहीं दिखता है इन्हें चाय की दुकान का रामू । कूड़ों की ढेर से पाँलीथीन बिनती हुई गुडिया और सड़क पे भीख मागंते हुए नन्हें बच्चे। क्या यही सूरते है भारत का । दिल्ली की दशा का यह नमूना है तो देश के अन्य जगहों की कल्पना आप स्वयं ही कर सकते हैं।
सरकार ने अपनी हेल्प लाईन नं समय समय पर लोगों को जागरूक करने के लिए खोल रखी है पर मेरा सवाल यह है कि क्या सरकार खुद नहीं सो रही है? जनता का सवाल बहुत बाद का है। १०९८ यह फोन नं आप याद करये और भूल जायिये हां अगर आप जागरूक है तो कभी फोन कर आपस के किसी बच्चे के बारे में न बताये अन्यथा उसकी रोजी रोटी जा सकती है। क्या यही भविष्य है जिसकी बात करते हैं हमारे प्रधानमंत्री जी? कैसे बदलेगी ये जिंदगी । और कैसा होगा सफर इसकी कल्पना करना बहुत मुश्किल नहीं है हमारे आप के लिए ।

Thursday, September 25, 2008

हिन्दी साहित्य के स्तम्भ के रूप में रहें दिनकर , हिंदी और हिन्द कही भुला रहा है इस महाकवि को?


जाने-माने कवि रामधारी सिंह दिनकर जीवित होते तो सौ साल के होते। हिंदी कविता के आकाश में वह एक धूमकेतु कि तरह चमके,लेकिन विड़ंबना यह है कि उनकी जन्मशती वर्ष में भी उनकि यादें अंधेरे के हवाले हैं। एक दो गोष्ठियों को छोड़कर उनकी जिंदगी और काम को लेकर हिंधी समाज में कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं हुई। बदले हु समय में इतिहास किसी युग पुरूष के साथ क्या सलूक करता है, इसका अहसास उन्हें अच्छी तरह से थाः
मसि की तो क्या बात, गली की टिकरी मुझे भुलाती है
जीते जी लड़ मरूं पर, याद किसे फिर आती है
लेकिन दिनकर ऐसे व्यक्तित्व नहीं थे जो समय की मागं पूरी करके बदलते दौर में प्रासंगिकता हासिक करते हैं। वे ऐसे तो लेखक थे जिनकी रचनाओं से गुजरकर कोई भी दौर अपना आगे का सहि रास्ता चुन सकता है। दिनकर की सस्वत प्रासंगिकता इसीलिए है। इसी कारण वह हिंदी के एक कालजयी कवि है। दिनकर जैसे लोकप्रिय कवि हिंदी में ज्यादा नहीं है। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि कविता पाठ के दौरान अपनी किसी कविता कि एक पक्ति सुनाने के बाद जरा रूकते थे तो उसकी अगली पक्ति श्रोता सामूहिक रूप से बोल देते थे।
दिनकर ने यह लोक प्रियता यूँ ही हासिल नहीं की थी। वह अपनी रचना में भारतीय समाज और अपने समय के संघर्ष को साथ लेकर चले थे, इसीलिए लोगों के बीच हमेशा उनकी प्रासंगिकता रही और आज भी है। दिनकर ने जिस समय लिखना शुरू किया, उस समय देश में अग्रेजी साम्राज्यवाद के विरूद्ध निर्णायक लड़ाई चल रही थी। दिनकर अपनी राष्ट्रवादी कविताओं के साथ इसमें शामिल हुए। उन्होनें मैथलीशरण गुप्त, बाल कृष्ण शर्मा नवीन और माखन लाल चातुर्वेदी जैसे कवियों की परम्परा का विकास किया । दिनकर जी ने अपनि दो टूक शैली में कविताएं लिखी और लाखों लोगों को उससे प्रेरित किया । कलात्मकता और लोकप्रयिता का मेल उनका सबसे बड़ा काव्य गुण था।
अपनी कविता में उन्होंने जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व किया , इसीलिए उनकी पक्तियां लोकमुख में मुहावरा बन गईः
समर शेष है नहीं पाप का भागी कवल ब्याध
जो तटस्थ हैसमय लिखेगा उनका भी अपराध
अपने इसी विश्वास के कारण उन्होनें अपने समय के संघर्ष के प्रति तटस्थ न रहकर न्याय का पक्ष लिया और हर दौर के प्रसांगिक हो गये। आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में अनेक युग आए लेकिन दिनके किसी दायरे में बंधे नहीं। अपने पहले संग्रह ' रेणुका' में ' मैं शिशर शीर्णा चली अब जाग ओ मधुमासवाली' लिखकर भी वह छायावादी नहीं हुए। इसी तरह हुंकार में उन्होनें लिखाः
हटो व्योम के मेघ तुम्हारा स्वर्ग लूटने हम आते है
दूध दूध ओ वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम आते है
या
कृषक मेध की रानी दिल्ली
वैभव की दीवानी दिल्ली
ऐसी पक्तियां लिखने के बावजूद उन्होंने खुद को प्रगतिवादी से नहीं बांधा। जनमानस से अपना संबंध कायम रखते हुए अपनी कविता का सफर तय करते रहे। वह एकांत में व्यक्ति के लिए लिखने वाले कवि नहीं थे। उन्होंने सार्वजनिक रूप से समूह के लिए लिखा और अक्सर जन आन्दोलनों के साथ रहे। इसीलिए उन्हें राष्ट्रकवि कहा गया। १९४२ के आंदोलन के बाद जब पटना के गांधी मैदान में उस समय के क्रांन्तिकारी जु प्रकाश नारायण ने सभा में दिनकर ने काव्य पाठ किया था और लोग आंदोलित हुए थे। उसके तीन दशक बाद जब पटना के गांधी मैदान में जेपी बिहार आंदोलन के अह्वान के लिए खड़े हुए तो दिनकर अपनी कविता के साथ फिर वहां मौजूद थे। वहां उन्होंने अपनी कविता 'सिहासन खाली करो कि जनता आती है' सुनाई थी। इसके बाद यह पंक्ति जेपी आंदोलन का नारा बन गई थी। स्वयं उस सभा में यह कविता सुनने के बाद जेपी ने भावुक होते हुए दिनकर के मित्र बच्चन लीएक पंक्ति उद्धृत की थी ः
तीर पर कैसे रूकूं मैं आज लहरों में निमंत्रण
दिनकर का काव्य हमें बदलता है। नए सफर के लिए ताकत देता है । इसीलिए वह बार-बार हमारे लिए प्रासमगिक होता रहेगा। दिनकर अपनी उपलब्धियों के कारण ही प्रतिष्ठित साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। दिनकर कि जन्मशती वर्ष में यह बात हमें नहीं भूलनी चाहिए।

क्यों बहार का आना बंद हो गया चमन में ?


क्यों चमन में बहार का आना
बन्द हो गया,
क्यों फूल से खुशबू
अलग हो गई ?
कि फूल खिलते थे जहां
क्यों कांटों का आशियाना हो गया
बस एक बार तो
उठाया था
गलत राहे शौक से
फिर जिंदगी आजमाने लगी
मुझे हर कदम पर
चाहता बहुत हूँ तुम तक पहुँचना
पर दूर
बहुत दूर
तेरा
आशियाना हो गया।

वास्तविकता यही कि मीडिया के माध्यम से गलैमर नहीं बल्कि सकती है तो बस रोजी रोटी.........


जर्नलिज्म का आकर्षण हमारे युवा वर्ग को बहुत प्रभावित कर रहा है। कहीं न कहीं यह ग्लैमर से जुड़ा होने के नाते युवाओं को एक अच्छा कैरियर बनाने का रास्ता दिखाता है । और इस पत्रकारिता के सपने को हकीकत में बदलने के लिए तमाम ढेर सारे मीडिया स्कूलों की भर मार हो गयी है। जिसके द्वारा स्टूडेंट अपनी मन पंसद का कोर्स कर सकते है । यह बात भी इसी से जुड़ी हुई है कि ये मीडिया स्कूल कोर्स के लिए एक मोटी रकम लेते हैं। "दूर की ढोल सुहावनी लगती है " यह कहावत बहुत हद तक मीडिया के क्षेत्र का यथार्थ दिखाता है।
हमारे युवा मीडिया में आने के बाद यह बात जरूर समझ में आ जाती है कि मंजिल इतनी आसान नहीं जितना कि शायद टीवी या फिर फिल्मों में देख कर लगता है । हकीकत से कोसों दूर यहां पर जाब के लिए एडी तलुओं का जोर लगा देना होता है । अगर मान लीजिए जाब बिना किसी एप्रोच के मिल भी गयी तो वह इतना कम पैसे देते है जिससे हमारे सपने जो हमने देखे वो शायद पूरे नहीं हो सकते हैं।
मीडिया में आने वाली युवा पीढी कुछ सोच और कुछ करने का जज्बा लेकर आती है । पर यहां तो मामला ही दूसरा है । कोई सामाजिक सरोकार नहीं हैं , केवल व्यवसायिकता और अपना फायदा। बाजारूपन कहीं न कहीं हम युवाओं को एक गहरी चोट देता है। एक युवा जरूर कुछ नया परिवर्तन चाहता है समाज में और कहीं न कहीं ये बात दिमाग में होती है कि पत्रकारिता के जरिये यह काम आसान हो सकता है । पर मीडियाकर्मी की सोच केवल वहीं होगी जिस संस्थान के लिए वह कार्य करेगा। अन्यथा आप की छुट्टी पक्की समझिये। आप को जो काम दिया जाय केवल उतना ही मतलब रखिये और ज्यादा आप को बोलने का हक नहीं है।
ऐसे हमारी सोच और हमारे विचार को कत्ल कर दिया जाता है निर्ममता के साथ और हमारी स्वतन्त्रता और अधिकार सब उस संस्थान के होते है जहां पर हमारी रोजी रोटी चलती है। यह बदलाव बहुत ही भयावह है पर शायद किया कुछ भी नहीं जा सकता है। सिवाय अफसोस के।

Wednesday, September 24, 2008

शबाना जैसी औरतों का भविष्य क्या होगा? पुरूषों की इस गैर जिम्मेदाराना हरकत के लिए कौन है कूसूरवार?


मेरठ एक बार फिर से मीडिया की नजरों में आ चुका है। मेरठ में आबिद और शबाना की कहानी कुछ ऐसी उलझी है कि सभी की नजरों को अपनी ओर खींच रखा है। १४ साल बाद आबिद का अपने घर वापस आकर शबाना कि हस्ती खेलती जिंदगी में उथल-पुथल मचा दिया है। जब कि शबाना का निकाह दुबारा से हो चुका है। आबिद का कहना है कि शरीयत में यह बात साफ है कि जब तक पति से तलाक न हो जाये बीबी दूसरी शादी नहीं कर सकती है। शबाना के पास आबिद का एक लड़का है और दुबारा हुए निकाह के बाद शबाना के दो और बच्चे हैं ।
शबाना कि जिंदगी दोराहे पर खड़ी है एक तरफ तो उसकी नयी जिदगीं अच्छी तरह से चल रही है और दूसरी तरफ पुरानी कहानी में आबिद के आने से नया बखेड़ा खड़ा हो गया है। कुछ सवाल अभी भी आबिद के लिए समस्या बन सकते हैं। आखिर १४ साल तक आबिद कहां था? उसे अपनी पत्नि की याद क्यों नहीं आयी? आखिर किस उम्मीद पर शबाना उसका इंतजार करती? दूसरा निकाह शरीयत के अनुसार भले ही गलत क्यों न हो पर एक अबला का समाज में अकेले जीवन बीतना किस हद तक सफल हो पाता?
सामाजिक समस्या का नया रूप है शबाना की कहानी । यह कहां तक अब सफर करती है यह देखना होगा। सामाजिक रूप से क्या सही है क्या गलत है यह जरूर चर्चा का विषय है। शबाना के ऊपर अब दो परिवार का जिम्मेदारी है और अब उसकी जिदगी किस मोड़ पर जायेगी यह तमाम सवाल है जिसके जवाब जल्दी ही ढ़ढने होगे।पुरूषों कि इस तरह कि गैर जिम्मेदाराना हरकत के लिए क्या सजा होनी चाहिए । शादी का मतलब साथ निभाना होता है न कि बीच में ही साथ छोड़ कर चले जाना । यह मुद्दा हमारे लिए एक सवाल कर है कि क्या है शबाना जैसी औरतों का भविष्य।

देश के लिए क्या खतरा बन चुके है संप्रदायिक संगठन ? इन पर रोक लगाना कितना उचित है ? कहीं राजनीति तो नहीं हो रही है देश के नाम पर ?


देश के कई हिस्सों में ईसाईयों और चर्चों पर हो रहे हमलों में विश्व हिन्दू परिषद एवं बजरंग दल की संलिप्तता के आरोपों के साथ ही साथ यह बहस भी गरम हो गयी कि क्या इन संप्रादायिक संगठनों कप प्रतिबंध लगा देना चाहिए?पर सवाल यह है कि प्रतिबंध लगाने ये संगठन के क्रिया-कलाप में कितना अन्तर आयेगा? हो सकता है प्रतिबंध लगाने से कहीं हिंसा और न भड़क जाय या फिर ये संगठन किसी नये संगठन का रूप धारण कर लें । अब जरूरत है कि इन संगठनों कि गतिविधियों को कैसे लगाम लगाया जाय? जबकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर १९४८ और इमरजेंसी के समय पर प्रतिबंध लगाया गया था। पर इससे कोई फायदा नहीं हुआ।
उधर सिमी (स्टूड़ेट इस्लामिक मूवमेंट आफ इण्डिया ) पर हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली पर हुए हमलों का जिम्मेदार मानते हुए प्रतिबंध लगाने का शोर जोरों पर है। सिमी पर हैदराबाद, बेगलरू , जयपुर तथा उत्तर प्रदेश के बम धमाको में शामिल होने का आरोप है। यदि सरकार सिमी को प्रतिबंधित घोषित कर दे तो क्या यह मान लिया जायेकि भविष्य में भारत में हमले नहीं होगें।
संप्रदायिक संगठन पर प्रतिबंध लगाना मात्र एक औपचारिकता होगी। और इससे यह संगठन की गतिविधि रूकने वाली नहीं है बल्कि सरकार के इनके क्रिया- कलाप पर ध्यान रखना होगा । तभी इन संगठनों को रोका जा सकेगा। भारत में संप्रदायिक ताकतों को बढ़ाने में हमारी तुच्छ और घटिया राजनीति भी जिम्मेदार है। हर पार्टी अपना वोट बैंक कम नहीं करना चाहती है तो वह धर्म के नाम पर राजनीति को हवा देकर अपना फायदा उठाते है। देश की सम्प्रभुता और अखण्डता के लिए तनिक भी नहीं सोचते हैं।
देश में जो कुछ भी घटित हुआ है वह भारत देश की छवि को शोभा नहीं देता है एक तरफ ईसाई और हिन्दू विवाद और दसरी तरफ आतंकी हमला ( जिससे सम्पूर्ण विश्व परेशान है) । सरकार को ही दोष देना ठीक नहीं हैं क्यों कि यूपीए सरकार या कोई भी सरकार आयेगी तो क्या वह एक सख्त कानून बना कर आंतकवाद और इन संप्रदायिक संगठनों को रोक सकेगी इसकी क्या गारंटी। हम पिछली सरकार की बात करें तो क्या पोटा ने हमलों को रोका था । संसद हमला या फिर गुजरात दंगे हमारे सामने एक भयावह तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।ऐसे में किस पर भरोसा किया जाय। आप क्या सोचते है? अपनी राय से अवगत करायें।

Tuesday, September 23, 2008

शांति का एक दिन -yaagya sharma

बीते २१ सितम्बर को अचानक मालूम हुआ कि आज तो 'विश्व शांति दिवस 'है। जब मुझे पता चला तो मन में सबसे पहला ख्याल यह आया कि आखिर इस दिवस को मनाया कैसे जाता है? जन्मदिन पर केक काटा जाता है , स्वाधीनता दिवस पर झंडा फहराया जाता है, दीवाली के दिन पटाखे फोड़े जाते हैं। क्या आपको पता है कि विश्व शांति दिवस पर क्या करना चाहिए? मुझे कुछ भी पता नहीं था,इसलिए मैंने सोचा कि किसी और से पूछ के देखना चाहिए। सबसे पहले मैंने एक आतंकवादी से पूछा,'आज विश्व शान्ति दिवस ' है । आप लोग क्या करेगें?
आतंकवादी,'बोला आज हम कोई आत्मघाती हमला नहीं करेंगे। कोई गोली नहीं चलाएगे। किसी को मसरेंगे नहीं।बस शांति के साथ बारूधी सुरंग बिछाएगें। मैंने कहा,'उस सुरंग से कोई गुजर गया तो?' वह झट से बोला,' वह उसकी गलती ? कोई शांति से न जीना चाहे तो हम क्या करें? दिनया का कोई उत्सव तब तक सफल नहीं होता है, जब तक कि बाजार उसमें रीचि न ले। शांति के मामले में बाजार बिल्कुल शांत था। किसी दुकान पर शांति नहीं दिख रही थी। बिकने वाली चीज होती तो दिखती। विश्व शांति दिवस वैलंटाइन डे जैसी कोई चीज होता, तो फिर बाजार की रौनक देखने के लायक होती। हर क्लब में ' ओम शांति ओंम' की धुन पर डिस्को हो रहा होता। फाइव स्टार होटलों में स्पेशल' वलर्ड पीस डे मेन्यू' तैयार किये जाते।ग्राहकों के तन-मन में शांति के लिए विशेष'पीस वाइन' की बोतलें पेश की जाती।
शांति से काट के पकाया गया मुर्गा परोसा जाता। दिन का उत्सव रात तक चलता। बाजार जब मनाएगा तो सिर्फ विश्व शांति दिवस नहीं मनाएगा, वह साथ में विश्व शांति निशा मनाएगा। आधुनिक समाज नाइट में लाइफ ज्यादा महत्तवपूर्ण होती है,तभी तो ज्यादातर 'दिनो' के उत्सव रात में मनाये जाते हैं। फिलहाल विश्व शांति दिवस ऐसे नहीम मनाया जा रहा था। कारण साफ है, वह वेलंटाइन ड़ जैसा सेक्सी नहीं है न।
शांति की हर बात में बुजुर्ग बहुत रूचि लेते है। मैंने एक बुजुर्ग से पूछा,' आपकी राय में विश्व शांति दिवस कैसे मनाया जाना चाहिए?' बुजुर्ग ने कहा, ' आजकल कैसे मनाएं यह तो मुझे पता नहीं । लेकिन हमने पंडित नेहरू का जमाना देखा है । वे शांति के नाम पर कबूतर उडाते थे।" कबूतर उड़ाने से शांति हो जाती है?" 'सिर्फ कबूतर नहीम' सफेद कबूतर"। ठीक है सफेद कबूतर? क्या सफेद कबूतर उड़ाने से शांति हो जाती है। यह तो काग्रेसियों से पूछों?बुजुर्ग में तरफ ऐसी नजर से देख रहे थे तो मैने वहां से खिसकना ही बेहतर समझा। अन्यथा शांति भंग हो सकती थी।

नज्में - नजर




इस नयी उम्र में बहुत कुछ सीख रहा हूँ मैं,
इश्क की बारिश में भीग रहा हूँ मैं।
खुली आंख से ख्वाब देख रहा हूँ मैं,
उससे कुछ कहने डर रहा हूँ मैं।।

१-
अपने सजदो के निशां नूर-ए-नजर पर छोड़ दिये मैंने
वो दो फूल भी न ला सका मेरी मजार पर
२-

अफराद(बहुत ज्यादा) नहीं मिलते यूँ कांधे मय्यतों को।
मुआयदा(वादा) ही करते हैं लोग कयामत से कयामत का।।

३-

आइने में यूँ नहीं दिखती दरार मुझे।
गनीमत है दो चार हम सूरत नहीं शहर में मेरे।।

४-

मेरी तिलाबत से मेरी तकदीर को ना देखो।
मैं अधेरों में भी मंजिल को पा लेता हूँ।।

५-

जंजीरे जकड़ लेती हैं आजाद होने से पहले।
मैं हर गर्दिशों को तोड़ देता हूँ तेरी इबादत से पहले।।
६-

चलायी कलम मैने तो अल्फाज बन गये।
और ऐसे बने अल्फाज की हम खुद ही गुनहगार बन गये।।

७-

लटको न शाखों पर टूट जायेगी ।
जिंदगी की शाम अंधेरों में डूब जायेगी।।

८-

हर उम्मीद का दिया जलाया था मैने हर रात आने से पहले।
अंधेरा ले गया रोशनी मेरी कायनात में आने से पहले।।

९-

गुजारी है कई रातें मैंने मेरे शहर में।
यहां तहजीब से बोलो इज्जत मुफ्त मिला करती है।।

सरकारी योजनाएं हुई खस्ता हाल तो आखिर कैसे हो गरीबी से बचाव?


गावं की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है सरकार भलें ही यह दावा करे कि उसकी नीतियों से देश के पिछड़े और निर्धनों की स्थिति में सुधार हुआ है।सरकार की योजनाओं का कोई खास असर नहीं दिख रहा है, और इन योजनाओं की मिसाल देकर सरकार यह कहे कि इनसे गांव की सूरत बदली है। सरकार के तमाम योजनाओं पर आज सवालिया निशान लग रहें हैं। मध्य प्रदेश में कुपोषण से पिछले वार माह में १६० से ज्यादा मौतें हुई है। जनजातीय इलाकों की हालत और भी खराब है। यही साथ हीसाथ दूसरे राज्यों की भी स्थिति अच्छी नहीं है।
देश में भूख से जो मौतें होती है सरकार उसे स्वीकार नहीं करती है , किसानों की आत्महत्या की खबरे आती रहती है, गांवों में मौत के लिए कई छोटी-छोटी बीमारियां भी जिम्मेदार है। इसकी वजह है पर्याप्त भोजन का न मिल पाना। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि देश के २० करोड़ लोगो को ढ़ग का खाना नसीब नहीं होता है । पचास से ज्यादा फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार है।
महिलाएं भी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं न होने के कारण प्रसव के दौरान जान गंवाती है ।(लगभग ५ लाख महिलाएं ) । भारत सरकार ने राष्ट्रीय रोजगार गारटी योजना को केन्द्र ने बड़ जोरशोर से शुरू किया था पर यह ढ़ग से अमल में लाया नहीं जा सका। और मिड डे मील योजना का भी खस्ता हाल है। हर जगह पर यही रोना है कि सरकार के द्वारा मुहैया कराया धन स्थानीय स्तर तक आते आते बट जाता है और लाभ न के बराबर होता है। भारत की ग्रामीण इलाको का यथार्थ बहुत ही भयावह है। केवल योजना देने से ही स्थिति नहीं सुधरती बल्कि योजना का सही उपयोग भी होना जरूरी होता है जो कि नहीं हो रहा है।

Monday, September 22, 2008

बदलते भारत के साथ ही साथ टूटते रिश्तेऔर बदलती हमारी संस्कृति


समाज में आज बदलाव तेजी से हो रहा है इस तेजी का प्रभाव हम सभी के ऊपर पड़ रहा है। कुछ अच्छा तो कुछ बुरा भी। समाज के इस बदलाव को विकास की रफ्तार से जोड़ कर देखा जाता है। हमारे रिश्तों के बीच में कुछ न कुछ दूरियां बढ़ी है । चाहे बात माता-पिता की करे या फिर बाप बेटे की या फिर पति पत्नी की। आज की भागदौड़ में इतना समय नहीं मिल पा रहा है कि हम एक दूसरे के दुख दर्द को सुन सके या फिर कुछ समय बैठकर प्यार से दो बातें कर सके। बदलते भारत के साथ ही साथ टूटते रिश्ते और खोती हुई हमारी संस्कृति से होता सामाजिक बदलाव

यह भागमभाग कहीं तो विकास को जरूर तेजी प्रदान कर रही लेकिन कहीं न कहीं हमारे समाज को एकांगी स्वरूप भी दे रही है। एक बच्चा क्या चाहता है? वह यही चाहेगा कि उसके मा-बाप उससे बात करें ,प्यार करें और समय दें जो कि नहीं हो रहा है। कहीं न कहीं आज के मेट्रो सिटी के बच्चे का बचपन सिर्फ चहरदीवारी के बीच घुट कर रहा गया है। (हमारे समाज में सबसे बड़ी बुरायी यही है कि जो सबसे घनवान है उसे ही सम्मानित नजर से देखा जाता है।) बच्चे को न तो संस्कार मिलता है न प्यार । जोकि एक सभ्य समाज के लिए बेहद जरूरी है। कहीं हम ये भूल करते है कि पैसे को ही सब कुछ समझने लगते है।


भारत में चलन था सामूहिक फैमिली का जो कि अब टूट चुका है । लोगों का एक साथ रहना एकता, भाईचारे और प्रेम का सूचक था ।पर हमने अपने को परिवार से अलग कर एक नयी शुरूआत की कुछ अच्छे परिणाम को सोच कर पर आकड़े तो यही बताते है कि ज्यादातर लोग जो अकेले रह रहें हैं वो खुश नहीं है जब कि उनके पास भौतिक सुविधाएं उपलब्ध है। जीवन एक मशीन जैसा हो गया है सुबह घर से आफिस और रात को घर यही जिंदगी हो गई।
किसी के पास समय नहीं किसी के लिए। आखिर टूटते रिश्ते क्या समाज को एक अच्छा भविष्य दे पायेगें। और इन रिश्तों का बुरा प्रभाव हम सभी के लिए भयानक होगा।

हम आगे जरूर बढे और देशहित और खुद के लिए भी अच्छा करें पर परिवार को साथ रखकर । रिश्तों में कटुता न आये इसके लिए प्रयास करें । मां , बाप ,भाई-बहन,पत्नी तथा बच्चों का ख्याल रखें और अपने आप में बदलाव लायें।जिससे एक अच्छे भारत की कल्पना को सार्थक रूप दिया जा सके। और साथ साथ हमारे संस्कार और संस्कृति का भी बचाव हो सके।

दूरी कहीं होती नहीं??


दूरी कभी पास नहीं आयी
जब तुम पास थी,
वक्त का आना-जाना
पता ही नहीं चलता था,
सब कुछ हसीन लगता था
इंतजार करना भी
एक खुशी देता था,
तुमसे मिलकर मेरा
अधूरापन खत्म सा हो गया था,
न कोई तन्हाई
न कोई खामोशी
और
न कोई उदासी
तुमने अपनी आहट से
बदल दिया था मेरा जीवन,
दिखाये थे जीने के नये रास्ते,
मैं भी बंदकर आखें
चल दिया था उसी पर,
सजाये थे सपने
तुम्हारे साथ हमेशा के लिए
तुमने भी तो जीता था-
मेरा विश्वास
मेरा प्यार
आखिर क्यों खुदगर्ज हो
गई तुम?
क्यों दिखाये टूटे सपने
क्यों तोड़ा मेरा विश्वास
और
क्यों दिया झूठा प्यार
है यही मेरे सवाल?
मिलते नहीं है जिसके जवाब।

Sunday, September 21, 2008

देश में धर्म के नाम पर होती राजनीति सांप्रदायिक हिंसा को क्या बढ़ा रही है?


कर्नाटक की सांप्रदायिक हिंसा अब राजनीतिक रंग लेने लगी है। बीजेपी औ बजरंग दल का यही प्रयास लगता है कि कर्नाटक की घटना को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया जाय । कर्नाटक में ईसाई और हिन्दू दंगों ने संपूर्ण विश्व में भारत की धर्मनिर्पेक्षता वाली छवि को कहीं न कहीं धूमिल किया है। अमेरिका ने भारत को धार्मिक स्वातन्त्रता की रक्षा करने को कहा है।
बीजेपी, बजरंग दल और अनेक हिन्दू संगठन का कहना है कि कर्नाटक में ईसाई धर्म को बढ़ावा देने के पैसे के बल पर तमाम गरीब हिन्दूओं को धर्मातंरण के लिए प्रेरित किया जाता है। जबकि मिशनरियों और ईसाईयों का ये कहा है कि जो लोग खुद अपना धर्म बदल रहें हैं तो उसमें हमारी क्या गलती? कर्नाटक के विषय को केन्द्र सरकार यदि गम्भीरता से नहीं लेती है तो यह सरकार और देश के लोगों के लिए एक बड़ी समस्या का रूप ले सकता है। अभी उड़ीसा के कंधमाल जिले में हिंदू कट्टर पंथियों ने ईसाई ग्रामीणों और गिरिजाघरों पर हमला किया। और अब कर्नाटक में भी ईसाईयों के खिलाफ हिंसा हो रही है। नेता इसे रजीनीति से जोड़ने लगे हैं।

भारत में कुछ समय से सांप्रदायिक हिंसा ने देश की संप्रभुता और अखण्डता को तोड़ने की कोशिश की जा रही है, चाहे जम्मू-कश्मीर , उड़ीसा या फिर अब कर्नाटक हो। यहां पर आम जन जीवन पर असर पड़ा है , कहीं न कहीं जाति और धर्म को निशाना बनाया जा रहा है और उसी के आड़ में देश को विखण्डित करने का दुष्प्रयास किया जा रहा है। इस तरह की घटना को बचाना सरकार के साथ साथ आम नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह इनका सहयोग न करके बहिष्कार करें। तभी इन सभी ताकतों से निपटा जा सकता है।

Friday, September 19, 2008

भारत में बेटियों की संख्या में कमी हो रही है और नारा लग रहा है"बेटी बचाओ" पर कैसे?


यदि स्त्री न हो तब दुनिया कैसी होगी? यह सवाल हम उन आकड़ों के देखते हुए कर सकते हैं , जो हाल ही के सर्वेक्षणों से निकल कर आये हैं। यह संदेश आप को सरकारी और गैरसरकारी संस्थानों द्वारा पहुँचाया जा रहा है पर भारतीयों के कान में जूँ तक नहीं रेंगी? हमारे सामने-भ्रूण हत्या,दहेज दहन या स्त्री हत्या को विभिन्न स्त्री दोषों से जोड़कर अंजाम दिया जाता है।
हमारे यहां लड़की को बोझ समझा जाता है , बच्ची गरीब हो या अमीर वह एक बोझ , परायी अमानत कीतरह पिता के घर पलती है। कुदरत की दी हुई लड़की स्त्री-पुरूष के क्रोमोजोम के मिलन का परिणाम है, जिस पर हमारे देश वासियों का कोई बस नहीं है। अब आलम यह है कि परिवार में भले आसामान्य बेटा हो जाए, लेकिन सामान्य स्वस्थ्य लड़की नहीं चाहिए। वैसे इन बातों के सच को हम सभी जानते हैं।लेकिन नहीं जानना चाहते उस सूत्र को, जिससे लड़की को मनुष्य के रूप में इतना हेय माना गया हैकि उसका जीना बर्दास्त के बाहर है।
यह गजब की नफरत ही उस पर तब से कहर बनकर टूटने लगती है, जबकि वह गर्भ में हाथ पांव तक नहीं हिला सकती है। और औरत बनते ही मर्द के आकर्षण का केन्द्र बन जाती है। जिन प्रदेशों में औरतों कि संख्या कम है उन्हें औरतें चाहिए। वे सेवा के लिए , श्रम और सेक्स के लिए,वंश चलाने के लिए या बेटे पैदा करने के लिए। ऐसे में औरतों के खरीद फरोख्त के बिना समाज नहीं रह सकता है। यदि कन्या वध ऐसे ही जारी रहा तो औरतें सोने के भाव बिकेगीं।और भारतीय माता-पिता बेटियों को जन्म देगें।
रूढिवादी परम्पराओं के तले हम "बेटी बचाओ" का नारा किसके लिए लगा रहें हैं? बेटी हमारी ताकत है, लेकिन संपत्ति का अधिकार न देकर हम किस सशक्तिकरण की बात कर रहें हैं? बेटियों को मारने का ग्राफ ऊपर ही जा रहा है। इसमें कोई परिवर्तन तब तक कारगर नहीं होगा , जब तक वह सहज रूप से व्यवहार में न आये। पहले हम अपने व्यवहार को बदले। और अपनी मानसिकता को आजाद करेंऔर बेटी को सही नजरिये से देखें , बराबरी का दर्जा दें तब समाज में कुछ असमान्य उथल पुथल हो सकता है । वरना सब वैसे ही चलता रहेगा और नारे लगते रहेगें।

आतंक को करारा जवाब । कुछ खोया और कुछ पाया ,भारत में मुसलमान ही क्यों है हर हादसे के पीछे?

खबर कान में पड़ते ही टी वी पर खबर देखा कि दिल्ली पुलिस ने दिल्ली बम धमाकों के आतंकियों में दो को ढ़ेर कर दिया है और मुठभेड़ जारी है। दिल को तसल्ली हुई। और बम धमाको से पीडित लोगों का दृश्य फिर से आखों के सामने घूम गया।
यह सफलता एक बड़ी सफलता है आतंकवाद के खिलाफ दिल्ली पुलिस की। पर सबसे दुखद बात यह रही कि हमने एक जांबाज आफिसर को खो दिया । पकडे गये दो आतंकवादी पुलिस के लिए अब एक रहस्य मय चाबी की तरह होगें। पुलिस एनकाउट के समय एक आंतकवादी भागने में सफल रहा है । वैसे यह सफलता और अच्छी तब होती जब सभी आतंकी जेल की दीवार में होते । यह एनकाउटर पुलिस पर सवालिया निशान को साफ करने में सहायक साबित होगें । और साथ ही रक्षा मंत्रालय भी कुछ राहत की सांस लेगा।
पुलिस के शहीद हुए मोहन चंद शर्मा के एक छोटी सी गलती ने उन्हें हम सबसे जुदा किया । आखिर एनकाउंटर के समय पर बुलेटप्रूफ जैकेट क्यों नहीं पहनी? क्योंकि यह किसी भी आपरेशन का सामान्य नियम होता है । पुलिस की कुछ लापरवाही के चलते इतनी घेराबंदी होने बाद भी एक आतंकी हाथ से निकल गया । उसने कौन सा रास्ता अपनाया और पुलिस उसे क्यों नहीं पकड़ पायी?
आतंक का मुँहतोड़ जवाब दिया है दिल्ली पुलिस ने । अब आने वाले समय में कोई ऐसी घटना न हो इसके लिए सख्ती से काम करना होगा । क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी में अगर एसी वारदात हो सकती है तो भारत के किसी और जगह की दशा और खराब है।
एनकाउटर सही या गलत इस पर मीडिया का सवाल शुरू हो रहा था । हर चैनल अपना सवाल लिये खड़ा था ? पर पुलिस के मोहन शर्मा के शहीद होते ही सब सवाल समाप्त होगये। मीडिया के ऐसे रैवये पहली बार नहीं है पर यहां पर मीडिया की कोशिश व्यावसायी करण कि नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह मामला राष्ट्र से जुड़ा हुआ है।
सभी आतंकी युवा है और ये हमारे भारत के भविष्य होने चाहिए थे ,पर क्यों इनके हाथों में मौत का सामान है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? गांवो के युवा क्यों साथ देते हैं आतंक का जबकि पता है इन्हें अंजाम खुद भी। नाम इस्लाम का और काम कसाई जैसा । बदनाम करते है कौम को अपनी । चर्चा होती मुसलमान के नाम पर ? आखिर क्यों मुसलमान ही होता है हर हादसे के पीछे? भारत के धर्मनिरपेक्षता पर एक अहम सवाल खड़ा करता है। हमसब भाई है पर ये हादसे क्यों?

प्यार,इश्क और मोहब्बत पर चर्चा ? आप क्या मानते हैं यह सही या गलत ? अपने तर्क दें। ग्रेटर नोएडा की घटना पर आमराय क्या है?


इज्जत के नाम पर फिर से हत्या का मामला सामने आया है । प्यार की सजा जान देकर पूरी करनी पड़ी । एक १८ साल की लड़की और उसके प्रेमी को पीट - पीट कर मार डाला गया। और बाद में निर्ममता से दोनों के शवों को आग के हवाले कर दिया।
ऐसी घटनाएं हमारे समाज को शर्मसार कर रहीं है , तमाम शोर होने के बाद भी यह सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा है। सिर्फ गांवों में ही नहीं अपितु शहरों में भी ऐसी घटनाए घटित हो रही है। इससे तो एक बात साफ हो जाती है कि ये घटनाएं हमारे समाज में और दूसरी घटनाओं का हौसला बढ़ा रही हैं। इस तरह की घटनाएं न हो इसके लिए सख्ती की जरूरत है , इस घटना को मामूली नहीं समझा जाना चाहिए। और आरोपियों को सख्त सजा मिलनी चाहिए।
प्यार करना गुनाह लगता है और वो भी जब प्रेमी एक ही जाति के ना हो। क्यों अपने ही मां बाप अपने बच्चों के फैसले पर इतना अविश्वास करते है । प्यार की सजा किसी की जा तो नहीं हो सकती? हमारा समाज आखिर कब इन रूढियों से मुक्ति पायेगा । यहां प्यार को इतना तुक्ष क्यों समझा जाता है? बदलाव कहीं नहीं है ? कहने को हम शिक्षित है पर हमारे वैचारिक सोच में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । केवल अंकपत्र ही शिक्षा का मानदण्ड नहीं है । जरूरत है तो सोच बदलने की । हमको खुद में यह परिवर्तन लाना होगा , ऐसी समस्या यदि आप के साथ या परिवार या आस-पास हो तो कोशिश ये रहे कि ऐसी घटना का रूप न लें । आखिर क्या गलत है प्यार करना बतायें आप सब ? और है तो क्यों? जबकि हम वयस्क होने पर अपने फैसले कर सकते हैं। तो यह गुनाह क्यों?

Thursday, September 18, 2008

रिएलटी शो बनाम थप्पड़ ,झगड़ा और कारोबार


रिएलटी शो की भारत में भरमार हो हई है, यह भी समझ से बाहर है कि इसमें रिएलटी है या मात्र शो । रिएलटी हो या सो कि रिएलटी पर इसमें रिएलटी जैसा कुछ नहीं, टी वी पर रिएलटी शो पर कलाकार एक दूसरे को थप्पड़ मार दिया।इसकी वजह से झगड़ा शुरू हो गया। यह समझ में नहीं आया कि थप्पड़ की वजह से झगड़ा हुआ या झगड़े के कारण थप्पड़ - शप्पड़ हुआ। यहां रिएलटी यह बताई गई कि कलाकार जरूरत पड़ने पर थप्पड़ अस्त्र का इस्तेमाल कर सकते हैं। रिएलटी शो के जज इस पर बहस कर सकते है कि थप्पड़ अस्त्र था या शस्त्र। जजों का यही काम है, एक तरफ न्यायालयों में यह हंगामा मचा है कि जजों की कमी है और यहां पर चार चार जज बैठे हैं , कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन न्यायालयों के जज नौकरी छोड़ कर चैनलों के जज न बन जायें। क्यों कि यहं प्रतिष्ठा भी है ,शोहरत भी और पब्लिसिटी भी है।
थप्पड़ और झगड़े में क्या सम्बंध है, थप्पड़ से झगड़े का महत्तव बढ़ता है दरअसल यह संसद में झगड़े की तरह होता है । शो कामयाब होने के लिए नकली झगड़ा होता है जिसे दर्शक असली मानने लगते हैं और असली चर्चा में हशगूल हो जाते हैं, सीरीयल में झगड़ा सीनियर और न्यू कमर का होता है। सीनियर का कहना होता हे कि न्यू कमर को अपनी औकात (पता नहीम कि औकात क्या होती है)में रहना चाहिए, न्यूकमर का कहना होता है कि सीनियर को इतनी अकड़ शोभा नहीं देती है। इस तरह से नोक झोकं।
हाल ही में जम्मू में जो भी हुआ ,वह भी झगड़े के रिएलटी शो से कम नहीं था । किसी भी झगड़े को रिएलटी शो में बदलकर कारोबार बिजनेस का नया ट्रेड है। राजनीतिक पड़ित बताते है कि जम्मू का झगड़ा नकली था मगहर जो लोग मारे गये वो असली थे।
रिएलटी शो इसमें क्या रिएलटी है पता नहीं लेकिन रियल के चक्कर में लोग पड़ना भी तो नहीं चाहते ।झगड़ा ही रिएलटी है तो यह मेरे आसपास रोज ही होता है और वह भी जींवत । इसमें टीवी देखने की क्या जरूरत।

Wednesday, September 17, 2008

टूटते रिश्ते अब तलाक तक

भारत में वैवाहिक जीवन अन्य देशों की तुलना में बहुत मजबूत है , प्रेम ही पति पत्नी को एक दूसरे से जीवन के अंतिम समय तक का साथ निभाता है, हमारे यहां की परम्पराये विश्व के अन्य देशों की तुलना में बहुत ही मजबूत हैं। पर समय के साथ ही साथ वैवाहिक जीवन में कहीं न कहीं पर कुछ दूरियां आयी है। जिसका परिणाम होता है अलगाव या फिर तलाक। पश्चात्य परम्परा से ही कहीं न कहीं हम भी प्रभावित हुए है।
पति-पत्नी का रिश्ता हमारे यहां सबसे मजबूत रिश्तों में एक है, और इस रिस्ते में आये विखराव से न केवल पति पत्नी ही प्रभावित होते है बल्कि सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव बच्चों पर होता है । ऐसा नहीं है कि यदि कोई पुरूष अपनी पत्नी का शोषण कर रहा हो तो वहां पर तलाक लेना गलत होगा पर आम बात जो कि आपस में मिल बैठकर सुलझायी जा सकती है उस पर तलाक तर्क संगत नहीं है।
और क्या तलाक होने के बाद स्त्री खुश रह पाती है , और क्या एक अच्छा जीवन जी पाती है तो शायद बिल्कुल नहीं , वैसे पुरूष प्रधान भारतीय समाज में आज भी स्त्री की दशा अच्ची नहीं है पर फिर भी तलाक इसका इलाज नहीं है। अमेरिका में कुछ ही समय में शादियां टूर जाती है जिसका परिणाम होता है बिना पिता के बच्चे । शायद यहां पर महिलाएं खुद के बर्चस्व को भी प्राथमिकता देती है वैसे यह गलत नहीं पर जरा सा अपने को अलग कर सोचे तो तलाक लेने का विचार कितना सही है यह खुद ही समझ में आयेगा।

कमजोर गृहमंत्री हटाओ, आतंकवाद से बचाओ


दिल्ली में हुए बम धमाको ने आंतकवाद से निपटने के सरकार के तौर-तरीकों पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। ऊपर से गृहमंत्री शिवराज पाटिल के रवैये ने आम आदमी के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है। बम धमाको के समय जनता के सामने शिवराज पाटिल ने अपनी वेशभूषा को ज्यादा महत्तव दिया।,जिससे यह बात साफ हो जाती है कि समय के अनुसार वह संवेदनशीलता नहीं दिखा पाये।।और इसके साथ ही साथ गृहमंत्री का बयान भी बहुत अस्पष्ट रहा । आम आदमी की सुरक्षा को लेकर सरकार के पास कोई खास रणनीति नहीं है। आंतकवाद के मुद्दे पर शिवराज पाटिल का ये बयान कि राज्य सरकार केन्द्र सरकार का साथ नहीं दे रही हैं? तो केन्द सरकार ही क्या कर रही है ? क्या केन्द्र राज्यों की सरकारों के साथ आम सहमति नहीं बना सकता है।
पाटिल ने कहा कि लोग उनके कपड़े देख रहे हैं उनकी नीतियों को नहीं। तो आम आदमी तो नेता का रहन सहन और तौर तरीके ही देखता है । उसकी नीतियों को नहीं। पाटिल एक अच्छे ,शालीन ,मितभाषी नेता है पर जब भी बम धमाको या हादसो का समय होता है तब वह अपनी संवेदनशीलता नहीं प्रकट कर पाते हैं। पाटिल के कार्यकाल में अभी तक लगभग चार हजार लोगों ने आंतकी हमलों में जान गंवायी है पर कोई कड़ा कदम नहीं दिख रहा है। कोई नया कानून नहीं है जो को देश को आंतकी हमलों से बचा सके। अमेरिका में ११ सितम्बर की घटना के बाद बड़ी वारदात नहीं क्योंकि वहां कि सरकार ने मजबूत कदम उठाये है। परभारत सरकार क्या भविष्य में कोई आंतकी घटना न हो इसके लिए कुढ ठोस कदम उठायेगी।सराकर को गृहमंत्री के लचर रवैये को अपनओ प्रतिष्ठा का प्रश्न समझते हुए देश को एक ऐसा गृहमंत्री दे जो मजबूत इरादों के साथ आतंक वाद से लड़ सके।

Tuesday, September 16, 2008

आखिरी ख्वाहिश है उसकी

एक सफर लम्बा चलें,
मुस्कुराते हुए उसके कदम
हो हौसला जब जवां तो
मंजिल बढ़ाये खुद कदम,
बंद पलकें आज भी देखती है तुझको
ये मुशाफिर तू कहां है
और
कहां तेरा रास्ता,
भूल जाने की कोशिश की बहुत
पर फिर तेरा इंतजार
है उसको।
आना कभी जब इधर से ,
देना उसको तुम खबर
आखिरी ख्वाहिश है उसकी,
तुमसे मिले
और करे पूरा सफर।

.........रास्ते पर नहीं लौटी जिंदगी.......


दिल्ली बम धमाके को कई दिन गुजर चुके हैं , लोगों का जीवन फिर से अपनी रफ्तार पकड़ रहा है , इन हादसों में बहुत कुछ तबाह हो गया। कई जिंदगी बेकार हुई और कई जिंदगी की रोजी रोटी खत्म हो हई,किसी ने बाप खोया और किसी ने भाई , किसी ने पति और किसी ने अपना बेटा, तो किसी ने मां। दुख के सिवा हमारे पास और कोई लाचारी नहीं । सरकार ने एक मौत की कीमत पांच लाख रखी,
जो हादसे से गुजरे है आज उनकी दुनिया में सिवाय एक टीस के आलावा और कुछ नजर नहीं आ रहा है । सरकार अपना काम कर रही है और आतंकवादी अपना। पर जिसके परिवार का सहारा इस दुनिया से चला गया भला उसका काम कैसे चले।
रास्ते पर भला कैसे लौटे ये जिंदगी इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है । आम दिल्ली वासी बम धमाके के बाद से सिहर सा गया है चेहरे पर एक डर सा दिखता है , हर जगह पर चर्चा का महौल है। कोई भी आज खुद को सुरक्षित नहीं मान रहा है।रोजी-रोटी के लिए लाखों लोग अपना घर परिवार छोड़ यहां आये है एक उम्मीद से कि शायद यहां पर जीवन को सही रास्ता मिल सके। पर रास्ता तो नहीं मंजिल जरूर मिली वो भी मौत की,
जिम्मेदारी कोई नहीं लेता है चाहे वह प्रशासन हो या सरकार । आखिर कब तक मरते रहेगें ये निर्दोष और क्या होगी इनके जान की कीमत । सवाल के जवाब ही नहीं है जान की कीमत ।सोते रहो तो हम जगा सकते है तुमतो पर जब जग ही रहे हो तो कैसे जागोगे। आखूं खत्म हो चुके है आखों से , आवाज ही नहीं निकलती है जुबां से।आशा की कोई उम्मीद ही नहीं , जिये तो जिये कैसे और किसके सहारे।

Monday, September 15, 2008

गीत - मेरे

धड़कन बनी दिल की जुबां
आओ चले हम -तुम वहां
जहां कोई न हो
मौसम लगे कितना हंसी
ये रास्ता नया लगता नहीं
बारिश सुनो कहती है क्या
है ये हवा बिल्कुल वही
धड़कन बनी दिल की जुबां
आओ चले हम तुम वहां जहां
कोई न हो
हमको कुछ न पता हो
चाहे दिल से खता हो
वक्त थम जाये अभी
अपनी कोई सजा हो
धड़कन बनी दिल की जुबां
आओ चले हम तुम वहां
जहां कोई न हो।

Sunday, September 14, 2008

बिकनी टाप ही टाप पर


एक्टर से सिगर बनी शर्लिन चोपड़ा अपने हालिया अलबम 'दर्द-ए-शर्लिन' का प्ररमोसनल टूर करने जा रही है। इस टूर में सबसे बड़ा सिर दर्द है शर्लिन का डायमंड वाला बिकनी सूट,जिसे वह अपने रिमिक्स वीडियों में पहन चुकी है।इस बिकनी की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए आयोजक परेशान है कि भीड़ में रीयल डायमंड वाला टाप पहनना बहुत ही रिस्क लेने जैसा है।
वैसे शर्लिन का यह बिकनी टाप पहले से ही चर्चा का विषय रहा है ,कारण सेंसर की वीडियो पर कैंची और हेमा मालिनी का कमेंट। फिर भी शर्लिन अपने वीडियो को हिट कराने के लिए कुछ भी करने को तैयार है और इसी के चलते वह यह टूर करने जा रही हैं।
उधर मधुर भण्डारकर की 'फैशन" की शूटिग में कंगना का टाप गिराने वाला सीन भी मीडिया में छाया हुआ है। इस एर कंगना कहती है की पूरी यूनिट के सामने भला मैं ऐसा कैसे कर सकती हूँ। बात जो भी हो पर आज बालीबुड में बिकनी और टाप ही टाप पर हैं।
चाहे वह शर्लिन हो या फिर कंगना। दिखाओ जो दिखाना है आखिर जिस्म तो तुम्हारा ही है।

सब कुछ बदल गया

सब कुछ बदल गया
हंसती जिंदगी
खुशहाल दुनिया
में
मची तबाही
अपने ही बने
खून के प्यासे
मानवता के सारे रिश्ते
हो गये तार-तार
हंसती जिंदगी
में
छा गया
अंधकार
कहीं कोई सो गया
हमेशा के लिए।
कोई के रहा है
सांसे
इस उम्मीद से
शायद वह
कर सके संघर्ष
मौत से।
आंख से सूखे
आंसू
बंद पलकें
खामोश जुबान
पर है
यही सवाल
कहां खो गया इंसान
और
उसकी इंसानियत।

यह रचना समर्पित है दिल्ली बम विस्फोट पीड़ित के लिए।

Saturday, September 13, 2008

............आखिर इस दर्द की दवा क्या है?


"जिंदगी बीत जाती है एक घर बनाने में,
तु्म्हें शर्म नहीं आती है बस्तियाँ जलाने में"।
२० मरे ,१५० से ज्यादा घायल । शनिवार की शाम आम जिंदगीं के लिए एक ऐसी हवा ले आयी जिससे सब तबाह हो गया मिनटों में ।जिसका डर वही हुआ ।किसे दोष दें , कुछ ने जान गंवाई तो कुछ अपना सब कुछ। दिल्ली का धमाका आम आदमी की नींद को उड़ा कर रख दिया। पीठ-पीछे वार करके अपनी बिल में घुस कर खुद को शेर समझने वाले ये भेड़िये । कभी सामने से तो आकर देखों क्या होता है तुम्हारा । आखिर आये दिन होने वाले ये धमाके कहां पर जाकर रूकेगें ।इसका क्या अन्त होगा कभी। कई सवाल है हमारे पर जवाब केवल है वेबसी।
कुछ आवाज आयी,हलचल हुई। अफरा-तफरी या भंगदड हुई। हम वहीं के वहीं ।आखें ढूढती थी अपनों को । दिल्ली का दिल जला ।इंसान का कोई मोल नहीं ,मांस को लोथडे इधर-उधर बिखरे हुए।आखिर मजबूर इंसान कर भी क्या कर सकता है। कैसे ,क्या करे कि इन दहशतगर्दों के सोयी हुई आत्मा को जगाने के लिए।
आखिर हिंसा से कभी कुछ पाया जा सका है।ऐसे में दिल्ली के लोग साहस से काम लें ।और इस काली करतूत को भूलने की कोशिश करें। जीवन की नयी डगर पर चलें कदम से कदम मिलाकर।आखें नम है , अब तो कभी न आयेंगे जो चले गये हमें छोड़कर। इनका दर्द कोई सुने कैसे?

हिन्दी दिवस पर ही क्यों हिन्दी की हाय-हाय ?


हिन्दी दिवस की समस्त भारतवासियों को बधाई। हिन्दी का विकास ,हिन्दी का प्रभाव और बोलचाल में कम प्रयोग आदि कई मुद्दे हैं जो कि हमें हिन्दी भाषा के बचाव के लिए प्रेरित करते हैं। हिन्दी दिवस पर हिन्दी कि ही बात होगी। हिन्दी विश्व कि उन भाषा में शुमार है जो विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाती है। विश्व की बात अभी न करे पहले भारत के संदर्भ में ही हिन्दी को लेकर देखें।
हम यूपी के हैं और हमें हिन्दी में बात करनी चाहिए। जया बच्चन के इस बयान ने पिछले दिनों बवाल खड़ा कर दिया था। पर इससे जया का हिन्दी प्रेम नजर आता है। राष्ट्र भाषा हिन्दी को लेकर ये बातें क्यों? आज भी बहुत से ऐसे लोग है जो कि हिन्दी में बोलना और सुनना पसंद करते हैं।
हिन्दी की जगह पर आज लोग इंग्लिश भाषा का प्रयोग करते है जो कि एक हद तक जरूरी भी है।कयोंकि यह हमारे रोजगार की भाषा बन चुकी है। पर जहां तक यह भी देखा जाता है कि यदि कोई हिन्दी भाषा में बात करता है तो उसे हीन नजर से देखा जाता है, 'मातृभाषा संस्कार के लिए, राष्ट्रभाषा व्यवहार के लिए और विदेशी भाषा व्यापार के लिए बहुत जरूरी है। और हमें हिन्दी में बात करने पर गर्व महसूस होता है।
हिन्दी भाषा के विकास में हम सब का योगदान होना जरूरी है । हमारा प्रयास इसके विस्तार का होना चाहिए। तो ऐसे में हमें आज ही नहीं बल्कि प्रत्येक दिवस को हिन्दी दिवस जैसा मान कर इसके लिए प्रयास करना होगा।

कास्टिंग काऊच

फैशनपरस्ती के दौर में बालीवुड का ग्लैमर युवा वर्ग को आकर्षित करता रहा है। और इस चकाचौंध कर देने वाली दुनिया में अपने पांव को जमीन दे पाना । लोहे चने चबाने जैसा है, कभी -कभी बालीवुड से ये खबर आती रहती है या आरोप लगते रहते हैं खासकर नये कलाकारों (जिनको कि फिल्मी कैरियर की तलाश होती है) के द्वारा कि उनका शारीरिक शोषण हुआ है। इसमें कुछ हद तक सच्चाई भी है। युवा वर्ग के कलाकार अपना कैरियर जल्दी ही एक मुकाम तक पहुँचाना चाहते हैं। और ऐसे में जरूरत होती है काम की । इसी काम के चक्कर में शोषण का शिकार होना संभव हो जाता है। ज्यादातर वो लडंकियां जो जल्दी ही फिल्मी स्टार बनाना चाहती है तो ऐसे में फिल्मी चक्कर में वो फंसकर अपना रास्ता खुद तय करती है।
कास्टिंग काऊच का कई बार जिक्र आता है जिसमें शक्तिकपूर और मधुर भण्डारकर जैसे लोगों पर आरोप लग चुके हैं। कई बार लडंकियां खुद को ही इस मुसीबत में डालती है और बाद में जब उनसे काम निकल जाता है फिर बाद में जब कुछ हाथ नहीं लगता है तो फिर वाद-विवाद के अलावा कुछ भी नहीं होता है।जो जितना अच्छा ऊपर से दिखता है वह उतना अच्छा हकीकत में भी है यह पता तभी चलता है जब हम उस फील्ड में हो।
इन सारी समस्या से बचाव यही है खुद को ऐसी समस्या में न डालें। जल्दी की कामयाबी में कहीं सब कुछ न चला जाये।

Friday, September 12, 2008

वो चेहरा अपना सा लगता है

वो चेहरा अपना सा लगता है,
शांत आखें कुछ कहती हैं,
चंचल मन मचलता है
दिल में हलचल सी होती है,
फिर क्यों?
वो कुछ कहती नहीं ।
क्यों देखती है वो नजरें बचाकर,
क्यों हंसती है वो हमसे चुराकर,
क्यों चुप सी रहती है वो हमको देखकर,
पर
फिर भी होता है हमारा मेल।
आखिर ऐसा क्यों होता है?
कुछ न कहना भी लगता है
कहने से अच्छा,
न मिलना भी लगता है
मिलने से अच्छा,
समझते हैं हम एक दूसरे को,
शायद
इसीलिए वो चेहरा अपना सा लगता है।

आज तुम जल्दी आना


आज तुम जल्दी आना ,
और
देर से जाना ,
अच्छा नहीं लगता है कुछ भी,
तुम्हारे बिना,
जब से ,
मिला हूँ तुमसे ,
तुम्हारे ही सहारे जीता हूँ,
तुम्हारे ही सहारे सोता हूँ,
एक सपना लिए,
जिसमें केवल मैं होता हूँ,
तुम होती हो,
और
हमारी बातें होती है ,
जो हम करते हैं अपने आप से,
जब से तुम आयी हो ,
मेरे जीवन में ,
सब कुछ हसीन लगने लगा है,
यह मेरा भ्रम है
या
हकीकत यही है,
क्यों समझ नहीं आता है
कुछ भी,
जहां देखता हूँ तुम ही नजर आती,
जहां जाता हूँ तुमको ही पाता हूँ ,
क्या
ये सच है या मेरा भ्रम है,
मैं अकेलेपन में भी होता नहीं,
बिल्कुल भी अकेला,
अब तन्हाई में भी तन्हा नहीं होता हूँ,
ये तुम्हारा प्यार ही है ।
या
कुछ और समझ नहीं पाता हूँ।
अब तो इंतजार रहता तुम्हारे आने का ,
और फिर
देर से जाने का।
ये सब बात मैं तुम से कहता क्यों नहीं?
सोचता हूँ कि तुम आओगी तब कहूँगा,
तुम आती हो
और
कब चली जाती हो पता ही
नहीं चलता
और फिर से तुम्हारा इंतजार।
कि
आज जल्दी आना
और
देर से जाना।

Thursday, September 11, 2008

ब्लाग पर बहस

ब्लाग का बढ़ता दायरा आकर्षित कर रहा है सभी को । और हमारा बालीबुड भी इसमें पीछे नही है। ब्लाग एक ऐसा माध्यम जहां पर इंसान अपनी बात को बिना किसी दबाव के कहता है। ब्लाग का सफर बहुत पुराना न होते हुए भी छा गया है अंतरजाल पर। हमारे फिल्मी स्टार से लेकर निर्माता निर्देशक अपना ब्लाग बना रहें है। हाल में आमिर खान, अमिताभ बच्चन , राम गोपाल वर्मा और मनोज बाजपेयी के ब्लाग चर्चा में रहें हैं। कारण सबका अलग -अलग। कभी अमिताभ ने पुरानी याद ताजा की तो आमिर ने कुछ बालीबुड की अंदर की बात बताई। और अभी हाल में रामू और मनोज बाजपेयी का ब्लाग युद्ध जारी जिससे यह चर्चा में है।
रामू ने अपने ब्लाग पर लिखा कि फिल्म 'सत्या की रिलीज के बाद एक फिल्म अवार्ड में शाहरूख जैसे अभिनेता की मौजूदगी में फिल्म के कैरेक्टर भीखू के नाम से पुकार । तो राम गोपाल वर्मा ने कहा कि लोग तुम्हारे कैरेक्टर नेम से जानते हैं ।जबकि शाहरूख जैसे अभिनेता को नहीं।
इस पर मनोज ने अपने ब्लाग में एक लम्बी पोस्ट लिखी जिससे यह लगा कि मनोज की सफलता का क्रेडिट रामू लेना चाहते हैं। इस पर मनोज ने रामू को झूठा व्यक्ति कहा। रामू को मनोज ने कहा कि उन्होनें ने मुझे फिल्म के लिए रोम दिया इसका मैं शुक्रगुजार हूँ।
फिल्मी हस्तियां ब्लाग का फायदा अपने प्रोफेशन के हिसाब से भरपूर कर रहें। ब्लाग पर आने का कारण कहीं न कहीं अपनी पब्लिकसिटी पाना है । देखा जाय तो इसका फायदा हो भी रहा है।हमारे सेलीब्रिटी एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर एक दूसरे पर लिख पाठक को खींच रहे हैं।

आना चले आना


आना चले आना
मेरे सनम
दिल में मेरे
जाना दूर नहीं जाना
दिल से मेरे
मेरे सनम
भूलेगें न वो हम लम्हें
संग थे हम-तुम सनम
काटे कैसे कटें
ये रातें
तेरे बिना
आना चले आना
मेरे सनम
दिल में मेरे
हम-तुम प्यार से मिलते थे
हम-तुम संग रहते थे
फिर क्यों ?
दूरी हुई
अब दरमियां
आना चले आना
मेरे सनम
दिल में मेरे
मेरे सनम......

Wednesday, September 10, 2008

खुद को जिम्मेदार माना


हमारे समाज का स्वरूप बदल रहा है भले ही आज भी बच्चे को पहचान उसके पिता की ही मिलती है पर मां का अपने बच्चे को एक अच्छा इंसान बनाने में अहम भूमिका निभाती है।घर की रोजी- रोटी के लिए सारा दायित्व पहले पुरूष ही निभाते थे पर बदलाव के दौर में महिलाएं अपनी भागीदारी बखूबी निभा रही हैं। मैंने कुछ महिलाओं से प्रश्न किया कि आखिर क्यों हमारे समाज का ढ़ाचा इतनी तेजी से बदल रहा है? जिम्मेदार कौन है? तो इसके लिए कुछ महिलाओं ने खुद परिवार को तो कुछ ने मीडिया को बताया। महिलाएं मानती है कि महगाई के साथ-साथ हमारे अपने परिवार में दूरियां अधिक हुई है। जिससे अब हम सब को मिलकर काम करना होता है और इस कारण हम अपने बच्चों को उतना समय नहीं दे पाते हैं। जितना कि हमारे मां-बाप दे पाते थे। ऐसे में संस्कार का तो कहीं कोई अता पता नहीं। संस्कृति भी पूरी तरह से बदलती हुई नजर आ रही है।और इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार है और भविष्य में इसके परिणाम भी बहुत बुरे होगें इसका हमें अंदाजा है पर हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते हैं।
मैंने इस मुद्दे पर कुछ सुझाव मांगे तो महिलाएं इसका कोई खास सकारात्मक जबाव नहीं दे सकी। और इसे हमारे समाज कि बुराईयों से जोड़ कर अपना बचाव करती नजर आयी। कहीं किसी ने धर्म तो किसी ने आस्था से जोड़ा तो मैंने कहा कि ये अलग मुद्दा है ।कुल मिलाकर जो बात सामने आयी वह यह की आज की पाश्चात्य संस्कृति हमारे बच्चों पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ रही है जिससे बच्चे अब कुछ ज्यादा ही खुला महशूस कर रहें हैं,वैसे यह खुलापन शारीरिक ज्यादा है और मानसिक कम है। तो ऐसे में समाज में सकारात्मक बदलाव की कल्पना करना दिवास्वपन से कम न होगा।
बच्चों को पूरी तरह से खुली छूट देना क्या उचित है? और बच्चे इसको किस हद तक अपने हित में प्रयोग करते हैं? ज्यादा तर बच्चे ऐसी खुली छूट पाकर अपना भविष्य खराब करते ही नजर आतें है। लाचार माता -पिता भी ंुक जीवन जी रहें अपने बच्चों के साथ।

वो नहीं आये

वो नहीं आये,
जाने क्या बात हुई,
वादा तो किया था ,
निभाने के ही लिए,
फिर क्यों साथ नहीं आये,
राह तकते रहे उस गली का,
जिससे गुजरना था उनको,
अपना तो समझते थे हमको,
फिर क्यों हम रास नहीं आये,
मजबूरियां होती है सबकी,
ये जानता हूँ मैं भी,
पर वादे एतबार था उनके, जो खुली आंखों से,
धोखा हम खाये,
वो नहीं आये।
वो सूने रास्ते,
वीरान गलियां ,
हमसे पूछती है पता तेरा,
मैं कहता हूँ कि-
आना है उन्हें आज भी
मिलने तुमसे, ये बात है
बस बात में गुजर जाये,
अब वो नहीं आये।

लो"कंडोम" बन गया रिंगटोन


कान्फ्रेंस हाल में किसी सीरियस मैटर पर डिस्कशन हो रहा हो।। अचानक सविता के कलीग तरूण के फोन से 'कंडोम, कंडोम की घुन बजने लगी। हाल में बैठे कुछ लोग तो हंसने लगे,जबकि कुछ एकदम हैरान रह गये। सविता को भी झिझक महसूस हो रही थी। तरूण भी तुरंत मोबाइल उठाने के लिए लपका , लेकिन आपको यह जानकर हैरानी हो सकती है कि यह रिंगटोन विश्व की नं एक रिंगटोन बन चुकी है। नैशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन का कहना है कि यह रिंगटोन लोगों में एड्स के प्रति जागरूकता पैदा करेगी।
अभी कुछ दिनों पहले टीवी पर एक दिलचस्प ऐड लोगों के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ था। जिसमें कबड्डी,कबड्डी की जगह पर कंडोम,कंडोम बोलते हैं। जैसे कि यह सिर्फ काफी नहीं था। अब सेल फोन पर आप चाहें तो ऐसी रिगटोन डाउनलोड कर सकते हैं, जिसमें किसी का फोन आने पर आपको नार्मल ट्रिंग-ट्रिंग की तरह कंडोम-कंडोम सुनाई देगा। कई लोगों ने इसको अपनाया भी है।"कंडोम ए कैपला दो साल का प्रोजेक्ट है " जिसका मकसद लोगों में कंडोम के इस्तेमाल में झिझक को दूर करना है। लोग अब भी कंडोम का नाम लेने में झिझकते हैं। आज मोबाइल शहर से गांव तक आम हो गया है। किसी के मोबाइल की रिंगटोन से उस व्यक्ति के नेचर का पता चलता है। ऐसी में यूथ सेक्स के प्रति जागरूकता पैदा करना है। और शर्म भी दूर हो सकेगी। सवाल यह है कि कितने लोग इस सलाह को मानने के लिए तैयार होगें या 'कंडोम' जैसी रिंगटोन से प्राभावित होगें?इस रिंगटोन के जहां तक दुष्परिणाम की बात है तो शरारती किस्म के पुरूष महिलाओं के नजदीक इस रिंगटोन को बजाकर उनके लिए अजीब स्थिति जरूर पैदा कर सकते हैं। और अगर इस तरह की रिंगटोन बजती है तो आसपास लोगों को इसे उलझन हो सकती है और कुछ लोग खिलखिलाकर हंस भी सकते हैं।इस सब्जेक्ट पर टीवी ऐस काँमिडी से ज्यादा और कुछ भी नहीं।रिंगटोन को सफलता तभी मिलेगीं, जब हम अपने टारगेट ग्रुप को इसके सुरक्षित इस्तेमाल का तरीका समझा सके।और बड़े बुजुर्ग को सेक्स के बारे में खुली बहस के लिए प्रेरित कर सकें।वैसे सभी के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम होते है यह हम पर निर्भर करता है कि हम क्या ग्रहण करते हैं।

Tuesday, September 9, 2008

उन दिनों....


उन दिनों...
हम-तुम कितने खुश थे,
छोटी-छोटी बातों पर हंसते ,
बिन बातों के ही रूठते,
तुम हंसके के मुझे मनाती
और
मैं हंसके तुम्हें जलाता था,
उन दिनों...
दिल धड़कता था एक साथ ,
नहीं होती थी जब तुमसे मुलाकात,
तब लगता कि,
अब आ भी जाओ
एक पल को मेरे पास,
उन दिनों....
मौसम बदल गया,
हालात बदल गया,
अब आती है जब याद,
खो जाता हूँ लम्हों के साथ,
उन दिनों......हम-तुम कितने खुश थे।

Monday, September 8, 2008

बयान पर राज की राजनीति


महाराष्ट्र नव निर्माण सेना(एमएनएस) ने एक बार फिर से अमिताभ बच्चन और उनके परिवार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वजह जया बच्चन की यूपी और हिन्दी के बारे में टिप्पणी। एमएनएस ने ऐलान किया कि जब तक जया अपनी कथित विरोधी टिप्पणी के लिए बिना शर्त माफी नहीं मांगती, वे किसी भी फिल्म को महाराष्ट्र में रिलीज नहीं होने देगें। राज ठकरे नें मराठियों से इउन प्रोडक्टस का बहिष्कार करने को कहा जिसका प्रचार बच्चन परिवार के सदस्य करते हो। राज टाकरे काआरोप यह कि बच्चन परिवार के अन्दर मराठियों के प्रति जहर भरा है। जया नें फिल्म द्रोण के सेट पर कहा था- हम यूपी के लोग हैं,हमें हिन्दी में बात करनी चाहिए। इसी बयान को निशाना बना कर राज ठाकरे बच्चन परिवार पर निशाना साधे हैं। और राजनीतिक हवा दे रहें हैं। इसके चलते हाल की रिली ज होने वाली फिल्मों जैसे रितुपर्णों घोष की इग्लिश फिल्म"द लास्ट टायर" के लिए बुरी खबर है। और फिल्म द्रोण पर भी असर पड़ सकता है।
बयान के चलते बालीबुड को गहरा नुकसान हो सकता है। जिसके चलते ये फिल्म का कारोबार प्रभावित हो सकता है। अब ये राजनीतिक गरमागरमी कब रूकेगी यह तो बाद में पता चल पायेगा। पर आये दिनों चाहे वह असम हो या फिर महाराष्ट्र हिन्दी के नाम पर लोगों में भेद भाव पैदा किया जा रहा है। जिसका शिकार आम जनता होती है । राजनेता तो अपना वोट ठीक करते है बस। जया ने बयान दिया तो फिल्म नहीं रिलीज होने देगें ये क्या बात है। वाक युद्ध को वाक युद्ध ही रहने दिया जाय ,मारकाट क्यों?

कहानी कमली की............

एक ही सपना लिए जीवन गुजार देना और सपना सच हो या नहीं? क्या पता ।सारे सवाल कुछ भी मायने नहीं रखते जब विश्वास की डोर इतनी मजबूत हो कि वह किसी भी समस्या से जूझने को तैयार हो।
कमली अकेली थी अपने मां -बाबा की । गरीब जरूर थी पर दिल से नहीं। गरीबी का दुख था पर जीवन के प्रति खुश रहने वाली। उम्र १४ वर्ष , चंचल स्वभाव , सांवली काया , बालों में दो फीते (यही सिंगार था), और तन कपड़ों से ढ़का हुआ। पढ़ने के नाम पर कुछ खास नहीं। पर जब स्कूल में वजीफा मिलता तब वह खुश जरूर होती थी क्योंकि बाबा के साथ जब वह स्कूल जायेगी तब उसे मीठी गोलियां और कुछ पैसे जरूर मिलेंगें।
मां-बाबा की लाडली थी कमली। गरीबी का बोझ तो था ही । जिंदगी की रोटी भी बड़ी मुश्किल से चलती थी। ऐसे में एक बेटी का बोझ । पहाड़ सा बुजुर्ग मां-बाप के लिए।मन में यही व्याकुलता रहती कि कमली का ब्याह अपने जीते जी कर दें ।और बेटी अपने घर जा सके। कहीं कोई अपनी जाति का लड़का मिल जाता तो कमली के हाथ पीले कर देते।कमली तो एकदम से नादान , भोली थी । उसे क्या पता कि एकदिन उसे अपना घर छोड़ना होगा। कुछ भी नहीं था उसके घर में पर वह खुश थी।
कमली के लिए उसके बाबा को एक अधेड़ उम्र लगभग ४५ वर्ष का लड़का मिल गया। यह उसकी दूसरी शादी थी। बगल के ही गांव का था। शादी में कमली के मां-बाब ज्यादा खर्च न कर सकते थे तो ऐसे ही वर की तलाश भी थी। दहेज के नाम पर कमली ही सब कुछ थी और कुछ चाहकर भी तो न दे सकते थे।
कमली भी अपनी शादी के बारे में सुनकर मन ही मन खुश थी। एक त्यौहार जैसा माहौल था घर पर , खाने का अच्छा प्रबंध था ,जीवन में पहली बार इतना कुछ देखा था पहली बार।कमली का उत्साह बढ़ा था नये घर जाना है कैसा होगा? क्या होता है शादी में? जहां जाना है वहां लोग कैसे होगे? आदि इच्छाएं थी कमली के मन में।शादी हो गई जल्दी जल्दी । मां-बाबा खुश थे बिटिया अपने घर चली हई। कमली आज खुश तो थी पर मां बाबा को छोड़ कर पहली बार अकेली थी। कमली आज बहुत सुन्दर लग रही है क्योंकि उसने नये कपड़े जो पहने हैं। चांदी के कुछ गहने भी कमली के शरीर पर सजे हैं। कलमी को घेरे है कई महिलाएं और बच्चे। उसका हाल चाल लेने के लिए ।
सुहागरात क्या होती है वह नही जानती पर फिर भी जो कुछ हुआ वह बलात्कार से कम नहीं था ।कमली शायद इसके लिए तैयार न थी । या बचपन ही तो था उसका। पति ने पहली ही रात कमली को पीटा। वह रो-रोकर सो गयी। सुबह हुई वह दुखी थी रात की घटना को सोचकर। पति मिला बाप की उमर का वह भी शराबी , पीता है कोई बात नहीं पर मारता क्यों है? कमली का जीवन भी गांव की सब औरतों जैसा ही था कुछ नया नहीं। पर कमली अनाथ तब हुई जब उसके मां-बाबा न रहे। वह रो रोकर बेहाल हो गई पर उसके पति ने उसे घर जाने न दिया।अब कमली का कोई नहीं रहा इस दुनिया में । पति है जानवर जैसा ।मारपीट करता रहता आये दिन। कमली कभी-कभी सोचती कि भाग जाये कहीं ? पर कहां? कोई सहारा तो न था उसका । अब जीने की आदत सी हो गई थी ऐसे ही। लड़ाई झगडे होते रहते पर जीवन अपनी रफ्तार से चला चल रहा था।
लेकिन अचानक एक दिन पति से रात में झगड़ा हुआ, फिर सब शान्त हो गया । कमली जाकर सो गई । सुबह हुई।खबर आग की तरह गांव में फैल हई कि कमली मर गयी। एक- एक लोग आते गये और भीड़ जमा हो हई। क्या हुआ? कैसे हुआ ?सवाल कई थे पर जवाब कोई नहीं? कमली तो अब चुप थी हमेशा के लिए.......

कहानी कमली की.......

एक ही सपना लिए जीवन गुजार देना और सपना सच हो या नहीं? क्या पता ।सारे सवाल कुछ भी मायने नहीं रखते जब विश्वास की डोर इतनी मजबूत हो कि वह किसी भी समस्या से जूझने को तैयार हो
कमली अकेली थी अपने मां -बाबा की । गरीब जरूर थी पर दिल से नहीं। गरीबी का दुख था पर जीवन के प्रति खुश रहने वाली। उम्र १४ वर्ष , चंचल स्वभाव , सांवली काया , बालों में दो फीते (यही सिंगार था), और तन कपड़ों से ढ़का हुआ। पढ़ने के नाम पर कुछ खास नहीं। पर जब स्कूल में वजीफा मिलता तब वह खुश जरूर होती थी क्योंकि बाबा के साथ जब वह स्कूल जायेगी तब उसे मीठी गोलियां और कुछ पैसे जरूर मिलेंगें।
मां-बाबा की लाडली थी कमली। गरीबी का बोझ तो था ही । जिंदगी की रोटी भी बड़ी मुश्किल से चलती थी। ऐसे में एक बेटी का बोझ । पहाड़ सा बुजुर्ग मां-बाप के लिए।मन में यही व्याकुलता रहती कि कमली का ब्याह अपने जीते जी कर दें ।और बेटी अपने घर जा सके। कहीं कोई अपनी जाति का लड़का मिल जाता तो कमली के हाथ पीले कर देते।कमली तो एकदम से नादान , भोली थी । उसे क्या पता कि एकदिन उसे अपना घर छोड़ना होगा। कुछ भी नहीं था उसके घर में पर वह खुश थी।
कमली के लिए उसके बाबा को एक अधेड़ उम्र लगभग ४५ वर्ष का लड़का मिल गया। यह उसकी दूसरी शादी थी। बगल के ही गांव का था। शादी में कमली के मां-बाब ज्यादा खर्च न कर सकते थे तो ऐसे ही वर की तलाश भी थी। दहेज के नाम पर कमली ही सब कुछ थी और कुछ चाहकर भी तो न दे सकते थे।
कमली भी अपनी शादी के बारे में सुनकर मन ही मन खुश थी। एक त्यौहार जैसा माहौल था घर पर , खाने का अच्छा प्रबंध था ,जीवन में पहली बार इतना कुछ देखा था पहली बार।कमली का उत्साह बढ़ा था नये घर जाना है कैसा होगा? क्या होता है शादी में? जहां जाना है वहां लोग कैसे होगे? आदि इच्छाएं थी कमली के मन में।शादी हो गई जल्दी जल्दी । मां-बाबा खुश थे बिटिया अपने घर चली हई। कमली आज खुश तो थी पर मां बाबा को छोड़ कर पहली बार अकेली थी। कमली आज बहुत सुन्दर लग रही है क्योंकि उसने नये कपड़े जो पहने हैं। चांदी के कुछ गहने भी कमली के शरीर पर सजे हैं। कलमी को घेरे है कई महिलाएं और बच्चे। उसका हाल चाल लेने के लिए ।
सुहागरात क्या होती है वह नही जानती पर फिर भी जो कुछ हुआ वह बलात्कार से कम नहीं था ।कमली शायद इसके लिए तैयार न थी । या बचपन ही तो था उसका। पति ने पहली ही रात कमली को पीटा। वह रो-रोकर सो गयी। सुबह हुई वह दुखी थी रात की घटना को सोचकर। पति मिला बाप की उमर का वह भी शराबी , पीता है कोई बात नहीं पर मारता क्यों है? कमली का जीवन भी गांव की सब औरतों जैसा ही था कुछ नया नहीं। पर कमली अनाथ तब हुई जब उसके मां-बाबा न रहे। वह रो रोकर बेहाल हो गई पर उसके पति ने उसे घर जाने न दिया।अब कमली का कोई नहीं रहा इस दुनिया में । पति है जानवर जैसा ।मारपीट करता रहता आये दिन। कमली कभी-कभी सोचती कि भाग जाये कहीं ? पर कहां? कोई सहारा तो न था उसका । अब जीने की आदत सी हो गई थी ऐसे ही। लड़ाई झगडे होते रहते पर जीवन अपनी रफ्तार से चला चल रहा था।
लेकिन अचानक एक दिन पति से रात में झगड़ा हुआ, फिर सब शान्त हो गया । कमली जाकर सो गई । सुबह हुई।खबर आग की तरह गांव में फैल हई कि कमली मर गयी। एक- एक लोग आते गये और भीड़ जमा हो हई। क्या हुआ? कैसे हुआ ?सवाल कई थे पर जवाब कोई नहीं? कमली तो अब चुप थी हमेशा के लिए.......

Sunday, September 7, 2008

अफसाने तेरे- गजल

बंद पलकें दीदार करती हैं हुस्न का तेरे।
खामोश लब इकरार करते हैं प्यार का तेरे।।

रास्ते चुप होकर गुजरते हैं घर से तेरे।
क्यों अब दूर नजर आते हैं अफसाने तेरे।।

वक्त ने दिल को बना दिया पत्थर तेरे।
हो जाये अभी खत्म फसाने तेरे।।

फिर लोग लगाते हैं क्यों तोहमत इश्क का तेरे।
भरी महफिल में हम भी सर झुकाये मुकर जाते हैं नाम से तेरे।।

न था मिलना हमको ए-संगदिल मेरे।
भूलकर भी कभी दिल से न जाना मेरे।।

अफसाने तेरे- गजल

बंद पलकें दीदार करती हैं हुस्न का तेरे।
खामोश लब इकरार करते हैं प्यार का तेरे।।

रास्ते चुप होकर गुजरते हैं घर से तेरे।
क्यों अब दूर नजर आते हैं अफसाने तेरे।।

वक्त ने दिल को बना दिया पत्थर तेरे।
हो जाये अभी खत्म फसाने तेरे।।

फिर लोग लगाते हैं क्यों तोहमत इश्क का तेरे।
भरी महफिल में हम भी सर झुकाये मुकर जाते हैं नाम से तेरे।।

न था मिलना हमको ए-संगदिल मेरे।
भूलकर भी कभी दिल से न जाना मेरे।।

बीवी बलवान ,शौहर परेशान।

आपको यह जानकर हैरानी हो सकती है कि घर की चारदीवारी के अंदर ६० फीसदी पत्नियां अपने पति को मानसिक व शारीरिक रूप से प्रताड़ित करती हैं।
शारीरिक रूप से पुरूष महिलाओं से ताकतवर माने गये हैं।इसके बावजूद वे पत्नी की प्रताड़ना के आगे बेबस नजर आ रहे हैं। दरअसल उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। इसके लिए पत्नियां कई तरीकों का इस्तेमाल करती हैं, पत्नियां बात का बतंगड़ बनाकर,बात-बेबात व्यंग्य करके,पति के घर वालों को ताने मारकर, किसी बात का सही -सही जवाब न देकर, दहेज जैसे आरोप लगाकर,तरह-तरह की फरमाइशें करके,। इस तरह से हर काम में कमियां निकाल के सब के सामने बेज्जत करना।ये कुछ ऐसे हथियार है जो पत्नियां अपनाती है पति के लिए।
घरेलू परेशानी के कारण पुरूषों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें आये दिन अखबार की सुर्खियां बनती है। पहले पुलिस स्टेशन पत्नियां जाती थी अब पुरूष। पत्नियों द्वारा सताये गये पुरूषों की संख्या बढ़ रही है, पुरूषों के बचाव के लिए "पत्नी पीड़ित मंच" संस्था कार्य कर रही है। इस मंच की बेबसाइट "www.patnipeeditmanch.gq.nu" है जहां पर पत्नी पीड़ित पति अपना रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं। ऐसा नहीं की शहरों में यह समस्या ज्यादा है बल्कि गांवों में इस समस्या के ज्यादा शिकार होते हैं। अब बीवी बलवान ,शौहर परेशान। कुछ बदल रहा है क्या?

Saturday, September 6, 2008

हिन्दी का भविष्यः भविष्य की हिन्दी


हिन्दी को इस वैश्वीकरण के दौर में कैसे बचाया जाय।जाहिर है ,हिन्दी बदल रही है,बदलते हुए सामाजिक परिवेश में इसके सामने कई नई चुनौतियां आई हैं।कई नये विषय आये हैं, नये शब्दों ने जन्म लिया है।ऐसी स्थिती में क्या जरूरत नहीं है कि इन शब्दों को इकट्ठा कर एक कोश बनाया जाय? जो नये शब्द आये उनका सामाजिक और ऐतिहासिक विश्लेषण भी साथ में दिया जाय ।
हिन्दी व्याकरण से मुक्त,टूटी-फूटी या सरल भाषा तभी होगी जब यह हर एक वर्ग के लिए हो।।साहित्य की भाषा वही होनी चाहिए जो आम बोलचाल की भाषा हो और आम आदमी की पहुँच की हो। बोली जो बोली जाय वही लिखी जाय। यहां तक की कविता के परंपरागत ढ़ाचे में भी बदलाव करना होगा।जापान के एक रचनाकार इशिकावा ताकुबोकु ने तान्का काविताओं को तीन लाइनों में लिखा। सरल सहज भाषा में लिखने के कारण साहित्य आम दिलों की आवाज बन जाती है।
हिन्दी साहित्य की कमी सबसे बड़ी यह है कि यहां पर पुस्तकें कम मात्रा में सुलभ है।कारण यह कि या तो वे हिन्दी में लिखी नहीं जाती या फिर उनका हिन्दी अनुवाद नहीं हो पाता है।अच्छी पुस्तकें चाहे वे किसी भी संस्कृति की हो यदि उनका हिन्दी अनुवाद हो तो इससे एक बड़ा फायदा यह है कि हम विश्व की अनेक संस्कृतियों के बारे में आदान-प्रदान कर सकेगें। और दूसरा हमारी जानकारी बढ़ेगी ।साथ ही साथ अनुवाद को एक आकर्षक व्यवसाय बनाया जा सकता है। और यह कार्य प्रकाशक कर सकतें हैं।
किसी भी विषय का अनुवाद मूल रूप से करना जरूरी है,यदि अनुवाद किसी अन्य माध्यम में किया जा रहा है तो हो सकता है कि वह प्रभावी न हो। और ऐसे अनुवाद से सांस्कृतिक छवि बनने के बजाय बिगड़ सकती है। बात सांस्कृतिक छवि की हो या मनोरंजन की, सांस्कृतिक गतिविधियां बढ़ेगी तो भाषा अपने आप बचेगी।
आज जरूरत है कि हम युवा वर्ग को अपनी संस्कृति से जोड़े वरना बाजार तो खड़ा है निगलने के लिए।

पैंतीस में भी वही दम


भारत के लिए यह साल काफी अच्छा रहा। एक तरफ ओलम्पिक में बेहतरीन प्रदर्शन कर मेडल,फिर क्रिकेट टीम का लंका में एकदिवसीय सीरीज पर कब्जा पहली बार और अब यूएस ओपेन में मिक्सड डबल्स का खिताब। भारतीय टेनिस स्टार लिएडर पेस अपने चत्मकारों के लिए मशहूर हैं।ये वो खिलाड़ी है जिस पर न उम्र का असर दिखता है, न विपक्षी की रैंकिग का। अमेरिकी ओपन में उन्होंनें जिंबाब्वे की सारा ब्लैक के साथ मिक्सड डबल्स का खिताब जीतकर फिर अपने दमखम का परिचय पेश किया।
पैंतीस की उम्र में भी उनमें वही पुरानी तेजी कायम है।सिंगल्स में कभी विश्व रैंकिग में नंबर एक रहे पीट संप्रास को हराने का करिश्मा कर चुके पेस ग्रैंड स्लैम के डबल्स वर्ग में पहले भी शानदार प्रदर्शन कर चुके हैं।पुरूष और मिक्सड डबल्स मिलाकर आठ ग्रैडस्लैम खिताब उनके खाते में दर्ज हो गये हैं।भारत को १९९६ में ओलंपिक पदक भी दिला चुके हैं।
लिएडर पेस का जन्म १७ जून १९७३ को गोवा में हुआ,कोलकाता , ओरलैंडो,फ्लोरिडा में निवास स्थान है। ५फुट साढ़े नौ इच लाम्बाकद और वजन ७७किग्रा।सिग्लस में अभी तक कैरियर ९९ मैच जीते-९८ हारेखिताबः१ उच्चतम रैंकिग-१डबल्स में पेस ने ४७३जीते,हारे- २४५कैरियर खताबः३८उच्चतम रैंकिगः१(२१ जून१९९९)
पुरूष डबल्स में चार खिताब और मिक्सड डबल्स में चार खिताब नाम किये।
लिएडर पेस को ९९९६ में राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से तथा पदम् -२००१ में सम्मानित किया गया।पेस के पिता डा० वेस पेस भारतीय हाकी टीम के सदस्य रह चुके हैं और माता जेनिफर भारत की बास्केटबाल टीम की कप्तान रह चुकी है।पेस की पत्नी रिया पिल्लई और बेटी आयना पेस।

Friday, September 5, 2008

वो बातें............

बिन कहें समझ लेना तेरा ,
हर बात को ,
हवाओं में लहराती जुल्फ
से बेवजह उलझना तेरा,
है आसमां आज भी शान्त सा,
क्या देखती हो उसमें तुम
और
न जाने ढूढती हो क्या?
नजर को झुकाये ये शर्माना
फिर
किसी एक बार पर मुस्काना ,
ये अदा भाती है मुझे
ये जानती हो।
फिर क्यों
अब वो बात आती नहीं है सामने,
मिलना तो अब मिलना हो गया ,
हम आये
और
तुम आये
दो चार पल के लिए,
क्यों देखता हूँ
अन्जान रास्तों को उम्मीद से,
जबकि पता है अब नहीं इनसे है
तेरा कोई वास्ता।

सुबह सबकी होती है


सुबह की धुंध में,
चिडियों की चहचहाहट,
सूरज की पहली किरण ,
जब ओस के बूदों पर पड़ती
तो ऐसा लगता -मानों की एकसाथ
हजारों मोती चमक रहें हो,
दूर कन्धे पर फावड़ा रखें किसान,
खेत की तरफ आता हुआ दिखता है,
ओस की बूंदों पर पड़ते उसके कदम
ढेर सारे चमकते हुए मोतियों को
धरती में समहित कर देता है,
खेत में मिट्टी के कणों के प्यार,
जगाता है,
और अपने काम में लग जाता है,
कुछ गुनगुनाता है-
शायद वह कुछ बात करता है ,
अपनी धरती मां कि तुम ही तो हो
जो मेरा जीवन चलाती हो,
शान्त वातावरण में किसान आता है,
और
दुनिया को एक अच्छी सुबह देकर
चला जाता है-
शायद यही जीवन है।

Thursday, September 4, 2008

गुरू जी राम-राम

गुरू जी का हाल चाल है।सब ठीक-ठाक है न?हां भईया यहां पर जबसे तबादला हुआ है तबसे तो मजा ही मजा है,सिवाय कुर्सी तोड़य के अऊर बच्चन से हाथ पैर मालिश के अलावा कौनों कामय नहीं है।अच्छा अब हम चलबय गुरू जी।कौनों काम होवे तब याग फरमइहं ठीक । राम- राम।ये बच्चा लोग तुम लोग का कर रहे तो चलो अब छुट्टी।ये कल्लू कल अपनी अम्मा से आम वाला अचार जरूर मांग के लावा ।कहना की मास्टर साहेब मंगाये हैं ठीक है।अब जाओं सब ।ये दशा है प्रथमिक विद्यालय की।सभी गुरू जी को गुरू दिवश का बधाई।

आखिर कब तक सोओगे तुम????

ये जश्न कैसा ,
ये उल्लास कैसा,
ये आवाज कैसी,
ये दर्द कैसा,
अरे ....
यह क्या?
यह तो किसी के रोने की आवाज है,
अरे भई देखों तो
कौन है ?
क्यों क्या हुआ?
डर गये खुद को ही देखकर न।
यह हर्ष
यह उल्लास
और
यह दर्द
यह दुख
तुम्हारा अपना ही है।
क्यों नकाब हटता नहीं है अभी भी तुम्हारा?
खुद से कब तक दूर भागो गे,
यूँ ही,
पहचानों ,भूलो नहीं कि तुम भी,
इनमें से ही एक हो,
एक दिन तुम भी,
ऐसे हो जाओगे,
ये स्वार्थ,
ये सोहरत,
ये पैसे,
और
ये लालच यही
रह जायेगी,
इसलिए
ये सोये हुए इंसान जाग जाओ
अब
आखिर कब से तो सो रहे हो,
जगाओ अपनी आत्मा,
और
पैदा करों इंसानियत को,
जो न जाने कहाँ गुम गई है,
इस जहान में।।

नयी मीडिया और हमारा भारत....


मीडिया से अपेक्षा यही की जाती है कि वह आम लोगों कि समस्या को उठाये और जनहित के लिए कार्य करे।वक्त के साथ बदलाव की लहर का प्रभाव मीडिया के नये-नये क्षेत्रों पर भी दिखायी पड़ता है। प्रश्न यह है कि नयी मीडिया का हमारे विकास के दौर में आज क्या योगदान है? और आज की मीडिया इसका किस तरह से निर्वहन कर रही है? और हम मीडिया से विकास की दौड़ में क्या उम्मीद कर सकते हैं?
भारत का विकास आमतौर पर उच्च वर्ग का ही विकास माना जाता है।और जबकि हमारा प्यारा भारत गांव में बसता है,जहां पर आधुनिक सुख सुविधाएं अभी भी लगभग न के ही बराबर है। हां ये बात अवश्य ही है कि जहां पहले कोई खबर लोगों तक देर में जाती थी वह आज तीव्र गति से पहुँच रही है । पर पुरानी कहावत हाय रे वही पुराने "ढाक के तीन पात"।समय बदल रहा है पर लोग वहीं के वही नजर आते हैं ।सेमिनार ,मीडिया गोष्ठी पर यदि विश्वास करें तो आकड़े सुधरे हैं पर आकड़े सारी सच्चाई को बयां नही करते हैं। मीडिया का कोई माध्यम हो तो वह बैगर पैसों के नहीं पाया जा सकता है यदि पैसा नहीं तो खबर कैसी? जिसे खाने के लिए अभी भी जीतोड़ मेहनत करनी पड़ती है वह भला क्यों अपने पैसे यहां पर लगाना चाहेगा? और बात भी सही है कि पहले जीवन फिर और कुछ। क्यों कि सब कुछ तभी अच्छा लगता है जब पेट में दाने हों।
मीडिया की रफ्तार बहुत तीव्र हुई है कोई खबर हम कुछ ही पल में जान लेते हैं यदि सम्पूर्ण साधन शुलभ हो तब।सरकार का रवैया एकदम व्यवसायिक हो गया है एक तरह से धनलोलुकतापूर्ण।जबकि विश्व के कुछ देश ऐसे है जो सूचना के प्रसार के लिए बहुत अधिक मात्रा में धन खर्च करते हैं और वहां पर खबर आम जनता तक मुफ्त में दी जाती। ऐसा इसलिए कि जागरूकता बनी रहें ,देश और दुनिया से जुड़ाव बना रहे।
विकास क्रम में आज मीडिया ने भारत को एक अहम आयाम तक जरूर पहुँचाया है और सूचना के नये-नये आविष्कार आने वाले दिनों में इसे और भी तीव्र गति देगें।भारत का परचम विश्व पटल पर सुनहरे अक्षरों में अंकित होगा। ऐसी उम्मीद कर सकते हैं।

Wednesday, September 3, 2008

देखता हूँ उसको ....भाग-१

आते जाते वह हर रोज दिखता था
उसी जगह पर,
जहाँ मैं उसे प्रतिदिन देखा करता था,
सफेद बाल,
झुर्रीदार चमड़ी,
मुर्झाई आखें,
टकटकी बांधे रास्ते पर
आते जाते लोगों को निहारती,
जीवन से कुछ खास उम्मीद नजर नहीं आती थी
उसको देखकर,
कोइ आगे पीछे कभी नजर नही आया,
कई बार सोचा कि जाकर बात करू उससे
पर कभी जा न सका पास उसके।
मन ही मन सोचता और देखता हूँ
उसको।

क्या करते हैं हम भारतीय ? सही या गलत


धर्म और आस्था का प्रतीक ये मंदिर और इनमें विश्वास रखने वाले लोग। अपना-अपना विश्वास और अपनी आस्था । पर मेरा इसमें बिल्कुल भी यकीन नहीं । मुझे अभी तक जो कुछ दिखायी दिया और जो मैंने देखा वह बहुत ही भ्रष्ट और दुखद रहा। भगवान है या नहीं यह तर्क का विषय हो सकता पर किसी के विश्वास को बदल पाना आसान नहीं । क्यों बहुत से ऐसे सवाल हैं जिसका की उत्तर न मेरे पास है, और न ही जो भगवान को मानते है पर यह एक अलग विषय है।
मेरा तो आज का विषय है मंदिर के आड़ में जो गोरखधंधे होते हैं उनकी चर्चा। मंदिर का अपना एक संगठन होता है और इसमें भी उच्च पद पर बने रहने के लिए बहुत कुछ करना होता है।(कई तरह के गलत कार्य) ये सब कुछ हमारी पीठ पीछे होता है जिससे हम शायद अन्जान ही रह जाते हैं। पर जाने दीजिये वैसे मेरा यहां पर ये सब कुछ लिखने के पीछे जो बात है वह यह कि हम जो कुछ अभी तक करते है वह कितना सही और कितना गलत? मैं यह भी नहीं कह रहा हि आप लोग गलत है(जो भगवान में विश्वास रखते हैं)। हमको आपको ये जरूरत क्यों होती है कि मंदिर जाये ? इसका जवाब मुझे यही लगता है कि हमें बचपन से ही सिखाया गया है कि हमें भगवान को मानना है जरा आप खुद कल्पना करें? कि आप को एक ऐसा वातावरण मिलता जहां ये सब बात न होती तो क्या आज आप भगवान को माथा टेकते तो जवाब होगा नहीं।हमारे गलत काम और उसके लिए कुछ कम सजा मिले शायद प्रायश्चित जैसा कुछ।
ईश्वर पर बहुत कुछ पहले भी कहा जा चुका है और कहा जाता रहेगा पर बात मुझे एक ही समझ आती है कि खुद अच्छे हो तो कहीं जाने की जरूरत नही । जो भी समय आप हम मंदिर या भक्ति में खर्च करते है उसे मानव के उत्थान में लगाया जाना चाहिए।
वैसे भी "गीता" की एक ही लाइन न जाने कितनी बार मेरे कान से गुजर चुकी है"कि कर्म ही पूजा है" पर हमने इसे थोड़ा सा परिवर्तित कर दिया और यह हो गया कि"पूजा ही कर्म है" ।

Tuesday, September 2, 2008

दास्तान-ए-मुहब्बत

उम्मीद और विश्वास के सहारे,
कदम खुद-ब-खुद बढ़ गये,
तलाश थी जिनकी मजि‌ल पर,
वे किनारे ही मिल गये।
वक्त ने सब कुछ सिखाया
और
उन्होनें बातों से ही रूलाया
बेवफाई का नाम दूँ
या
मुकद्दर इसे कहूँ,
जिस बात पर गुरूर था हमें ,
वे उससे ही मुकर गये,
ये प्यार था
या
धोखा था मेरा,
जो हम भीड़ में उनको ,
अपना समझ बैठे,
इंसान ही तो था मैं
और की ही तरह
धोखे को उनके इजहार समझ बैठे,
बदनाम जो करूँ उनको तो
खुद का भी डर
बस याद न आये वो पल मुझे,
और
न कभी कोई उनकी खबर हो,
जीना तो जीना है
चाहे मर-मर के जियो
या
जी-जी कर मरो।।