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Saturday, September 13, 2008

............आखिर इस दर्द की दवा क्या है?


"जिंदगी बीत जाती है एक घर बनाने में,
तु्म्हें शर्म नहीं आती है बस्तियाँ जलाने में"।
२० मरे ,१५० से ज्यादा घायल । शनिवार की शाम आम जिंदगीं के लिए एक ऐसी हवा ले आयी जिससे सब तबाह हो गया मिनटों में ।जिसका डर वही हुआ ।किसे दोष दें , कुछ ने जान गंवाई तो कुछ अपना सब कुछ। दिल्ली का धमाका आम आदमी की नींद को उड़ा कर रख दिया। पीठ-पीछे वार करके अपनी बिल में घुस कर खुद को शेर समझने वाले ये भेड़िये । कभी सामने से तो आकर देखों क्या होता है तुम्हारा । आखिर आये दिन होने वाले ये धमाके कहां पर जाकर रूकेगें ।इसका क्या अन्त होगा कभी। कई सवाल है हमारे पर जवाब केवल है वेबसी।
कुछ आवाज आयी,हलचल हुई। अफरा-तफरी या भंगदड हुई। हम वहीं के वहीं ।आखें ढूढती थी अपनों को । दिल्ली का दिल जला ।इंसान का कोई मोल नहीं ,मांस को लोथडे इधर-उधर बिखरे हुए।आखिर मजबूर इंसान कर भी क्या कर सकता है। कैसे ,क्या करे कि इन दहशतगर्दों के सोयी हुई आत्मा को जगाने के लिए।
आखिर हिंसा से कभी कुछ पाया जा सका है।ऐसे में दिल्ली के लोग साहस से काम लें ।और इस काली करतूत को भूलने की कोशिश करें। जीवन की नयी डगर पर चलें कदम से कदम मिलाकर।आखें नम है , अब तो कभी न आयेंगे जो चले गये हमें छोड़कर। इनका दर्द कोई सुने कैसे?

2 comments:

राज भाटिय़ा said...

इस दर्द का इलाज लाईलाज हे, क्योकि हमारे नेता चाहते ही नही, हमारी सरकार इन की रक्षा मे लगी हे, इन की फ़िक्र मे लगी हे, हम यु ही मरते रहे गे,जब तक हम जाग नही जाते , अपनी वोट का इस्तेमाल ही इस दर्द का इलाज हे सभी वोट डाले ओर इस सरकार को पता चले की हमारी वोटो की भी कीमत हे वरना .....
धन्यवाद सुन्दर लेख के लिये

अविनाश वाचस्पति said...

दर्द है ये ऐसा
दवा न बना पाए
कोई इस जहां में
चाहे कितना बहाये पैसा
इस दर्द की दवा कोई नहीं
कोई कंपनी यहां क्‍या
वहां भी नहीं जो बना पाए दवा।