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Friday, November 27, 2009

हवा के झोंके में तुम्हारी याद ...........................कविता

हवा के झोंके ने
बंद पन्नों को बिखेरा है ,
आज फिर से ,
जिसमें तुम्हारी चंद यादें फिसल गयी,
फर्श पर
आंखों के मोती बनकर ।
मैंने रोकना चाहा
खुद को
पर
नाकाम ही रहा ,
तुम्हारी तस्वीर पर पड़े
आंसू ने
महसूस करना चाहा था
तुम्हारे स्पर्श को ,
तुम्हारी खुश्बू को ,
जो तुम ही दिये हैं मुझे
उम्र भर के के लिए ,
सर्द हवा ने याद दिलाया है ,
तुम्हारी गर्म सासों को,
तुम्हारे नर्म एहसासों को ,
मैं भूलकर भी
तुमको याद करता हूँ
ऐसे ही कभी -कभी
सुबहों में , शामों में

Thursday, November 26, 2009

" महिलाएं ही महिलाओं की सबसे बड़ी दुश्मन हैं "..........मीडिया चर्चा


भारतीय समाज की परिकल्पना स्त्री के बिना संभव ही नहीं लगती परन्तु ऐसे में हमारा समाज पितृसत्तामक ही रहा है या कह लीजिये कि स्त्री को जो अधिकार , स्थान और सम्मान मिलना चाहिए था वह आज भी उससे वंचित रही है तो गलत न होगा । समाजिक ढ़ाचे को संतुलित करने के लिए महिलाएं अहम भागीदारी निभाती है । यह हम विभिन्न रूपों में देखते हैं । समाज के वर्तमान परिदृश्य में महिलाओं की दशा में कुछ सुधार हुआ है जिसे हम कुछ हद तक प्रगतिवादी कदम कह सकते हैं । लेकिन अभी भी शहरों से हम गांवों का रूख करें तो स्थिति अधिक दयनीय ही नजर आती है । समाज में महिलाओं को प्रताड़ित करना , दहेज के लिए जला देना , बलात्कार , हिंसा , मानसिक उत्पीड़न आदि का शिकार होना पड़ता है । ऐसे में प्रगतिशील महिलाओं की मानें तो इन सब घटनाओं के लिए पुरूष को ही दोषी करार दिया जाता है । हमारा परिवार तभी पूर्ण होता है जब तक कि उसमें एक स्त्री का वास हो । तो ऐसे में कई सवाल का उठना स्वाभाविक है ।


ज्यादातर घरों की बात की जाय तो सास बहू के झगड़े आम बात है । क्या महिला दूसरी महिला को समझने में कहीं गलती करती है या फिर वह वही कुछ करना चाहती है जो उसके ऊपर बीता है ? दूसरा सवाल कि दहेज जैसी कुप्रथा समाज में बुरी तरह से व्याप्त है और बहुओं को जलाने की घटनाएं आये दिन हम सभी मीडिया के माध्यम से सुनते और पढ़ते हैं तो क्या दहेज और बहुओं को जलाये जाने के पीछे महिलाओं के हाथ होने से इन्कार किया जा सकता है ? तीसरी सबसे दुखद बात कि जब मां खुद ही अपनी नाबालिंग बच्ची को जल्द ही ब्याह देती है अर्थात मौत के मुंह में ढ़केल देती है ( जब स्त्री को पता होता कि किस उम्र में लड़कियों शादी करनी चाहिए ) । कई खबरें ऐसी भी आती हैं जब सास अपनी बहुओं की पिटाई पर खुश होती हैं पर वह यह भूल जाती हैं कि अगर ऐसी बात उनकी लड़की के साथ हो तो उनका रवैया कैसा रहेगा ? हमारा समाज आज भी लड़की को किसी भी रूप से लड़के के बराबरी का दर्जा नहीं दे पाया है यहां भी महिलाएं अहम निभाती है । कहीं न कहीं पुत्र प्राप्ति को अहम मानती है जिसके लिए दो तीन ब्याह भी करना पड़े तो भी फर्क नहीं पड़ता ।


कहीं न कहीं आज भी महिलाएं अपनी संकुचित विचार धारा से नहीं निकल पायी हैं अगर यह कहा जाय तो गलत न होगा कि " महिलाएं ही महिलाओं की सबसे बड़ी दुश्मन हैं " । हां यह बात कुछ प्रगतिवादी महिलाएं शायद मानने तो कतई न तैयार हों पर मुझे यह कहने में जरा भी गुरेज कि सच यही है । संकुचित विचार धारा आज भी हावी नजर आती है स्त्रीओं पर । अतएव पुरूष तो दोषी अवश्य है ऐसी बुराईओं के प्रति परन्तु स्त्री भी कहीं कम नहीं । इसलिए किसी एक पर उगली उठाना कितना जायज होगा । जैसा कि प्रगतिशील महिलाएं पुरूषों को ही पूर्णतः आरोपित करती है । जो खुद को प्रगतिशील मानती है उनसे मेरा सवाल है कि उपर्युक्त सामाजिक बुराईयों के लिए क्या महिलाएं अपनी भागदारी नहीं देती । अपनी राय बेबाकी से कहिये स्वागत है ।?

Monday, November 23, 2009

रिश्ते बंद है आज चंद कागज के टुकड़ो में

रिश्ते बंद है आज

चंद कागज के टुकड़ो में,

जिसको सहेज रखा है मैंने

अपनी डायरी में,

कभी-कभी खोलकर

देखता हूँ उनपर लिखे हर्फों को

जिस पर बिखरा है

प्यार का रंग,

वे आज भी उतने ही ताजे है

जितना तुमसे बिछड़ने से पहले,

लोग कहते हैं कि बदलता है सबकुछ

समय के साथ,

पर

ये मेरे दोस्त

जब भी देखता हूँ

गुजरे वक्त को,

पढ़ता हूँ उन शब्दो को

जो लिखे थे तुमने,

गूजंती है तुम्हारी

आवाज कानो में वैसे ही,

सुनता हूँ तुम्हारी हंसी को

ऐसे मे दूर होती है कमी तुम्हारी,

मजबूत होती है

रिश्तो की डोर

इन्ही चंद पन्नो से,

जो सहेजे है मैंने

न जाने कब से।।

Thursday, November 19, 2009

हिन्दू एकता सिद्धांत

यहाँ पर यह स्पष्ट करना भी जरूरी है कि संसार में हिन्दू धर्म ही एकमात्र ऐसी जीवन पद्धति है जिसे किसी संप्रदाय विशेष के साथ नहीं जोड़ा जा सकता,जिसमें कभी किसी संप्रदाय विशेष को अपना शत्रु घोषित नहीं किया गया,इन्सान तो इन्सान पेड़ पौधों जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों सब में भगवान के रूप को देखा गया, उनकी पूजा की गई । आज तक एक भी लड़ाई किसी पूजा पद्धति के विरोध या समर्थन में नहीं लड़ी गई । हिन्दू धर्म में किसी क्षेत्र विशेष या संप्रदाय विशेष की बात न कर सारे संसार को परिवार मानकर उसकी भलाई की बात की गई । हिन्दूधर्म के प्रचार प्रसार के लिए आज तक किसी देश या संप्रदाय विशेष पर हमला नहीं किया गया। हिन्दू जीवन पद्धति ही दुनिया में सर्वश्रेष्ठ जीवन पद्धति है। लेकिन जिसने भी मानवता के प्रतीक इस हिन्दू संस्कृति व उसे मानने वाले हिन्दुओं पर हमला किया है । इतिहास इस बात का गवाह है कि ऐसे राक्षस को पाप का घड़ा भर जाने पर अपने किए की सजा भुगतनी पड़ी है। हमारे विचार में राक्षसों के इस सैकुलर गिरोह के पापों का घड़ा भी लगभग भर चुका है। साधु-सन्तों का अपमान व भगवान राम के अस्तित्व को नकारना इस बात के पक्के प्रमाण हैं। हमने सुना था कि जब किसी राक्षस का अन्त नजदीक होता है तो उसके द्वारा किए जाने वाले पाप व अत्याचार बढ़ जाते हैं जो हमने पिछले कुछ वर्षों में देख भी लिया ।

अब सिर्फ इस धर्मनिर्पेक्षता रूपी राक्षस का अन्त देखना बाकी है इस राक्षस के खात्में के लिए कर्नल श्रीकांत पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर,सुधाकर चतुर्वेदी जी, राम जी जैसे करोड़ों प्रशिक्षित गण हमले का जबाब देकर इन आतंकवादियों व इनके समर्थक सैकुलरिस्टों का संहार करने के लिए तैयार बैठे हैं बस इंतजार है तो सेनापति के इशारे का जिस दिन ये इशारा मिल गया उसी दिन ये सब राक्षस अपनी सही जगह पर पहुँच जाँयेगे ! हम यहां पर यह सपष्ट कर देना चाहते हैं कि धर्म विहीन प्राणी मानव नहीं दानव होता है। अतः धरमनिर्पेक्षता मानव के लिए अभिशाप है क्योंकि यह मानव को दानव वना देती है। जिसका सीधा सा उदाहरण इस सेकुलर गिरोह द्वारा किए गए क्रियाकलाप हैं। इसी धर्मनिर्पेक्षता की वजह से सेकुलर गिरोह मानव जीवन के शत्रु आतंकवादियों का तो समर्थन करता है पर मर्यादापुर्षोत्तम भगवान श्री राम का विरोध ।

हम बात कर रहे थे हिन्दू धर्म की, बीच में धर्म और अधर्म के बीच होने वाले निर्णायक युद्ध के लिए बन रही भूमिका का स्वतः ही स्मरण हो आया । जो लोग हिन्दुओं को लड़वाने के लिए यह मिथ्या प्रचार करते हैं कि हिन्दू धर्म में प्राचीन समय से छुआछूत है । उनकी जानकारी के लिए हम ये प्रमाण सहित स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि बेशक हिन्दू धर्म में वर्ण व्यवस्था शुरू से रही है जो कि किसी भी समाज को व्यवस्थित ढ़ंग से चलाने के लिए जरूरी होती है पर छुआछूत 1000 वर्ष के गुलामी के काल की देन है। खासकर मुसलिम के गुलामी काल की। वर्णव्यवस्था की उत्पति के लिए दो विचार स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आते हैं------------ एक विचार यह है कि सभी वर्ण शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण भगवान के अंगो से बने । पैर से शूद्र, जंघा से वैश्य, भुजाओं से क्षत्रिय व सिर से ब्राह्मण।

अब आप सोचो कि भगवान का कौन सा अंग अछूत हो सकता है सिर ,पैर, जंघा या भुजांयें । कोई नहीं क्योंकि जिसे हम भगवान मानते हैं उसका हर अंग हमारे लिए भगवान ही है । वैसे भी हम बड़ों व साधु संतों के पैर ही पूजते हैं। अतः किसी भी हिन्दू, वर्ण, जाति को अछूत कहना भगवान को अछूत कहने के समान है और जो यह सब जानते हुए भगवान का अपमान करता है वह नरक का भागीदार बनता है। अतः यह हम सब हिन्दुओं का कर्तव्य बनता है कि हम सब हिन्दुओं तक ये सन्देश पहुँचांए और उसे नरक का भागीदार बनने से रोकें। दूसरा विचार यह है कि मनु जी के चार सन्तानें हुईं । जब बच्चे बड़े होने लगे तो मनु जी के मन में यह विचार आया कि सब कामों पर एक ही ताकतवर बच्चा कब्जा न कर ले इसलिए उन्होंने अपने चारों बच्चों को काम बांट दिए ।सबसे बड़े को सबको शिक्षा का जिसे ब्राह्मण कहा गया। उससे छोटे को सबकी रक्षा का जिसे क्षत्रिय कहा गया। तीसरे को खेतीबाड़ी कर सबके लिए भोजन पैदा करने का जिसे वैश्य कहा गया। चौथे को सबकी सेवा करने का जिसे शूद्र कहा गया ।
अब आप ही फैसला करो कि जब चारों भाईयों का पिता एक, चारों का खून एक, फिर कौन शुद्ध और कौन अशुद्ध ,कौन छूत कौन अछूत ? यह एक परम सत्य है कि संसार में कोई भी काम छोटा या बडा , शुद्ध या अशुद्ध नहीं होता । फिर भी हम सेवा के काम पर चर्चा करते हैं और सेवा में भी उस काम की जिसे साफ-सफाई कहा जाता है जिसमें शौच उठाना भी जोड़ा जा सकता है ।(हालांकि भारत मे शौच घर से दूर खुली जगह पर किया जाता था इसलिए उठाने की प्रथा नहीं थी ये भी गुलामी काल की देन है ) आगे जो बात हम लिखने जा रहे हैं हो सकता है माडर्न लोगों को यह समझ न आए । अब जरा एक हिन्दू घर की ओर ध्यान दो और सोचो कि घर में सेवा का काम कौन करता है आपको ध्यान आया की नहीं ? हाँ बिल्कुल ठीक समझे आप हर घर में साफ-सफाई का काम माँ ही करती है और बच्चे का मल कौन उठाता है ? हाँ बिल्कुल ठीक समझे आप हर घर में माँ ही मल उठाती है । मल ही क्यों गोबर भी उठाती है और रोटी कौन बनाता है वो भी माँ ही बनाती है । उस मल उठाने वाली माँ के हाथों बनाई रोटी को खाता कौन है। हम सभी खाते हैं क्यों खाते हैं वो तो गंदी है-अछूत है ? क्या हुआ बुरा लगा न कि जो हमें जन्म देती है पाल पोस कर बढ़ा करती है भला वो शौच उठाने से गन्दी कैसे हो सकती है ? जिस तरह माँ साफ-सफाई करने से या शौच उठाने से गंदी या अछूत नहीं हो जाती पवित्र ही रहती है। ठीक इसी तरह मैला ढोने से या साफ-सफाई करने से कोई हिन्दू अपवित्र नहीं हो जाता । अगर ये सब कर मां अछूत हो जाती है तो उसके बच्चे भी अछूत ही पैदा होंगे फिर तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र सभी अछूत हैं और जब सभी अछूत हैं तो भी तो सभी भाई हैं भाईयों के बीच छुआछूत कैसी ? कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि कोई हिन्दू न छोटा है न बढ़ा सब हिन्दू एक समान हैं कोई अछूत नहीं इसीलिए कहा गया है कि-

न हिन्दू पतितो भवेत

कोई हिन्दू पतित नहीं होता और जो हिन्दू दूसरे हिन्दू को पतित प्रचारित करता है वो हिन्दुओं का हितैषी नहीं विरोधी है और जो हिन्दुओं का विरोधी है वो हिन्दू कैसा ? हमें उन बेसमझों पर बढ़ा तरस आता है जो गाय हत्या व हिन्दुओं के कत्ल के दोषियों (जो न हमारे देश के न खून के न हमारी सभ्यता और संस्कृति के) को अपना भाई बताते हैं और उन को जिनका देश अपना, संस्कृति अपनी और तो और जिनका खून भी अपना, को अछूत मानकर पाप के भागीदार बनते हैं ।

उनकी जानकारी के लिए हम बता दें कि हिन्दुओं के कातिलों आक्रमणकारी मुसलमानों व ईसाईयों को भाई कहना व अपने खून के भाईयों को अछूत अपने आप में ही इस बात का सबसे बढ़ा प्रमाण है कि ये छुआछूत इन मुसलमानों व ईसाईयों की गुलामी का ही परिणाम है क्योंकि अगर हिन्दूसमाज इस तरह के भेदभाव का समर्थक होता तो सबसे ज्यादा छुआछूत इन कातिलों से होती न कि अपने ही खून के भाईयों से । इस गुलामी के काल में जिस तरह हर वर्ण के कुछ जयचन्द, जैसे सैकुलर स्वार्थी हिन्दुओं ने इन साम्राज्यवादी ,अग्निबेश जैसे हिन्दुओं ने मातृभूमि व हिन्दुओं के विरूद्ध काम करते हुए समाज के अन्दर इन दुष्टों के दबाव या लालच में आकर अनेक भ्राँतियां फैलाई छुआछूत भी उन्हीं में से एक है। पर इस हिन्दुविरोधी देशद्रोही जिहाद व धर्मांतरण समर्थक गिरोह ने हिन्दुओं को आपस में लड़वाने के लिए इतना जहर फैलाया है कि एक पोस्टर पर बाबा भीमराव अम्बेडकर जी का नाम न छापने पर आज एक हिन्दू दूसरे हिन्दू पर इतना तगड़ा प्रहार करता है कि एक दूसरे के खून के प्यासे सगे भाईयों को देखकर रूह काँप उठती है । ये लोग यह भूल जाते हैं कि बाबा जी सब हिन्दुओं के हैं किसी एक वर्ग के नहीं । ये वही बाबा भीमराव अम्बेडकर जी हैं जिन्होंने अंग्रेज ईसाईयों के हिन्दुओं को दोफाड़ करने के सब षड्यन्त्रों को असफल कर दिया था।

हम जानते हैं कि धर्मांतरण के दलालों द्वारा लगाई गई आग को सिर्फ एक दो प्रमाणों से नहीं बुझाया जा सकता क्योंकि इस हिन्दुविरोधी गिरोह का मकसद सारे हिन्दू समाज को इस आग में झुलसाकर राख कर देना है । यही तो इस देशद्रोही गिरोह की योजना है कि हिन्दुओं के मतभेदों को इतना उछालो कि उनमें एक दूसरे के प्रति वैमनस्य का भाव इतना तीव्र हो कि वो राष्ट्रहित हिन्दूहित में भी एक साथ न आ सकें । यह हम सब हिन्दुओं शूद्र, क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य का आज पहला कर्तव्य होना चाहिए कि गुलामी काल से पहले के हिन्दू एकता के प्रमाणों को संजोकर व वर्तमान में हिन्दूएकता के प्रमाणों को उजागर कर इस हिन्दुविरोधी षड़यन्त्र को असफल करें। जिहादियों व धर्मांतरण के दलालों द्वारा हिन्दुओं पर थोपे गये इस युद्ध को निर्णायक युद्ध की तरह लड़कर अपनी ऋषियों-मुनियों मानव सभ्यता की भूमि भारत को इन पापियों से मुक्त करवाकर राम राज्य की स्थापना करें । अपने हिन्दूराष्ट्र भारत को विकास के पथ पर आगे बढ़ाकर गरीब से गरीब हिन्दू तक विकास का लाभ पहुँचायें व उसे शांति व निर्भीकता से जीने का अवसर प्रदान करें जो इन असुरों के रहते सम्भव नहीं। वैसे भी किसी ने क्या खूब कहा है- मरना भला है उनका जो अपने लिए जिए। जीते हैं मर कर भी वो जो शहीद हो गए कौंम के लिए।। जिस छुआछूत की बात आज कुछ बेसमझ करते हैं उसके अनुसार ब्राह्मण सबसे शुद्ध , क्षत्रिय थोड़ा कम, वैश्य उससे कम, शूद्र सबसे कम।चलो थोड़ी देर के लिए यह मान लेते हैं कि यह व्यवस्था आदि काल से प्रचलित है। तो क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मण से अशुद्ध है तो फिर ब्राह्मण क्षत्रिय की पूजा नहीं कर सकते हैं पर सच्चाई इसके विपरीत है मर्यादा पुर्षोतम भगवान श्री राम क्षत्रिय हैं पर सारे ब्राह्मण अन्य वर्णों की तरह ही उन्हें भगवान मानते हैं उनकी पूजा करते हैं। भगवान श्री कृष्ण ब्राह्मण थे क्या ? जो सारे हिन्दू उनकी पूजा करते हैं। सब हिन्दू उनको भगवान मानते हैं उनकी पूजा करते हैं। ये सत्य है पर वो ब्राह्मण नहीं वैश्य वर्ण से सबन्ध रखते हैं फिर तो ब्राह्मण और क्षत्रिय उनसे शुद्ध हैं उनकी पूजा कैसे कर करते हैं ? ब्राह्मण और क्षत्रिय उनकी पूजा करते हैं ये सत्य है इसे देखा जा सकता है। अतः इस सारी चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वर्ण व्यवस्था एक सच्चाई है पर ये शुद्ध अशुद्ध वाली अवधारणा गलत है और आदिकाल से प्रचलित नहीं है ये गुलामी काल की देन है।अगर ये आदिकाल से प्रचलित होती तो मर्यादा पुर्षोतम भगवान श्री राम भीलनी को माँ कहकर न पुकारते न ही उनके जूठे बेर खाते । अतः जो भी हिन्दू इस शुद्ध-अशुद्ध की अवधारणा में विश्वास करता है वो अज्ञानी है बेसमझ है उसे सही ज्ञान देकर हिन्दू-एकता के इस सिद्धान्त को मानने के लिए प्रेरित करना हम सब जागरूक हिन्दुओं का ध्येय होना चाहिए और जो इस ध्येय से सहमत नहीं उसे राष्ट्रवादी होने का दावा नहीं करना चाहिए।

अब जरा वर्तमान में अपने समाज में प्रचलित कार्यक्रमों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं । इस हिन्दुविरोधी देशद्रोही जिहाद व धर्मांतरण समर्थक गिरोह के इतने तीव्र दुष्प्रचार व विभाजनकारी षड्यन्त्रों के बावजूद आज भी जब किसी हिन्दू के घर में शादी होती है तो सब वर्ण उसे मिलजुलकर पूरा करते हैं। आज भी ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य, शूद्र में से किसी के भी घर में शादी यज्ञ या अन्य कार्यक्रमों के दौरान भोजन जिस बर्तन में रखा जाता है या जिस बर्तन में भोजन किया जाता है उसे उस हिन्दू भाई द्वारा बनाया जाता है जिसे इस शुद्ध-अशुद्ध की अवधारणा के अनुसार कुछ शूद्र भी अशुद्ध मानते हैं। यहां तक कि अधिकतर घरों में आज भी रोटियां उसी के बनाए बर्तन में रखी जाती हैं दूल्हे की सबसे बड़ी पहचान मुकुट(सेहरा) तक शूद्र हिन्दू भाई द्वारा ही बान्धा जाता है और तो और बारात में सबसे आगे भी शूद्र ही चलते हैं यहां तक कि किसी बच्चे के दांत उल्टे आने पर शूद्र को ही विधिवत भाई बनाया जाता है । अगर शूद्र को आदिकाल से ही अछूत माना जाता होता वो भी इतना अछूत कि उसकी परछांयी तक पड़ना अशुभ माना जाता होता तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, सब शूद्र के बनाए बर्तन में न खाना खाते ,न शूद्र द्वारा मुकुट बांधा जाता,न बारात में शूद्र को सबसे आगे चलाया जाता और न ही शादियों में हिन्दू समाज का ये मिलाजुला स्बरूप दिखता जो इस शुद्ध-अशुद्ध की अवधारणा को पूरी तरह गलत सिद्ध करता है ,हां वर्तमान में जो हिन्दूएकता के सिद्धांत के विपरीत एक ही वर्ण में या विभिन्न वर्णों के बीच कुछ कुरीतियां दिखती हैं । उन्हें हिन्दूसमाज को यथाशीघ्र बिना कोई वक्त गवाए दूर करना है और हिन्दूएकता के इस सिद्धांत को हर घर हर जन तक पहुँचाना है। दिखाबे के लिए नहीं दिल से- मन से क्योंकि किसी भी हिन्दू को अशुद्ध कहना न केवल हिन्दुत्व की आत्मा के विरूद्ध है बल्कि भगवान का भी अपमान है ।

काम बहुत आसान है अगर दिल से समझा जाए तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को सुपिरियोरिटी कम्पलैक्स(बड़प्पन) व शूद्र को इनफिरियोरिटी कम्पलैक्स(हीन भावना) का भाव दूर कर अपनी उत्पति को ध्यान में रख कर अपनी असलिएत को पहचाहना होगा याद रखना होगा कि हमारा खून एक है । जिस तरह हमारी मां सेवा का काम कर अछूत नहीं हो सकती ठीक इसी तरह कोई शूद्र भाई भी अछूत नहीं हो सकता। हम सब हिन्दू एक हैं भाई-भाई हैं। एक-दूसरे का अपमान भगवान का अपमान है। अब वक्त आ गया है कि सब हिन्दू इस हिन्दुविरोधी-देशद्रोही जिहाद व धर्मांतरण समर्थक सैकुलर गिरोह के भ्रामक दुष्प्रचार का शिकार होकर इन हिन्दूविरोधियों के हाथों तिल-तिल कर मरने के बजाए एकजुट होकर जंगे मैदान में कूदकर अपने आपको हिन्दूराष्ट्र भारत की रक्षा के लिए समर्पित कर दें । वरना वो दिन दूर नहीं जब हिन्दू अफगानिस्तान, बांगलादेश, पाकिस्तान की तरह वर्तमान हिन्दूराष्ट्र भारत से भी बेदखल कर दिए जांए जैसे कश्मीर घाटी से कर दिए गये और मरने व दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर होंगे।

प्रस्तुति - मिथिलेश दुबे

आभार http://samrastamunch.spaces.live.com

Wednesday, November 18, 2009

गजल ( क्या भूला क्या याद रहा )

इस मंजिल के रस्ते में, क्या-क्या छूटा कुछ याद नहीं।
ये भी नहीं लगता कि कोई मंजिल इसके बाद नहीं।।

रूह थकी सी लगती है, ऐ यारो अब तो जिस्म के साथ,
दो पल चैन से कब सोया था यह भी ठीक से याद नहीं।।

माँ ने प्यार से समझाया था, क्या करना, क्या न करना,
क्या भूला क्या याद रखा, कुछ याद नहीं अब याद नहीं।।

मैंने कितनी मंजिलें बदली, रस्ते बदले, साथी भी,
क्या जो बना हूँ, वही बनना था कन्फ्यूजन है, याद नहीं।

Tuesday, November 17, 2009

एक हिन्दू क्या है जानते हो ?????

'हिन्दू' शब्द मानवता का मर्म सँजोया है। अनगिनत मानवीय भावनाएँ इसमे पिरोयी है। सदियों तक उदारता एवं सहिष्णुता का पर्याय बने रहे इस शब्द को कतिपय अविचारी लोगों नें विवादित कर रखा है। इस शब्द की अभिव्यक्ति 'आर्य' शब्द से होती है। आर्य यानि कि मानवीय श्रेष्ठता का अटल मानदण्ड। या यूँ कहें विविध संसकृतियाँ भारतीय श्रेष्ठता में समाती चली गयीं और श्रेष्ठ मनुष्यों सुसंस्कृत मानवों का निवास स्थान अपना देश अजनामवर्ष, आर्याव्रत, भारतवर्ष कहलाने लगा और यहाँ के निवासी आर्या, भारतीय और हिन्दू कहलाए। पण्डित जवाहर लाल नेहरु अपनी पुस्तक 'डिस्कवरी आफ इण्डिया' मे जब यह कहते है कि हमारे पुराने साहित्य मे तो हि्दू शब्द तो आता ही नहीं है, तो वे हिन्दूत्व में समायी भावनाओं का विरोध नहीं करते। मानवीय श्रेष्ठता के मानक इस शब्द का भला कौन विरोध कर सकता है और कौन करेगा। उदारता एवं सहिष्णुता तथा समस्त विश्व को अपने प्यार का अनुदान देने वाले हिन्दूत्व के प्रति सभी का मस्तक अनायास ही झुक जाता है। हाँ इस शब्द का अर्थ पहले-पहल प्रयोग जिस ग्रंथ में मिलता है, वह आठवीं शदी का ग्रन्थ है 'मेरुतन्त्र'। इसमें भी हिन्दू शब्द का अर्थ किसी धर्म विशेष से नहीं हैं । इसके तैतीसवें अध्याय में लिखा है "शक एवं हूण आदि का बर्बर आंतक फैलेगा। अतः जो मनुष्य इनकी बर्बरता से मानवता की रक्षा करेगा वह हिन्दू है"। मेरुतन्त्र के अतिरिक्त भविष्य पुराण, मेदिनी कोष, हेमन्त कोसी कोष ब्राहस्पत्य शास्त्र, रामकोष, कालिका पुराण , शब्द कल्पद्रुम अद्भुत रुपकोष आदि संस्कृत ग्रंन्थो में इस शब्द का प्रयोग मिलता है। ये सभी ग्रंन्थ दसवीं शताब्दी के आस पास के माने जाते है।

इतिहासकारों एंव अन्वेषण कर्ताओ का एक बड़ा वर्ग इस विचार से सहमत है कि हिन्दू शब्द का प्रेरक सिन्धु नदी है। डा० वी डी सावरकर की पुस्तक 'स्लेक्ट इन्सक्रिप्सन' में कहा गया है, सिन्धु नदी के पूर्वी एवं पश्चिमी दिशाओ के बीच के क्षेत्र एंव पश्चिमी दिशाओं के बीच के क्षेत्र के निवासियों को फारस अर्थात वर्तमान ईरान के शासक जिरक एंव दारा हिन्दू नाम से पुकारते थे। आचार्य पाणिनी ने अष्टाध्यायी में सिन्धु का अर्थ व्यक्तियों की वह जाती बतायी है, जो सिन्धु देश में रहते हैं। पण्डित जवाहर लाल नेहरु के अनुसार हिन्दू शब्द प्रत्यक्षतः सिन्धु से निकलता है, जो इसका पुराना और नया नाम है। इसी सिन्धु शब्द से हिन्दू, हिन्दुस्थान या हिन्दुस्तान बने है और इण्डस इण्डिया भी। समकालीन इतिहासकार हिन्दू को फारसी भाषा का शब्द मानते है। फारसी भाषा में हिन्दू एंव हिन्दू से बने अनेक शब्द मिलते है। हिन्दुवी, हिन्दनिया, हिन्दुआना, हिन्दुकुश, हिन्द आदि फारसी शब्दो में यह झलक देखी जा सकती है। फारस की पुरब दिशा का देश भारत ही वास्तव मे हिन्द था।

वर्तमान भारत, पाकिस्तान बंग्लादेश एवं अफगानिस्तान इसी क्षेत्र का भाग है। फारसी शब्दावली के नियमानुसार संस्कृत का अक्षर 'स' फारसी भाषा के अक्षर 'ह' में परिवर्तित हो जाता है। इसी कारण सिन्धु शब्द परिवर्तित होकर हिन्दू हो गया। हिन्दू शब्द जेन्दावेस्ता या धनदावेस्ता जैसी फारसी की प्राचीन धार्मिक पुस्तक में सर्वप्रथम मिलता है। संस्कृत एवं फारसी भाषा के अतिरिक्त भी अनेकों ग्रंन्थो में हिन्द या हिन्दू शब्द का प्रयोग किया गया है।

श्री वासुदेव विष्णुदेवदयाल ने अपनी पुस्तक 'द एसेन्स आफ द वेदाज एण्ड एलाइड स्क्रिपचर्स' में पृष्ठ ३-४ पर आचार्य सत्यदेव वर्मा ने 'इस्लामिक धर्म ग्रंन्थ पवित्र कुरान के संस्कृत अनुवाद की भूमिका में श्रीतनसुख राम ने अपनी पुस्तक 'हिन्दू परिचय' के पृष्ठ ३१ पर लिखा है कि अरबी भाषा के एक अँग्रेज कवि लबी बिन अखतब बिन तुरफा ने अपने काव्य संग्रह में हिन्द एंव वेद शब्द का प्रयोग किया है। ये महान कवि इस्लाम से २३०० वर्ष पूर्व हुए है। अरबी 'सीरतुलकुल' में हिन्दू शब्द का मिलना यह अवश्य सुनिश्चित करता है कि यह शब्द यूनान, फारस एंव अरब देशों में प्रचलित था और यह भी कि विश्व की परीक्रमा में विभाजित अधिकतर समकालीन राष्ट्र इस शब्द को धर्म विशेष अथवा सम्प्रदाय विशेष के अर्थ में नहीं बल्कि सद् गुण सम्पन्न मानव जाति या क्षेत्र विशेष के अर्थ में प्रयोग करते थे।
हिन्दू शब्द से मानवीय आदर्शो का परिचय मिलता है। साथ ही सिन्धु क्षेत्र सम्बन्धित होने के कारण इससे हम अपना राष्ट्रीय परिचय भी पाते है। हिन्दू शब्द को जब हम साम्प्रदायिकता संकीर्णताओं से जोड़ते है तो हम अपनी महानता, विशालता एवं गर्व को संकुचित मानसिकता मे बन्दी बना देना चाहते है। भारत में अपना अस्तित्व रखने वाले सभी धर्मों, सम्प्रदायों की मान्यताएँ एंव उपासना विधि भाषा, वेशभुषा, रीतिरिवाज, धार्मिक विश्वास भले ही आपस मे न मिलते हो, परन्तु सभी अपना सम्मिलित परिचय एक स्वर में गाते हुए यही देते है, सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा । हो भी क्यों न, हिन्दू और हिन्दुस्तान इन सभी जातियों प्रजातियों एवं उपजातियों की मातृभूमी है। जहाँ सभी को रहने का समान अधिकार है।

मानवीय गौरव के प्रतीक इस शब्द से अपना नाता जोड़ने में महाराणा प्रताप एवं शिवाजी सरीखे देशप्रेमियों ने गर्व का अनुभव किया। गुरु गोविन्दसिंह ने भी इस शब्द के निहितार्थ का भावबिभोर होकर गान किया है। शब्द कल्पद्रुम के अनुसार हीन दुष्याति इति हिन्दू अर्थात जो अपनी हीनता एवं बुराई को स्वीकार कर उसे छोड़ने के लिए तैयार होता है वह हिन्दू है। 'द धर्मस्मृति' के अनुसार हिंसा से बचने वाला , सदाचारी ईश्वर की राह पर चलने वाला हिन्दू है। आचार्य माधव के अनुसार ओंकार मूलमन्त्र मे आस्था रखने वाले हिन्दू होते है। आचार्य बिनोबा भावे का कहना था, वर्णाश्रम को मानने वाला, गो सेवक, वेदज्ञान का पुजारी , समस्त धर्मो को सम्मान देने वाला , दैवी शक्तियों का उपासक , मोक्ष प्राप्ति की जिज्ञासा रखने वाला जीवन में आत्मसात करने वाला ही हिन्दू है। आज बदले हुए परिवेश में मान्यताएँ बदली हुई हैं। कतिपय चतुर लोग बड़ी चतुराई से अपने स्वार्थ के लिए, अहं की प्रतिष्ठा के लिए शब्दों का मोहक जाल बिछाते रहते है। बहेलिए की फाँसने वाली वृत्ति, लोमड़ी की चाल की अथवा फिर भेड़ियों की धूर्तता कभी उन आदर्शो को स्थापित नहीं कर सकती जिनकी स्थापना के लिए इस देश के सन्तो, ऋषियों, बलिदानियों ने अपने सर्वस्व की आहुति दे दी।

हिन्दुत्व की खोज आज हमें आदर्शवादी मान्यताओं में करनी होगी। इसमें निहित सत्य को मानवीय जीवन की श्रेष्ठता मे, सद् गुण-सम्वर्धन में खोजना होगा। धार्मिक कट्टरता एंव साम्प्रसायिक द्वेश नहीं 'वसुधैव कुटुम्ब कम्' का मूलमंत्र है। यह विवाद नहीं विचार का विषय है। स्वार्थपरता एंव सहिष्णुता अपनाकर ही हम सच्चे और अच्छे इन्सान बन सकते है। मानवीय श्रेष्ठता का चरम बिन्दु ही हमारे आर्यत्व एवं हिन्दुत्व की पहचान बनेगा,।



प्रस्तुति - भाई मिथिलेश की

Sunday, November 15, 2009

वन्दे मां को कैसे भूल सकता है तू ????????


जी हाँ बिल्कुल सही सुना आपने। अगर ऐसा वाकया आपको देखने को मिले जहाँ कोई अपनी माँ को माँ कहने में शर्म महसुस करता हो और पुछने पर कहता हो ये बताने के लिए कि ये माँ है,माँ कहना जरुरी नहीं है। जरा सोचिए कितनी शर्मसार करने वाली घटना है। मेरा ये कहना उनके लिए है जो की अपने आपको भारतीय कहते है और "वन्दे मातरम्" जैसे पवित्र शब्द जो की हमारा राष्ट्रिय गीत है, को गाने से इनकार करते है और कहते है कि ये इस्लाम विरोधी है। जिसकी खाते है, जहाँ रहते है, उसको समर्पित दो शब्द कहने की बारी आती है तो उसे धर्म विरोधी बताकर उसका गान करने से मना करना कितनी शर्म की बात है एक कहावत है "जिस थाली में खाना उसी में छेद करना" यहा फिट बैठती है। धरती माँ जिससे हमें जीवन मिलता है, जिससे पेट भरने के लिए दो वक्त की रोटी मिलती है, जिसकी लाज बचाने के लिए न पता कितनो नें अपने प्राण की आहूती दे दी उसको सम्मान देनें में जिसे शर्म आती है उसे सच कह रहा हूँ कहीं डुब मरना चाहिए। जमीयत उलेमा हिंद ने देश के राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् को गैर-इस्लामिक करार देते हुए इसके खिलाफ फतवा सुना दिया है। जमीयत के राष्ट्रीय अधिवेशन के दूसरे दिन पारित एक प्रस्ताव में कहा गया है कि मुसलमान को वंदे मातरम् नहीं गाना चाहिए। क्यो भाई क्यों, न पता इस गीत को लेकर इतना विवाद क्यों है। मुझे लगता है पूरी दुनियाँ में ये पहली घटना होगी जहाँ राष्ट्रगान को लेकर विवाद हो रहा है।

हमारे यहाँ या कहिए विश्व भर में हर देश के अन्दर बहुत से जन जाती और धर्म के लोग रहते है। उनका हर क्रिया कलाप एक दुसरे धर्म के पुरक होता है। यहीं इन सबको एक राष्ट्र और एक देश मे बाँधने का काम करता है राष्ट्र गीत या राष्ट्र गान। लेकिन बड़े दुख की बात है हमारे देश में कुछ गलत अवधारणा के लोगो नें राष्ट्र गीत को विवादित कर दिया है। मान लेता हूँ कि राष्ट्रियता जताने के लिए राष्ट्रगान करना आवश्यक नहीं है, लेकिन भला ऐसा हो सकता है क्या ? आप भारत में रहकर पाकिस्तान जिन्दाबाद कहें और फीर कहें कि मैंने भारत मुर्दाबाद नहीं कहा तो कोई विश्वास करेगा क्या ?।

बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय सरकारी सेवा में थे और १८७० में जब अंग्रेजी हूकमत ने 'God save the King/Queen' गाना अनिवार्य कर दिया तो इसके विरोध में वन्दे मातरम् गीत के पहले दो पद्य १८७६ में संस्कृत में लिखे। इन दोनो पद्य में केवल मातृ-भूमि की वन्दना है। उन्होंने ने १८८२ में आनन्द मठ नाम का उपन्यास बांग्ला में लिखा और इस गीत को उसमें सम्मिलित किया। उस समय इस उपन्यास की जरूरत समझते हुये इसके बाद के पद्य बंगला भाषा में जोड़े गये। इन बाद के पद्य में दुर्गा की स्तुति है। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (१८९६) में, रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इसे लय और संगीत के साथ गाया। श्री अरविन्द ने इस गीत का अंग्रेजी में और आरिफ मौहम्मद खान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया है। आरिफ मोहम्मद खान भी एक मुसलमान थे और सच्चे मुसलमान थे। जब उन्होने इसका उर्दू अनुवाद किया तो क्या बिना पढे किया था, ऐसा तो नहीं होगा। उन्होने इसका मर्म समझा था तब अनुवाद किया, अब आज के मुसलमान कह सकते है कि शायद वे सच्चे मुसलमान नहीं होगें।

इस देश में असंख्य अल्पसंख्यक वन्दे मातरम्‌ के प्रति श्रद्धा रखते हैं। मुफ्ती अब्दुल कुदूस रूमी ने फतवा जारी करते हुए कहा था कि राष्ट्रगान का गायन उन्हें मुस्लिमों को नरक पहुँचाएगा। बहिष्त लोगों में लोहा मण्डी और शहीद नगर मस्जिदों के मुतवल्ली भी थे। इनमें से 13 ने माफी मांग ली। आश्चर्य की बात है कि अपराधिक गतिविधियों में शामिल होना, आतंकवादी कार्रवाईयों में भाग लेना, झूठ, धोखा, हिंसा, हत्या, असहिष्णुता, शराब, जुआ, राष्ट्र द्रोह और तस्करी जैसे कृत्य से कोई नरक में नहीं जाता मगर देश भक्ति का ज़ज़बा पैदा करने वाले राष्ट्र गान को गाने मात्र से एक इंसान नरक का अधिकारी हो जाता है। ब्रिटेन के राष्ट गान में रानी को हर तरह से बचाने की प्रार्थना भगवान से की गई है अब ब्रिटेन के नागरिकों को यह सवाल उठाना चाहिए कि कि भगवान रानी को ही क्यो बचाए, किसी कैंसर के मरीज को क्यों नहीं? बांग्लादेश से पूछा जा सकता है कि उसके राष्ट्रगीत में यह आम जैसे फल का विशेषोल्लेख क्यों है? सउदी अरब का राष्ट्रगीत ‘‘सारे मुस्लिमों के उत्कर्ष की ही क्यों बात करता है और राष्ट्रगीत में राजा की चाटुकारिता की क्या जरूरत है? सीरिया के राष्ट्रगीत में सिर्फ ‘अरबवाद की चर्चा क्या इसे रेसिस्ट नह बनाती? ईरान के राष्ट्रगीत में यह इमाम का संदेश क्या कर रहा है? लीबिया का राष्ट्रगीत अल्लाहो अकबर की पुकारें लगाता है तो क्या वो धार्मिक हुआ या राष्ट्रीय? अल्जीरिया का राष्ट्रगीत क्यों गन पाउडर की आवाज को ‘हमारी लय और मशीनगन की ध्वनि को ‘हमारी रागिनी कहता है? अमेरिका के राष्ट्रगीत में भी ‘हवा में फूटते हुए बम क्यों हैं? चीन के राष्ट्रगीत में खतरे की यह भय ग्रन्थि क्या है? किसी भी देश के राष्ट्रगीत पर ऐसी कोई भी कैसे भी टिप्पणी की जा सकती है लेकिन ये गीत सदियों से इन देशों के करोडों लोगों के प्रेररणा स्रोत हैं और बने रहेंगे। उनका उपहास हमारी असभ्यता है। शम्सु इस्लाम हमें यह भी जताने की कोशिश करते हैं कि वन्दे मातरम्‌ गीत कोई बड़ा सिद्ध नहीं था और यह भी कोई राष्ट्रगीत न होकर मात्र बंगाल गीत था। वह यह नहीं बताते कि कनाडा का राष्ट्रगीत 1880 में पहली बार बजने के सौ साल बाद राष्ट्रगीत बना। 1906 तक उसका कहीं उल्लेख भी नहीं हुआ था। आस्ट्रेलिया का राष्ट्रगीत 1878 में सिडनी में पहली बार बजा और 19 अप्रैल 1984 को राष्ट्रगीत का दर्जा प्राप्त हुआ।

वन्दे मातरम्‌ गीत आनन्दमठ में 1882 में आया लेकिन उसको एक एकीकृत करने वाले गीत के रूप में देखने से सबसे पहले इंकार 1923 में काकीनाड कांग्रेस अधिवेशन में तत्कालीन कांग्रेसाध्यक्ष मौलाना अहमद अली ने किया जब उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के हिमालय पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को वन्दे मातरम्‌ गाने के बीच में टोका। लेकिन पं. पलुस्कर ने बीच में रुकर कर इस महान गीत का अपमान नहीं होने दिया, पं- पलुस्कर पूरा गाना गाकर ही रुके। सवाल यह है कि इतने वषो तक क्यों वन्दे मातरम्‌ गैर इस्लामी नह था? क्यों खिलाफत आंदोलन के अधिवेशनों की शुरुआत वन्दे मातरम्‌ से होती थी और ये अहमद अली, शौकत अली, जफर अली जैसे वरिष्ठ मुस्लिम नेता इसके सम्मान में उठकर खड़े होते थे। बेरिस्टर जिन्ना पहले तो इसके सम्मान में खडे न होने वालों को फटकार लगाते थे। रफीक जकारिया ने हाल में लिखे अपने निबन्ध में इस बात की ओर इशारा किया है। उनके अनुसार मुस्लिमों द्वारा वन्दे मातरम्‌ के गायन पर विवाद निरर्थक है। यह गीत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान काँग्रेस के सभी मुस्लिम नेताओं द्वारा गाया जाता था। जो मुस्लिम इसे गाना नहीं चाहते, न गाए लेकिन गीत के सम्मान में उठकर तो खड़े हो जाए क्योंकि इसका एक संघर्ष का इतिहास रहा है और यह संविधान में राष्ट्रगान घोषित किया गया है।

बंगाल के विभाजन के समय हिन्दू और मुसलमान दोनों ही इसके पूरा गाते थे, न कि प्रथम दो छंदों को। 1896 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में इसका पूर्ण- असंक्षिप्त वर्शन गया गया था। इसके प्रथम स्टेज परफॉर्मर और कम्पोजर स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर थे।

13 मार्च 2003 को कर्नाटक के प्राथमिक एवं सेकेण्डरी शिक्षा के तत्कालीन राज्य मंत्री बी-के-चंद्रशेखर ने ‘प्रकृति‘ शब्द के साथ ‘देवी लगाने को ‘‘हिन्दू एवं साम्दायिक मानकर एक सदस्य के भाषण पर आपत्ति की थी। तब उस आहत सदस्य ने पूछा था कि क्या ‘भारत माता, ‘कन्नड़ भुवनेश्वरी और ‘कन्नड़ अम्बे जैसे शब्द भी साम्दायिक और हिन्दू हैं? 1905 में गाँधीजी ने लिखा- आज लाखों लोग एक बात के लिए एकत्र होकर वन्दे मातरम्‌ गाते हैं। मेरे विचार से इसने हमारे राष्ट्रीय गीत का दर्जा हासिल कर लिया है। मुझे यह पवित्र, भक्तिपरक और भावनात्मक गीत लगता है। कई अन्य राष्ट्रगीतों के विपरीत यह किसी अन्य राष्ट्र-राज्य की नकारात्मकताओं के बारे में शोर-शराबा नह करता। 1936 में गाँधीजी ने लिखा - ‘‘ कवि ने हमारी मातृभूमि के लिए जो अनके सार्थक विशेषण प्रयुक्त किए हैं, वे एकदम अनुकूल हैं, इनका कोई सानी नहीं है। 26 अक्टूबर 1937 को पं- जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कलकत्ता में कांग्रेस की कार्यसमिति ने इस विषय पर एक प्रस्ताव स्वीकृत किया। इसके अनुसार ‘‘ यह गीत और इसके शब्द विशेषत: बंगाल में और सामान्यत: सारे देश में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीयय तिरोध के प्रतीक बन गए। ‘वन्दे मातरम्‌ ये शब्द शक्ति का ऐसा पस्त्रोत बन गए जिसने हमारी जनता को प्रेरित किया और ऐसे अभिवादन हो गए जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की हमें हमेशा याद दिलाता रहेगा। गीत के प्रथम दो छंद सुकोमल भाषा में मातृभूमि और उसके उपहारों की प्रचुरता के बारे में देश में बताते हैं। उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर धार्मिक या किसी अन्य दृष्टि से आपत्ति उठाई जाए।

ऐसा भी नहीं है कि सभी मुसलमानो ने इसका विरोध किया हो, ये आप देख ही चुके है। आजादी की लड़ाई के समय हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर चले थे और उत्साह वर्धन के लिए सभी भारत माता के सैनिक 'वन्दे मातरम' कहकर आगे बढ़ रहे थे , तब किसी ने इसका विरोध नहीं किया। आज कट्टरावादी इसपर सांप्रदायिकता की चादर डालने में लगे है जो की हमारे हिन्द के लिए तनिक भी ठीक नहीं होगा। चिन्ता की बात तो ये यह है कि ये लोग ये बात समझने को तैयार नहीं है और भेड़ के समान एकदूसरे के पिछे चलते जा रहे है। मेरा तो कहना साफ है जो अपने देश का राष्ट्र गान करने में शर्म महसुस करता हो उसे कहीं डुब मरना चाहिए जहाँ सूखा पड़ा हो, और ऐसे गद्दारो को देश मे भी स्थान नहीं देना चाहिए।

Saturday, November 14, 2009

गाय काटने वालो का क्यों ना सर कलम कर दिया जाये?????


" गाय " जिसे हमारे धर्म (हिन्दू) में माता का दर्जा प्राप्त है। अब माता क्यों कहा जाता है ये सबको पता है। भारत कि गौरवशाली परंपरा में गाय का स्थान सबसे ऊँचा और अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है। गाय माता की महिमा पर महाभारत में एक कथा आती है। यह कथा रघुकुल के राजा नहुष और महर्षि च्यवन की है, जिसे भीष्म पितामह मे महाराजा युधिष्ठिर को सुनाया था।


महर्षि च्यवन जलकल्प करनें के लिए जल में समाधि लगाये बैठे थे। एक दिंन मछुआरों ने उसी स्थान पर मछलियाँ पकड़ने के लिए जाल फेंका। जाल में मछलियों के साथ महर्षि च्यवन भी समाधि लगाये खिंचे चले आयें, उनको देखकर मछुआरों ने उनसे माफी मांगी। और उन्होने कहा की ये सब गलती से हो गया। तब महर्षि च्यवन ने कहा " यदि ये मछलियाँ जिएँगी तो मै भी जीवन धारण करुँगा अन्यथा नहीं। तब ये बात वहाँ के राजा नहुष के पास पहुची, राजा नहुष वहा अपने मंत्रीमण्डल के साथ तत्काल पहुचे और कहा


" अर्धं राज्यं च मूल्यं नाहार्मि पार्थिव।
सदृशं दीयतां मूल्यमृषिभिः सह चिंत्यताम।।


अनर्घेया महाराजा द्विजा वर्णेषु चित्तमाः ।
गावश्चय पुरुषव्याघ्र गौर्मूल्यं परिकल्प्यतम्।।



हे पार्थिव आपका आधा या संपूर्ण राज्य भी मेरा मूल्य नहीं दे सकता। अतः आप ऋषियो से विचार कर मेरा उचित मूल्य दीजिए। तब राजा नहुष ने ऋषियो से पुछा तब ऋषियों ने राजा बताया कि गौ माता का कोई मूल्य नहीं है अतः आप गौदान करके महर्षि को खुश कर दीजिए। राजा ने ऐसा ही किया और तब महर्षि च्यवन ने कहा


" उत्तिष्ठाम्येष राजेंद्र सम्यक् क्रीतोSस्मि तेSनघ।
गोभिस्तुल्यं न पश्यामि धनं किंचिदिहाच्युत।।



हे राजन अब मैं उठता हूँ। आपने ने मेरा उचित मूल्य देकर मुझे खरीद लिया है। क्योंकि इस संसार मे गाय से बढ़कर कोई और धन नहीं है। भारत में वैदिक काल से ही गाय को माता के समान समझा जाता रहा। गाय कि रक्षा करना, पोषण करना एवं पुजा करना भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा । वेदो मे कहा गया है कि पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों का आधार भी गाय को माना जाता है।
इतना कुछ होने के बावजुद गाय के मांसो का बड़ा व्यापार भारत व उससे बाहर हो रहा है। और हम मजबुर वस अपनी माँ को कटते देख रहे है और कुछ भी नहीं कर पा रहे है। जिस तरह से इनको सरेआम काटा जा रहा ठीक वैसे ही इनको काटने वालो का सर कलम कर दिया जाना चाहिये। ताकी कोई ऐसी घिनौनी हरकत ना कर सके।


भारत मे गायों की सख्या व उनकी खत्म होती नस्ले इस बात का सबुत है कि किस तरह से उनको देश के बाहर भोजन स्वरुप भेजा रहा है। खाद्यान्न उत्पादन आज भी गो वंश पर आधारित है। आजादी तक देश में गो वंश की 80 नस्ल थी जो घटकर 32 रह गई है। यदि गाय को नही बचाया तो संकट आ जाएगा क्योंकि गाय से ग्राम और ग्राम से ही भारत है। १९४७ में एक हजार भारतीयों पर ४३० गोवंश उपलब्ध थे। २००१ में यह आँकड़ा घटकर ११० हो गयी और २०११ में यह आँकड़ा घटकर २० गोवंश प्रति एक हजार व्यक्ति हो जाने का अनुमान है। इससे ये अन्दाजा लगाया जा सकता है कि जिसे हम माँ कहते है उनका क्या हाल है।


गाय पुराने समाज के लिये पशु नहीं था... वह हमारी धरती पर खड़ी जीवित देवशक्ति थी... बल्कि समस्त देवताओं की आभा लिये उन्हीं अव्यक्त सत्ताओं की प्रतिनिधि थी। उस गाय को काटने-मारने के कारण ही यह भारत राष्ट्र इतनी मेधा-प्रतिभा और संसाधनों, श्री-समृद्धि के स्रोतों के बावजूद यदि गरिब तो यह उसी गो-माता का शाप है.हमारा सहस्त्रों वर्षो का चिन्तन, हमारे योगी, तापस, विद्यायें सब लुप्त हो गये... और जो कबाड़ शेष बचा है वही समाज के सब मंचों पर खड़ा होकर राश्ट्र का प्रतिनिधि बन बैठा है। प्रतिभा अपमानित है, जुगाड़ और जातियों के बैल राष्ट्र को विचार के सभी स्तरों पर हांक रहे हैं, गाय को काटने वालों ने भारतीय समाज की आत्मा को ही बीच से काट डाला है गाय के कटने पर हमारा ‘शीश’ कट कर गिर पड़ा है. हम जीवित हिन्दू उस गाय के बिना कबन्ध हैं, इस कबन्ध के लिये ही मारा-मारी में जुटे हैं अपराध, भ्रष्टाचार और राजनीति का दलिद्दर चेहरा ऐसे ही कबन्ध रूपी समाज में चल सकता था... वरना आज यदि उस गो-माता के सींग का भय होता... तो आपकी गृहलक्ष्मी आपको बताती कि भ्रष्टाचार और दलिद्दर विचारों के साथ आप आंगन में कैसे प्रवेश कर सकते हैं ।



जब कोई हमारी माँ को इस बर्बरता से काट से सकते है तो हम उनका सर क्यो कलम नहीं कर सकते जो हमारी जनंनी को हमसे छिनने की कोशिश कर रहा है। आखिर कब तक हम यूँ ही देखते रहेंगे , कब तक ? कहीं ऐसा ना हो कि बहुत देर हो चुकी हो, अब समय आ गया है उठ खड़े होने का। और इस लड़ाई में सबसे आगे हिन्दुओं को होना चाहिए, क्योंकी ये खिलवाड़ हमारे अस्मत के साथ हो रही है। हमे किसी और का इन्तजार नहीं करना चाहिए। यूरोप में मांस की अत्यधिक मांग होने के कारण, अंग्रेज विचारक चील-कौवों की तरह गाय के चारों ओर मंडराने लगे। गो-धन को समाप्त करने के लिये उन्होंने अंग्रेजी स्कूलों से शिक्षा प्राप्त नीति निर्धारकों, इन फाइल-माफियाओं को फैक्ट्री दर्शन के पाठ पढ़ाये... अनाज की कमी का भय दिखाकर रासायनिक-खाद की फैक्ट्रियां लगीं, दूध की कमी का रोना रोकर दूध के डिब्बे फैक्ट्रियों में तैयार होने लगे, घी, मक्खन सभी कुछ डिब्बा बन्द... ताकि गो-मांस को निर्बाध निर्यात किया जा सके शहरों में रहने वाले मध्यमवर्ग ने इन उत्पादों की चमक के कारण गाय के शरीर से आंखें फेरलीं । वह गोबर, गोमूत्र को भूलता चला गया और देश में गाय सहित हजारों पशुओं को काटने वाले कत्लगाह खुलने पर ऋषियों के पुत्र एक शब्द नहीं बोले. वे इन दूध के डिब्बों से एक चम्मच पाउडर निकाल कर चाय की चुस्कियां भर कर अंग्रेजी अखबार पढ़ते रहे ।
यूरोप से आयातित मांसल सभ्यता के अचार पर चटकारें मारते रहे , और गो-माता हमारे जीवन से अदश्य हो गयी क्योंकि गोबर की जगह यूरिया की बोरियों ने ले ली, बैल की घन्टियों की जगह कृशि जीवन को आक्रान्त करने वाले ट्रैक्टर आ गये तर्क है कि अनाज की कमी पूरी हो गयी ।. यदि हम यूरिया के कारण आत्म निर्भर हैं तो हमारा किसान आत्महत्या क्यों कर रहा है? गेहूँ आयात क्यों किया जा रहा है...? आप के बन्दर मुखी बुद्धिजीवी जब मंहगें होटलों में बैठकर ये जो ‘जैविक-जैविक’ का जप करते रहे हैं, क्या उनके गालों पर झापड़ रसीद की जाय...? यूरोप-अमेरिका कब तक हमें मूर्ख बनायेगा...? हमारी ही गायों को उबाल कर खाने वाले ये दैत्य, हमें ही प्रकृति से जुड़ने की शिक्षायें देते हैं, खेती-जंगल-जल से पवित्र सम्बन्ध रखने वाले भारतीय समाज की ऐसी-तैसी करके भाई लोग पर्यावरण पर उस समाज को शिक्षायें देते हैं। जिनके जीवन में ‘गाय’ की पूछ पकड़े बिना मुक्ति की कामना नहीं, पेड़ जिनके धार्मिक-चिह्न है, नदियाँ जिनकी मां हैं, जहाँ घाटों, नदियों, गायों के व्यक्तियों की तरह नाम हैं, ताकि उनके न रहने पर, समाज में उनकी स्मृति बनी रहे, उस वृद्ध और घाघ समाज को सेमिनारों में पाठ पढाये जा रहे हैं... वो भी हमारे ही खर्चे पर... हद है। गो-माता जब से पशु बनी तभी से हम भारतीयों का समाज भी कबन्ध हो गया है गाय, इस भौतिक जगत और अव्यक्त सत्ता के बीच खड़ा जीवित माध्यम है, उस विराट के समझने का प्रवेषद्वार है जो लोग, जो सभ्यतायें, जो धर्म, गाय को मार-काट कर खा-पका रहे हैं, वे प्रभु और अपने बीच के माध्यम को जड़ बना रहे हैं। वे जीवित धर्म का ध्वंश कर रहे हैं, अब चाहे वे धर्म के नाम पर जितनी बड़ी अट्टालिकायें गुंबद बना लें, वे परमात्मा की कृपा से तब तक वंचित रहेंगें, जब तक वे गाय को अध्यात्मिक दृश्टि से नहीं देखेगें वैसे विटामिन, प्रोटीन और पौश्टिकता से भरे तो कई डिब्बे, और कैप्सूल बाजार में उपलब्ध हैं। यदि ऋषियों ने भौतिक-रासायनिक गुणों के कारण गाय को पूजनीय माना होता, तो हिन्दू आज इन दूध के डिब्बों, कैप्सूलों की भी पूजा कर रहा होता विज्ञान वही नहीं है जो अमेरिका में है, विज्ञान का नब्बे प्रतिशत तो अभी अव्यक्त है, अविश्कृत होना है, हमने अन्तर्यात्रायें कर के उसकी झलक सभ्य संसार को दिखाई थी, असभ्यों ने वो समस्त पोथी-पुस्तक ही जला दिये... गाय बची है... उस माता की पूंछ ही वह आखिरी आशा है जिसे पकड़ कर हम पुनः महाविराट सत्ता का अनावरण कर सकते हैं ।



विदेशो में तो गायो के मांस का व्यापार तो हो ही रहा है, लेकिन बड़े दुःख की बात ये है कि हमारे देश मे भी ये धड़ल्ले से हो रहे है, पीलीभीत जो की उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत आता है जो मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र माना जाता है। । वहा इस साल केवल दो महिनें मे (मार्च और अप्रैल) में पाँच सौ से ज्यादा गायो की बली दी गयी इस बात की जानकारीं सरकार को भी दी गयी लेकिन सरकार हाथ पे हाथ रखकर हम हिन्दुओं के साथ खिलवाड़ कर रही है। ब्रिटिश एयरवेज का भारत में बहुत बड़ा व्यापार है ये सबको को मालुम है। इसमें खाने मेन्यू में गाय के मांस को चाव से परोसा जा रहा है, और जब इसका विरोध किया गया तो ब्रटिश एयरवेज वालो ने गाय मांस को इकोनामिक क्लास से हटा दिया, परन्तु फर्स्ट और क्लब वर्ल्ड में गोमांस अब भी परोसे जा रहे है, जो की बड़े दुःख की बात है। ये तो बात रही देश की, अब जरा हम अपने आस पास देखते है जहाँ हमारे माँ को कैसे बेचा जा रहा है। बाजार मे मिलने वाले सौन्दर्य प्रसाधनों में ज्यादातर गाय मांस का प्रयोग किया जाता है। ग्लिसरिन और पेपसिन आप और हम सभी जानते हैं, और इसका प्रयोग सौन्दर्य प्रसाधनो में सबसे ज्यादा किया जाता है। ग्लिसरिन और पेपसिन का ही रुप है जेलेटिन । गाय के मांस और खाल को उबाला जाता है और जो चिकना पदार्थ निकलता है उसे जिलेटिन कहते है, और जिलेटिन के निचले सतह को ग्लिसरिन कहा जाता है। ग्लिसरिन का कारोबार हमारे देश में जोरो से चल रहा है। तो जाहिर सी बात है मांसो के लिए गायो को काटा जाता है। मुसलमानो के यहाँ बकरीद के अवसर पर अब भी गायो की बली दी जाती है। सबसे ज्यादा गायों को पाकिस्तान , अफगानिस्तान और अरब देशो में काटा जाता है। जबकि अरब जहाँ इस्लाम का जन्म हुआ है वहाँ गायों को काटना अनिवार्य है । भारत में भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष से रुप से बकरीद के दिनं गायो को काटा जाता है, और प्रशासन कुछ नहीं करती । जबकि पहले मुगल शासक बाबर ने गो ह्त्या पर पाबंदी लगा दी थी और अपने बेटे हुमायूं को भी गाय न काटने की सलाह दी थी।


गावो विश्ववस्य मातरः।


भारतीय चिंतनपद्धति में, चाहे वह किसी भी पंथ या मान्यता से अनुप्राणित हो, गाय को आदिकाल से ही पुज्यनीय माना गया हैं, और उसके बध को को महापाप समझा जाता रहा है। वेदो, शास्त्रों, एव पुराणो के अलावा कुरान, बाइबिल, गुरुग्रन्थं साहिब तथा जैन एंव बौद्ध धर्मग्रन्थों में भी गाय को मारना मनुष्य को मारने जैसा समझा जाता है। कुरान में आया है कि गाय की कुर्बानी इस्लाम धर्म कर खिलाफ है। इस प्रकार देखा जाये तो सभी धर्मों नें गाय की महत्ता को समान रुप से सर्वोपरि माना है। लेकिन इन सबके बावजुद कुछ निकम्मे व कूठिंत सोच वाले लोग है जो की कहते है बिना गाय की बली दिये हुए त्योहार अधुरा रह जाता है। ये वे समय है जब हमे जैसा को तैसा वाला नियम अपनाना पड़ेगा, अन्यथा इसका परिणाम क्या होगा ये हम सब अनुमानित कर सकते है। कहीं ऐसा ना हो कि जिसे हम माता कहके बुलाते है वह बस तस्विर बनकर ही रह जाये आने वाले समयं में। गौ माता की रक्षा भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म के गौरव व आत्म सम्मान की रक्षा का अभिन्न अंग है। यह अजीब विडंबना है कि कि जब तक हमारे परंपरागत ज्ञान को को पश्चिमी दुनिया व अन्य धर्म वाले मान्यता नहीं दते, हम सकुचाये- से रहते हैं और अन्य धर्म के विचारकों द्वारा उसे स्वीकार करते ही मान लेते है। हम जो सो रहे, हमारे आखों मे पट्टी नुमा बेड़िया पड़ी है, उसे अब निकाल फेकना होगा और निर्णय लेना पड़ेगा। गौ माता की रक्षा लिए हमें संकल्प लेना पड़ेगा। हिन्दू धर्म, बल्कि समूची मानव जाति के विकास के लिए गौ माता की रक्षा को परम कर्तव्य बनाना पड़ेगा।