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Wednesday, September 30, 2009

"भगवान मनु स्त्री विरोधी थे, ये कहना कितना जायज"

हमारे समाज में कुछ प्रगतिशील महिलाओं का मानना है कि भगवान मनु स्त्री विरोधी थे। क्या जो मनु मनु-स्मृति हम पढ़ते और देखते है वह प्रमाणिक है ,, और अगर है तो कितने प्रतिशत ,, क्या ये वहीमनु-स्मृतिहै जो भगवान् मनु ने लिखी थी और पूर्ण शुद्ध रूप में हमारे सामने है ,,,, अगर ऐसा है तो इसके श्लोको में

इतना विरोधाभाष कैसे ,,, लिखने वाला एक चतुर्थ श्रेनी का लेखक भी जब अपने विषय के प्रतिकूल नहीं होता तो भगवान् मनु ने अपनी एक ही पुस्तक में इतना विरोध भाष कैसे लिख दिया ,,, एक जगह वो स्त्रियों की पूजा की बात करते है और दूसरी जगह उनकी दासता की ,, कही न कही कोई न कोई घेल मेल तो है,,,, अब वो घेल मेल क्या है उसे देखने के लिए हमें कुछ विद्वानों की ओर ताकना होगा और उनके कई शोध ग्रंथो को खगालना होगा ,,, यहाँ पर ये बहुत महत्व पूर्ण तथ्य है की हमारे जयादातर गर्न्थो का पुनर्मुद्रण और पुनर्संस्करण अग्रेजी शासन में हुआ और जयादातर अंग्रेज विद्वानों के द्बारा ही हुआ ,,, जिनका एक मात्र उद्देश्य भारत को गुलाम बनाना और भारतीय सभ्यता और संस्क्रती को नस्ट करना था,, कहीं कहीं पर उनका आल्प ज्ञान भी अर्थ को अनर्थ करने के लिए काफी था यथा



यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते॥ (ऋग्वेद क्0.90.क्क्)


अर्थात बलि देने के लिए पुरुष को कितने भागो मे विभाजित किया गया? उनके मुख को क्या कहा गया, उनके बांह को क्या और इसी तरह उनकी जंघा और पैर को क्या कहा गया? इस श्लोक का अनुवाद राल्फ टी. एच. ग्रिफिथ ने भी कमो-बेश यही किया है।

रह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य कृ त:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भयां शूद्रो अजायत॥ (ऋग्वेद क्0.90.क्ख्)


इस श्लोक का अनुवाद एचएच विल्सन ने पुरुष का मुख ब्राह्मण बना , बाहु क्षत्रिय एवं जंघा वैश्य बना एवं चरण से शूद्रो की उत्पत्ती हुई किया है। ठीक इसी श्लोक का अनुवाद ग्रिफिथ ने कुछ अलग तरह से ऐसे किया है- पुरुष के मुख मे ब्राह्मण, बाहू मे क्षत्रिय, जंघा मे वैश्य और पैर मे शूद्र का निवास है। इसी बात को आसानी से प्राप्त होने वाली दक्षिणा की मोटी रकम को अनुवांशिक बनाने के लिए कुछ स्वार्थी ब्राह्मणो द्वारा तोड़-मरोड़ कर मनुस्मृति मे लिखा गया कि चूंकि ब्राह्मणो की उत्पत्ती ब्रह्मा के मुख से हुई है, इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ है तथा शूद्रो की उत्पत्ती ब्रह्मा के पैर से हुई है इसलिए वह सबसे निकृष्ट और अपवित्र है।


मनुस्मृति के 5/132 वे श्लोक मे कहा गया है कि शरीर मे नाभि के ऊपर का हिस्सा पवित्र है जबकि नाभि से नीचे का हिस्सा अपवित्र है। जबकि ऋग्वेद मे इस तरह का कोई विभाजन नही है। इतना ही नही इस प्रश्न पर इतिहासकारो के भी अलग-अलग विचार है। संभवत: मनुस्मृति मे पुरुष के शरीर के इस तरह विभाजन करने के पीछे समाज के एक वर्ग को दबाने, बांटने की साजिश रही होगी। मनुस्मृति के श्लोक सं1.31 के अनुसार ब्रह्मा ने लोगो के कल्याण(लोकवृद्धि)के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र का क्रमश: मुख, बाहू, जंघा और पैर से निर्माण किया। जबकि ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के रचयिता नारायण ऋषि के आदेश इसके ठीक उलट है। उन्होने सरल तरीके से (10.90.11-12)यह बताया है कि यदि किसी व्यक्ति के शरीर से मुख, बाहू, जंघा और पैर अलग कर दिया जाए तो वह ब्रह्मा ही क्यो न हो मर जाएगा। अब जब येसा है तो मनु स्मरति के किन श्लोको को प्रमाणिक कहा जाए और किन्हें नहीं इसको ले कर बहुत लम्बी बहस हो सकती है,, परन्तु इसका उत्तर भी
मनु-स्मृति में ही छिपा है ,,,



मनुस्मृति मे श्लोक (II.6) के माध्यम से कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है। मनुस्मृति (II.13) भी वेदो की सर्वोच्चता को मानते हुए कहती है कि कानून श्रुति अर्थात वेद है। ऐसे मे तार्किक रूप से कहा जा सकता है कि मनुस्मृति की जो बाते वेदो की बातो का खंडन करती है, वह खारिज करने योग्य है। चारों वेदो के संकलनकर्ता/संपादक का ओहदा प्राप्त करने वाले तथा महाभारत, श्रीमद्भागवत गीता और दूसरे सभी पुराणो के रचयिता महर्षि वेद व्यास ने स्वयं (महाभारत 1-V-4) लिखा है-

श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।
तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृति‌र्त्वरा॥


अर्थात जहां कही भी वेदो और दूसरे ग्रंथो मे विरोध दिखता हो, वहां वेद की बात की मान्य होगी। 1899 मे प्रोफेसर ए. मैकडोनेल ने अपनी पुस्तक ''ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर'' के पेज 28 पर लिखा है कि वेदो की श्रुतियां संदेह के दायरे से तब बाहर होती है जब स्मृति के मामले मे उनकी तुलना होती है। पेज 31 पर उन्होने लिखा है कि सामान्य रूप मे धर्म सूत्र भारतीय कानून के सर्वाधिक पुराने स्त्रोत है और वेदो से काफी नजदीक से जुड़े है जिसका वे उल्लेख करते है और जिन्हे धर्म का सर्वोच्च स्त्रोत स्थान हासिल है। इस तरह मैकडोनेल बाकी सभी धार्मिक पुस्तको पर वेदो की सर्वोच्चता को स्थापित मानते है। न्यायमूर्ति ए.एम. भट्टाचार्य भी अपनी पुस्तक ''हिंदू लॉ एंड कांस्टीच्यूशन'' के पेज 16 पर लिखा है कि अगर श्रुति और स्मृति मे कही भी अंतर्विरोध हो तो तो श्रुति (वेद) को ही श्रेष्ठ माना जाएगा
,,



ऐसे मे मैकडोनेल सलाह देते है कि अच्छा होगा यदि स्मृति मे किसी बाहरी स्त्रोत के दावे/बयान को जांच लिया जाए। पर ब्रिटिश भारतीय अदालतो ने उनकी इस राय की उपेक्षा कर दी। साथ ही मनुस्मृति के वास्तविक विषय वस्तु के साथ भी खिलवाड़ किया गया जिसे ईस्ट इंडिया के कर्मचारी सर विलियम जोस ने स्वीकार किया है जिन्होने मनु स्मृति को हिंदुओ के कानूनी पुस्तक के रूप में ब्रिटिश भारतीय अदालतो मे पेश और प्रचारित किया था। मनुस्मृति मे ऐसे कई श्लोक है जो एक दूसरे के प्रतिलोम है और ये साबित करते है कि वास्तविक रचना के साथ हेरफेर किया गया है, उसमे बदलाव किया गया है। बरट्रेड रसेल ने अपनी पुस्तक पावर मे लिखा है कि प्राचीन काल मे पुरोहित वर्ग धर्म का प्रयोग धन और शक्ति के संग्रहण के लिए करता था। मध्य काल में यूरोप मे कई ऐसे देश थे जिसका शासक पोप की सहमत के सहारे राज्य पर शासनरत था। मतलब यह कि धर्म के नाम पर समाज के एक तबके द्वारा शक्ति संग्रहण भारत से इतर अन्य जगहो पर भी चल रहा था।

यहाँ पर इतना लम्बा चौडा लिखने और कई लेखको की
सहायता लेने का उद्देश्य यही है की पहले हमें मनु-स्मृति के श्श्लोको की प्रमाणिकता को सिद्ध करना होगा और प्रमाणिक श्लोको में अगर हमें कोई विरोधा भाष मिलता है और वो स्त्री विरोधी या समाज के किसी वर्ग विशेष के विरोधी मिलते है तो हमें निश्चित ही उनका विरोध करना चाहिए ,,, और मनु-स्मृति प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए हमारे पास केवल एक मात्र प्रमाणिक पुस्तक वेद ही है ,,, जिनकी साहयता से हम मनु-स्मृति के श्लोको की प्रमाणिकता जांच सकते है ,,,,, वैसे वैदिक समय में स्त्रियों की स्थिति क्या थी मै यहाँ लिखना चाहूंगा ,,,,,



ऋग्वेद की ऋचाओ मे लगभग 414 ऋषियो के नाम मिलते है जिनमे से लगभग 30 नाम महिला ऋषियो के है। इससे साफ होता है कि उस समय महिलाओ की शिक्षा या उन्हे आगे बढ़ने के मामले मे कोई रोक नही थी, उनके साथ कोई भेदभाव नही था। स्वयं भगवान ने ऋग्वेद की ऋचाओ को ग्रहण करने के लिए महिलाओ को पुरुषो के बराबर योग्य माना था। इसका सीधा आशय है कि वेदो को पढ़ने के मामले मे महिलाओ को बराबरी का दर्जा दिया गया है। वैदिक रीतियो के तहत वास्तव मे विवाह के दौरान रस्मो मे ब्7 श्लोको के वाचन का विधान है जिसे महिला ऋषि सूर्या सावित्री को भगवान ने बताया था। इसके बगैर विवाह को अपूर्ण माना गया है। पर अज्ञानता के कारण ज्यादातर लोग इन विवाह सूत्र वैदिक ऋचाओं का पाठ सप्तपदी के समय नही करते है और विवाह एक तरह से अपूर्ण ही रह जाता है.





प्रस्तुति - मिथिलेश

Tuesday, September 29, 2009

प्रिये - कविता

प्रिये ,

आज तुम फिर क्यों ?
इतनी देर से आयी हो ,

तुम्हारे इंतजार में मैंने
कितने ही सपने सजाये
पर तुम्हारे बगैर ये कितने
अधूरे से हैं ।

मैंने तो कितनी ही बार
तुमसे शिकायत की
पर
तुमने हमेशा ही अपनी
मुस्कुराहट से ,
जीत लिया मुझे,
तुमसे इस तरह तुम्हारी शिकायत करना
अच्छा लगता है मुझे ,

प्रिये,

तुम्हारा इंतजार करते- करते

मैंनें बंद कर ली थी आंखें,
बंद आंखों में तुम्हारी
यादे तैरने लगी थी ,

एक उम्मीद थी कि

शायद इन यादों के साथ

नींद के आगोश में
समा जाऊं मैं ,

करवटें बदल- बदल कर
कोशिश की थी ,
रात भर सोने की
पर
सफल न हो सका था ।

कमरे के दरवाजे से
मंदिर के जलते दिये
की रोशनी ,
चांद की किरणों को
मद्धम कर रही थी ,
मैं तो चुपचाप ही ये
खेल देख रहा था ।

ऐसे में हवा के एक झोंके ने,
बुझा दिया था इस रोशनी को ,
जिसे देख मैं इंतजार कर रहा था तुम्हारा,
उस झोंके ने कोशिश की थी
मेरे विश्वास को तोड़ने की ,
पर मुझे पता है कि
तुम आओगी जरूर प्रिये ,
पर
देर से ही
और मैं
तुमसे करूंगा ढ़ेर सारी
शिकायतें
तुम चुप रह कर सुनती रहोगी
फिर
मुस्कराकर मेरा दिल जलाओगी

प्रिये ,


तुम्हारी ये अदा
मुझे सताती है ,
मेरे दिल को भाती है
इसलिए तो
तुम्हारा इंतजार करना
अच्छा लगता है ।

Monday, September 28, 2009

ब्लागवानी ने दिखाया साहस ............अब तो सुधर जाओ यारों

ब्लागवानी का आकस्मिक बंद होना आश्चर्यचकित करने वाला कतई नहीं । जिस तरह से सब कुछ हो रहा था उसको देखते हुए जो कदम उठाया गया वह बिल्कुल सही । हिन्दी भाषा के लिए यह एग्रीगेटर काफी लोक प्रिय रहा । कम समय में जितना भी कुछ काम हुआ ब्लागवानी से उससे इसकी सफलता देखी जा सकती है । कितने ही ब्लागर दुखी है ।

परन्तु सवाल कई सारे छोड़ दिये हैं ब्लागवानी ने अपने पीछे .......................जिस तरह से तकनीक का गलत प्रयोग कर तुच्छी लोक प्रियता पाने के लिए ऐसा कार्य किया वह कतई सही नहीं है । ब्लाग जगत में जितने भी लोग शिरकत करते हैं वह सभी शिक्षित हैं पर कुछ गलत लोगों ने तकनीकी छेड़छाड़ कर यह दिन लाया है । जरूरत है आत्म मंथन करने की । आप लिखा हुआ अगर प्रभावशाली है तो आपको केवल लिखने की जरूरत है । पढ़ने वाले खु ब खुद खिचें चले आयेंगें । वैसे भी हम सभी आत्म संतुष्टी के लिए लिखते हैं ।

Sunday, September 27, 2009

दिल बोले धक धक और आपका दिल क्या बोलता है ?

दिल की बातें दिल ही जाने .............ये गीत तो आपने भी कभी सुना होगा तो जनाब होशियार दिल की बाते आप को खुद ही जानना होगा । वर्ना किसी बड़ी बीमारी की चपेट में आ सकते हैं । और ये सब बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि आज है विश्व हृदय ( दिल ) दिवस । वैसे बंधु अगर दिल की बात की जाय तो इसका एक मात्र काम है खून को पंप कर पूरी शरीर में खून पहुंचाना पर इससे परे एक बात यह कि दिल के न जाने कितने ही काम है । ये दिल कभी बोलता है " हड़िप्पा ".........तो कभी बोलता है " ये दिल मागें मोर " आपका दिल क्या बोलता है खुद से जानिये ।

दिल कविता का विषय बना तो लोगों ने दिल थाम ही लिया एक आह निकली कि क्या बात है ? बहुत खूब ............जब गीत में आया दिल तो गीतकार ने लिखा - "धक धक करने लगा मोरा जियरा डरने लगा "......... भई जिसका जो काम है अगर वो न करेगा तो आपको स्वर्गीय की उपाधि फ्री में मिलते जरा भी देर न लगेगी । वैसे बड़े ही काम की चीज है ये दिल ..........न जाने कितनी भावनाएं , कितने जज्बात , कितने दर्द है दिल में ... लोग कहते है कि सिर्फ धक धक ही करता है । हां कभी किसी हसीन को देख ये दिल धधकता है यह बेवजह तो नहीं ।

प्रेम के लिए दिल का अहम रोल होता है , प्रेमी कहता है कि उसने मेरा दिल तोड़ा .... दिल आखिर कैसे तोड़ा जा सकता है ये तो मांस का टुकड़ा है । कैसे तोड़ा ? ये तो प्यार वाले ही जाने । मुकेश ने गाया ये गाना - " दिल ऐसा किसी ने मेरा तोडा " जो आज भी सदाबहार बना है

तो ऐसे में इस दिल को बचाकर ,सभाल कर रखिये और खूब देख भाल कर ही कहीं लगाइये.... जिससे टूटे न ।

Saturday, September 26, 2009

शाम - - - कविता

शाम की छाई हुई धुंधली

चादर से

ढ़क जाती हैं मेरी यादें ,

बेचैन हो उठता है मन,

मैं ढ़ूढ़ता हूँ तुमको ,

उन जगहों पर ,

जहां कभी तुम चुपके-चुपके मिलने आती थी ,

बैठकर वहां मैं

महसूस करना चाहता हूँ तुमको ,

हवाओं के झोंकों में ,

महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारी खुशबू को ,

देखकर उस रास्ते को

सुनना चाहता हूँ तुम्हारे पायलों की झंकार को ,

और

देखना चाहता हूँ

टुपट्टे की आड़ में शर्माता तुम्हारा वो लाल चेहरा ,

देर तक बैठ

मैं निराश होता हूँ ,

परेशान होता हूँ कभी कभी ,

आखें तरस खाकर मुझपे,

यादें बनकर आंसू उतरती है गालों पर ,

मैं खामोशी से हाथ बढ़ाकर ,

थाम लेता हूं उन्हें टूटने से ,

और

चुप होकर मैं

फीकी मुस्कान लिये ,

वापस आ जाता हूँ ,

एक नयी शुरूआत करने ।। ,


अपना नाम बदल दूंगा - विज्ञापन देकर

विज्ञापन भी न जाने कैसे कैसे होते हैं ? विज्ञापन शब्द सुनते ही मुझे अखबार का वर्गीकृत विज्ञापन याद आ जाता है । मैं हमेशा ही उस पेज को देर तक देखता हूँ । क्योंकि वही एक पन्ना होता है जहां आपको फ्री हंसी मिलती है ।
कहीं पार्ट टाइम जाब के लिए मिलते हैं हर दिन ५ से १० हजार यानी महीने में ही लखपति होने का मौका । फिर मैं अपने को सोचता हूँ कि पत्रकारिता की डिग्री होने बाद भी ५ हजार मिलना भी मुश्किल हो जाता है । बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं , यहां तो आसानी से लखपति क्या बात है ?

आगे नजर बढ़ाईये तो हंसी थमती ही नहीं बचपन की गलतियां .....जी ये क्या होती है ? हमने तो बहुत की और मार भी खूब खाया पर ये वो नहीं जो हम करते थे
। बाबा खुरानी , और सन्यासी जी के द्वारा गारंटी इलाज पता नहीं इनके जाल में कौन फसंता होगा ? विज्ञापन में सबसे प्रमुख लगता है कि नाम बदल लिया है वाला विज्ञापन । बचपन की बात ताजा हो जाती है , जब हम किसी बात पर शर्त लगाते तो कहते कि अगर तुमने ऐसा किया तो हम अपना नाम बदल देंगें पर यहां तो नाम बदलना आसान नहीं । अगर नाम बदला तो विज्ञापन के साथ ।

विज्ञापन का अगल हिस्सा होता है प्रेमजाल से मुक्ति का ............... अरे भई प्रेम न हो तो जीवन भला किस काम का और ये लोगों इसे तोड़ने पर उतारू हैं । ऐसे ही कोई आसान लोन दिला रहा होता है तो कोई कीड़े , मकोड़े साफ करने वाला विज्ञापन और किसी का अंकपत्र खो गया तो किसी को जरूरत है लड़के -लड़कियों की ।
मुझे इस विज्ञापन वाले पेज में कुछ नहीं मिलता................... मिलती है हंसी ।

Friday, September 25, 2009

ये राम तो कम अच्छे हैं ना ? पहले पैसे दो तब मरूंगा- मेघनाथ ( हास्य )

नाम सुन कर अपना लोगों को कभी खुशी तो कभी दुख भी होता है । मतलब कि नाम किस लिये लिया जा रहा है , आप पर आरोप हो तो चेहरा छिपाते हैं , आप सम्मानित हो तो फिर क्या सीना फुलाये हुए फिरते हैं । नवरात्रि से दशहरा की धूम मचने लगती है , राम लीला का मंचन होता है । ऐसी ही एक रामलीला है जिसे न जाने कितने ही जगहों पर मंचित किया जाता है । भगवान को भी निर्णायक (जज ) का फैसला मानना होता है । निर्णायक हवाई यात्रा का दुर्लभ प्रयास करते हुए हनुमान की भाति अनुमान लगाते हुए अच्छे राम को ढ़ूढ़ने की कोशिश करते हैं । एक राम पर लोगों की अलग - अलग राय है । इस बार एक राम लीला में एक जज ने कहा - कि भई कुछ भी हो पर राम तो अच्छे नहीं फला वाली कमिटि के तो राम बहुत अच्छे थे । हनुमान पर भी आर्थिक मंदी की लहर दिखती है देखो कितने दुबले हैं । येभला क्या लंका जलायेंगें ?
बात भी सही जब खाने को दाल रोटी की जगह अब नमक रोटी ही मिल रही तो भला कैसे स्वास्थ्य सही हो सकता है । अशोक वाटिका में भी इस बार सारे फल गायब थे । सेब के दाम इतने अधिक थे कि सारे राक्षस ने चुराकर खा लिये । रावण भी सर पर हाथ धरे रो रहा है कि आखिर इससे तो अच्छी कमायी हो सकती थी ।



एक छोटी सी घटना रामलीला की - लक्ष्मण मेघनाथ युद्ध चल रहा था । मेधनाथ को प्रबंध ने कई महीने से सैलरी ( तनख्वाह ) न दिया था । मेघनाथ वाला कलाकार ने ठान ली कि इस बार अपना हिसाब चुकता कर ही लेना है । लक्ष्मण के हाथों मेघनाथ को मरना होता है और वह मरता ही नही
है , जल्दी दर्शक भी बोर होते हैं । तभी प्रंबधक पर्दे के पीछे से इशारा करता है कि यार जल्दी मरो । लेकिन मेघनाथ वाला कलाकार मरने से इनकार करता है कि जब तक मेरे पैसे नहीं देगें मैं नहीं मरूगा । प्रबंधक कहता कि यार अभी दे दूंगा । मेघनाथ नहीं मानता । कहता कि पहले पैसे दीजिये तभी मरूंगा। प्रबंधक हार मानकर पर्दे के पीछे से रूपयों की गड्डी दिखाता है । और कहता कि पहले यहां पर मर जाओफिर पैसे ले लेना लेकिन मेघनाथ को अपने प्रबंधक पर जरा भी यकीन नहीं था । इसलिए मेघनाथ कहता है कि लक्ष्मण आप अभी रूको मैं पहले सैनिकों से लड़कर आता हूँ फिर आपसे युद्ध करता हूँ ।और फिर अपने पेसे लेता है और मरता है ।

वत्स को मारो गोली ..........फिर पर्दा गिराओ न ( हास्य )

रामलीला के मंच पर सीता स्वयंवर का दृश्य चल रहा था । भगवान शंकर का धनुष रखा था , इस धनुष को कोई राजा न उठा पा रहा था । रावण को भी यही अभिनय करना था । मगर उस दिन रावण का अभिनय करने वाले कलाकार का प्रबंधक से झगड़ा हो गया । वह राम लीला बिगाड़ने पर तुला था । रावण ने धनुष उठाकर तोड़ दिया और हुंकार लगाई - अरे जनक मैंने इस धनुष को तोड़ दिया बुला सीता को । मंच पर सभी कलाकार आश्चर्यचकित थे । तभी जनक का अभिनय करने वाले पात्र ने कहा - अरे मूर्खों ये कौन सा धनुष ले आये हो , असली शिव धनुष तो अन्दर रखा है । इसके बाद पर्दा गिरा ।
एक कस्बे की दूसरी घटना - लक्ष्मण मूर्छा में थे , राम मूर्छित लक्ष्मण को अपनी गोद में रखकर विलाप कर रहे थे , हनुमान जड़ी बूटी लाने गये थे । उनके आने में विलंब हो रहा था । राम बने कलाकार का संवाद खत्म हो चुका था पर हनुमान नहीं आये । दर्शक बोर होने लगे थे । फिर भी हनुमान नहीं आये । दरअसल हनुमान ऊपर रस्सी से बंधे हुए इस प्रतीक्षा में थे कि पर्दे के पीछे से रस्सी ढ़ीली हो तो वे उड़ने का अभिनय करते हुए धीरे- धीरे नीचें उतरें । मगर रस्सी उलझ गयी और वह सुलझ नहीं पा रही थी । तब रस्सी पर तैनात व्यक्ति को यह आसंका हुइ कि अधिक देर होने पर दर्शक शोर करने लगेंगें । इस परिस्थिति में उसे यही सूझा कि रस्सी काट दी जाय । उसने रस्सी काट दी । रस्सी कटते ही हनुमान धम्म से मंच पर आ गिरे । मंच पर बैठे कलाकार को कुछ चोटें आयी । हनुमान बना कलाकार क्रुद्ध हो गया । राम ने हनुमान से कहा - वत्स हनुमान , बहुत विलंब कर दिया । हनुमान बने कलाकार ने आवेश में आकर बोला - वत्स को मारो गोली , पहले ये बताओ रस्सी किसने काटी । यह सुनकर दर्शक लोट-पोट हो गये । फिर पर्दा गिरता है ।

Thursday, September 24, 2009

बस उतना ही नही ...

माँ !
मैं जब भी देखती हूँ
ख़ुद को सीढियाँ चढ़ते
और दूसरी तरफ़
तुम्हें ढलान से उतरते हुए
तो _मेरी तड़प का अवसान
एक कर्तव्य बोध मेंहोता है ।
माँ !
मैं जरा उच्च स्वर से पाठ करुँगी
ताकि तुम भी सुनो
इस बेसुरे गले से सिर्फ़ गीत ही नहीं निकलते
आतताइयों के खिलाफ
चिंगारी भी निकलती है ।
माँ !
एक गुजारिश है तुमसे
अपने गुजारे गए जीवन का एक अंश
मुझे भी जानने दो
थोडी सी भभक मुझे भी दो
कि _ मैं जला कर राख कर दूँ उन्हें

जिससे आने वाली माँ ओं को
न गुजरना पड़े
तुम्हारे गुजारे गए जीवन से _ _ _



प्रस्तुति - मधु

Tuesday, September 22, 2009

ताकि आगे ऐसा न हो .........................

हरियाणा के जिले रोहतक के एक गांव में एक लड़की ने अपने ही प्रेमी के साथ मिलकर अपने ही परिवार के सात लोगों की हत्या कर दी । लड़की का परिवार उसे अपने प्रेमी के साथ शादी करने की इजाजत नहीं दे रहा था , वजह थी कि वे दोनों एक ही गोत्र के थे । विवाह न हो पाने की स्थिति में लड़की नें एक अतिवादी कदम उठाया । पर लड़की के इस अपराध को किसी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है । लेकिन यहां लड़की के गुनाह को देखने के लिए सामाजिक परिवेश को देखना जरूरी है । जिसने उस लड़की को इस स्थिति में ला दिया को वह ऐसा कुछ करने को तैयार हुई ।

हरियाणा में पिछले कुछ समय से एक ही गोत्र में विवाह को लेकर कई मामले जिसकी बहुत ही दुखद परिणति हुई । कई गांवों में गोत्र विवाद को लेकर या तो प्रेमी को मौत के घाट उतार दिया गया या प्रेमी की हत्या कर दी गयी । राज्य की जाति या खाप पंचायतें किसी भी तरह से ये प्रेम विवाह को रोकने में जुटी हैं और वे इस के लिए तमाम नियम कानून और मानवीयता की धज्जियां उड़ा रही हैं । और दुर्भाग्य की बात ये है कि प्रशासन तब तक हाथ पर हाथ धरे रहता है जब तक कि कोई दुर्घटना न घटित हो जाये ।

राजनीति से जुड़े लोगों में सामजिक मूल्यों की जड़ता को बदलने की दृढ़ इच्छाशक्ति ही नहीं है । अगर इसी तरह संगगोत्रीय विवाह हुए तो समाज में अराजकता फैल जायेगी । ऐसा इन पंचायतों का तर्क है । वैसे ये पंचायतें पुराने समय से चली आ रही हैं और अपने तरीके से समाज को चलाना चाहती हैं । समाज में कितना कुछ बदल गया है पर ये पंचायतें कुछ भी स्वीकार नहीं करना चाहती है । शिक्षा से गांवों की भी विचारधारा बदली है एक गोत्र अब ज्या मायने नहीं हैं । मोबाइल आज सभी कि पहुंच में है जिससे सुविधाएं बढीं है । और कुल मिलाकर एक खुला माहौल चाहता है आज का युवा । ऐसे में सत्य को स्वीकार करना होगा जिससे ऐसी घटनाएं कम हो सकें ।

Sunday, September 13, 2009

हिन्दी बोले हाय हाय

हिन्दी दिवस पर हिन्दी की हाय आखिर क्यों ? जिसे देखिये वहीं अपनी तान अलापे हैं । अपना अपना तर्क दिये जा रहें हैं । भाषा रो रही है और हम हंस रहे हैं कि अच्छा एक नया मुद्दा तो मिला । बात चिंता करने वालों की हो रही है ......जैसे किसी को नींद से जगा दिया गया हो और वह भौचक्का होकर सब कुछ देखने और समझने की कोशिश कर रहा हो । आज के दिन चाहे समाचार पत्र को देखिये चाहे ब्लाग को देखिये , और चाहे सड़क पर लगे बड़े बड़े विज्ञापन को देखिये सभी हिन्दी के साथ खड़े नजर आ रहें । सुबह का अखबार खोला तो मुंह सूख गया कि आखिर आज ये उदासीनता कैसे? हिन्दी दिवस पर भी कोई प्रचार नहीं कोई , विज्ञापन नहीं । ऐसा कैसे हो सकता है ?

अखबार के पन्नों को पलटते-पलटते आखिर में वह पृष्ठ भी आया कि जहां आज हिन्दी का रोना रोया जा रहा है । सभी तरह बधाईयों के विज्ञापन देख क्षणिक खुशी से मन तृप्त हो जाता है परन्तु कुछ पल बाद यह आशा निराशा में बदल जाती है । जिसको खुद कभी हिन्दी में बात करते , काम करते नहीं सुना , देखा वह भी आज के दिन सीना फुला कर हिन्दी हिन्दी कर रहा है । वैसे यह क्षणिक जागरूकता अगर स्थाई होती तो आज इस तरह हिन्दी एक दिवस मात्र के लिए मोहताज न होती ।

अंत में बस यही कहना है कि हम खुद से आज के बाद हिन्दी का कितना प्रयोग करते हैं और इसके बढ़ावे केलिए क्या करते हैं ? यही मुख्य बात रहेगी । जय हिन्द , जय हिन्दी

Saturday, September 12, 2009

खिचड़ी हो गयी है आज हिन्दी की

आज खिचड़ी की याद ताजा हो गयी । किसी भी दफ्तर में जाओं या किसी संस्था में वहां शुद्ध भाषा ( हिन्दी ) का प्रयोग गुनाह हो गया है । जब तक एक वाक्य में चार पांच इंग्लिश के शब्द नहीं बोलते सामने वाला मुंह बाये ऐसा देखता है जैसे वह कुछ सुन ही न पा रहा हो और कुछ भी समझने में पूरी तरह से असमर्थ हो । तो इस तरह हो रहा है हिन्दी भाषा का विकास । वैसे हमेशा से यह प्रश्न उठता रहा कि विदेशी भाषा की वजह से हिन्दी की यह दशा है । परन्तु यदि देखा जाय तो कोई भाषा के विकास को तभी देखा जा सकता है जब समयानुसार अपने आपको बदल ले । और ऐसी ही भाषा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच पाती है । साथ ही ऐसे में कई भाषाएं बीच में ही दम तोड़ देतीं हैं । तो किसी भाषा विशेष से जलन या ईष्या रखना किस तरह से उचित होगा ? वैसे आमतौर पर हम वही भाषा अपनाना चाहते हैं जो आसान और प्रयोग रूप से सरल हो । तो ऐसें में अंग्रेजी सबसे आसान दिखती है ।


समय के साथ हिन्दी का चलन भी बदला , हिन्दी ने अपने विकास के लिए अंग्रेजी भाषा की शरण ली । और जो वर्तमान बोली जाने वाली हिन्दी है वह हिन्दी अंग्रेजी का मिला रूप ( हिंग्लिश ) है । वैसे यहां पर हिन्दी के गिरते स्तर के लिए कई प्रमुख बातें जिम्मेदार हैं - हम वैश्विक भाषा को काम काम तक सीमित न करने जीवन के एक अंग बना लिये हैं , जैसे इसके बगैर जीवन न चल सकेगा । साथ ही एक स्तर को रूप में हम हिन्दी को हीन भाषा समझते हैं । वैसे तो सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा जरूर हिन्दी है पर जिस स्थान पर हिन्दी है वह हमारे लिये सुखद नहीं कहा जा सकता है । परन्तु इसके बाद भी जरूरी यह है कि हम किसी और भाषा से तुलना न करें और न ही ईष्या - द्वेश बल्कि प्रयास करें हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए । कुछ लोग कहते हैं आखिर किस प्रकार हम ये कार्य कर सकते हैं तो सीधा सा जवाब है - कि हम खुद से ही शुरूआत करें और परिवार तब ये बात बढ़ायें धीरे - धीरे ही परिवर्तन संभव होगा । कल यानी १४ सितंबर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है और एक साल के लिए हम हिन्दी को भुल जाते हैं । इसीलिए यह दिन बनाया गया ताकि याद रहे ।

Friday, September 11, 2009

प्रश्नचिन्ह तो लगाना था ?? बचाव क्या

आज सीबीआई जैसी संस्था पर प्रश्नचिन्ह लगना जायज है । कारण स्पष्ट है , जहां हम नाकामयाब होते हैं वहां जरूरत पड़ती है ऐसी संस्थाओं की । परन्तु आप कुछ प्रमुख घटनाओं पर नजर डालें तो सीबीआई भी आम रेलगाड़ियों की तरह ही रो धोकर चल रही है । बीते करीब दो सालों में तीन सौ से अधिक मामलों में सीबीआई नाकाम रही है । और साथ ही जो मामले सीबीआई के पास है उसका निबटारा कब होगा पता नहीं ? अयोध्या मामले पर बना कमीशन जब अपनी रिपोर्ट सरकार तो सौंपता है तो वो भी बड़े गर्व से जबकि तीन महीने की रिपोर्ट को देने में १८ साल लगते हैं । यह हमारी व्यवस्था पर एक सवाल है , सवाल उठता विश्वनियता पर ।

मुख्य मुद्दा निठारी कांड की बात की जायें तो जो माना जा रहा था वही हुआ । सीबीआई ने तो पहले ही अपना समर्पण कर दिया था । आखिरकार पढ़ेर को बरी किया गया । दूसरा मुद्दा आरूषि मर्डर केस पर सीबीआई ने जो किया वह असफलता को इंगित करता है । साल साल बीतते जाते हैं और जांच वहीं की वहीं धरी रह जाती है आखिर क्या ऐसी संस्था को उच्च स्तर की सुविधा और कार्य इसी लिए सौपा जाता है कि ये अपनी मनमानी करें । जनता के प्रति कौन जवाबदेह होगा ? सरकार तो हमेशा यह कह कर पल्ला झांड लेती है कि जांच चल रही है । और होता भी वही है परन्तु कोई हल नहीं निकलता है ।

तीसरा मुद्दा है किडनी रैकेट मामला उमें भी सीबीआई कुछ खास दिलचस्पी नहीं ले रही है । जिससे अपराध करने वाले सीना फुलाये घूम रहे हैं । और चौथा मामला एसीपी राजवीर हत्याकण्ड जिसमें सीबीआई क्या कर रही है कुछ पता नहीं ?

जिस प्रकार से हम सीबीआई को देखते हैं सुनते हैं वह उसके विपरीत ही दिखाई पड़ रही है । जांच समिति बदल के क्या होगा इसका जवाब क्या इस संस्था के पास है ? जवाब यही मिलेगा कि हां हम प्रयास कर रहे हैं । अदालत में सबूत के आभाव में अपराधी बरी हो रहें हैं फिर से ऐसे गुनाह के लिए अपनी आजमाइश कर रहें हैं । समाज में कुछ बदलाव एक दिन में नहीं होता पर ऐसे ही अगर ये उच्च स्तरीय संश्थाएं कार्य करती रही तो न्यायपालिका भी कुछ न कर सकेगी ।

Wednesday, September 9, 2009

" निबंध प्रतियोगिता सूचना "

हिन्दी साहित्य मंच इस बार हिन्दी दिवस को ध्यान में रखते हुए एक निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन कर रहा है । निबंध प्रतियोगिता का विषय है - "" हिन्दी साहित्य का बचाव कैसे ? "


निबंध ५०० से अधिक शब्दों का नहीं होना चाहिए । हिन्दी फाण्ट यूनिकोड या क्रूर्तिदेव में ही होना चाहिए अन्यथा स्वीकार नहीं किया जायेगा । निबंध प्रतियोगिता हेतु आप अपनी प्रविष्टियां इस अंतरजाल पते पर भेंजें- hindisahityamanch@gmail.com. प्रतियोगिता की अन्तिम तिथि है १३ सितंबर निर्धारित है । इसके बाद की प्रविष्टियां नहीं स्वीकार होगी । प्रतिभागी अपना स्थायी पता और संपर्क सूत्र अवश्य ही दें । विजताओं की घोषणा १४ सितंबर की शाम को की जायेगी । विजेता को एक प्रशस्ति पत्र और ५००, ३०० और २०० का इनाम दिया जायेगा ।

Tuesday, September 8, 2009

ओये होये ...ओये होये ...हो गये न सौ दिन , आखिर हो गया शतक ( व्यंग्य )

ओये होये ......ओये होये , हो गये ना ...............आखिर हो गये ना पूरे सौ दिन । हो गयी सेंचुरी , लहरा लहरा कर यूपीएअपना बल्ला लहरा रही है पर दर्शक दीर्घा मूक बनी है । आखिर वह कैसे उत्साहित हो , कैसे खुशी मनाये ?

सरकार ने टी-२० के फार्मेट में अपनी दूसरी पारी में सौ दिन वाली पारी की शुरूआत की पर वह जानती है कि यह टेस्ट खेल रही है । उसकी परीक्षा १०० दिन की नहीं है बल्कि कई प्रमुख समस्याओं से है जिसमें सरकार की पूरी परीक्षा ली जायेगी ।

इस शतक के दौरान सूखा देखा , महंगाई देखी , प्रधानमंत्री की शर्म - अल - शेख की शर्म भी देखी , उत्तर प्रदेश की राजनीतिक जंग देखी । सरकार जिस तेजी से दौड़ रही है उसका कारण है कि लेफ्ट वाला ब्रेकर इस बार नहीं है , सिग्लन हरा है । वैसे सरकार ने मैदान पर चौके , छक्के तो न लगा सकी पर धीरे- धीरे किसी तरह से अपना विकेट बचाकर टिकी है ।

नारेगा को ही सरकार ने मूलमंत्र बनाया है जिससे वह दुबारा पारी की शुरूआत करने में सफल हुई । और नारेगा पर ही जान दे रही है देश , सूखा , महंगाई के बीच दम तोड़ रहा है ऐसे में सौ दिन का ढ़िढोरा पीटने से काम न चलेगा । जरूरी है कि इन विषयों पर गहनता से विचार किया जाये ।

Monday, September 7, 2009

आखिर कहां खो गयी हिन्दी लेखनी की ताकत ? एक प्रश्न है

रविवार का दिन छुट्टी का दिन होने के नाते कुछ नया या अलग यानी मौज मस्ती में बिताना एक नया चलन है दिल्ली जैसे शहर का , वजह भी साफ ही है कि सप्ताह भर आफिस और नौकरी की टेंशन को भुलाने के लिए ये चंद घंटे ही सप्ताह भर के लिए दवा स्वरूप होते हैं । ये उन लोगों के लिए है जो है । हमारे जैसे बेरोजगार के लिए रोज ही संडे होता है । तो फिर रोज ही छुट्टी का दिन चाहे जितना घूम टहलो या मौज करो । परन्तु इस रविवार को खास बनाने के लिए कुछ खुराफात सूझी तो सोचा क्यों न चलकर प्रगति मैदान में पुस्तक मेले का लुत्फ उठाया जाय । साहित्य से जुड़ी हुई कुछ नयी पुस्तकें भी शायद मिल जाये ।

रेडियो और टी वी के माध्यम से प्रचार किया गया था कि करीब १९ हजार लेखक की कृतियां एक छत के नीचें ही मिल रही हैं ऐसे में उत्साह काफी बढ़ना जायज है । पुस्तक मेले में जाकर उत्साह ठंडा तब पड़ गया जब मैंने वहां हिन्दी साहित्य के कुछ की दुकानें देखी और उन दुकानों पर वहीं पुस्तकें उपलब्ध थी जिसे मैं बचपन से पढ़ते या फिर उनके बारे में सुनता आ रहा हूँ । आखिर क्या आज ऐसे लिखने वाले नहीं जो कि वर्तमान हिन्दी साहित्य को उस स्तर तक ले जा सके ।दूसरी दुखद बात यह कि हिन्दी साहित्य को जो सहायता मिलनी चाहिए वो आज नहीं मिल रही है । कुछ देर ऐसे ही घूमना हुआ फिर वापस अपने आशियाने में । परन्तु यह प्रश्न छोड़ गया यह मेला कि आखिर क्यों हम साहित्य में स्तरीय साहित्य कार नहीं दे पा रहे हैं ?

Friday, September 4, 2009

बंद करता हूं जब आंखे

बंद करता हूं जब आंखे

सपने आखों में तैर जाते हैं ,

जब याद करता हूँ तुमको

यादें आंसू बनके निकल जाती हैं ,


ये खेल होता रहता है ,

यूं हर पल , हर दिन ही ,

तुम में ही खोकर मैं ,

पा लेता हूँ खुद को ,

जी लेता हूँ खुद को ,



बंद करता हूँ आंखें तो

दिखायी देती है तुम्हारी तस्वीर ,

सुनाई देती है तुम्हारी हंसी कानों में,

ऐसे ही तो मिलना होता है तुमसे अब।।



बंद कर आंखें देर तक,

महसूस करता हूँ तुमको ,

और न जाने कब

चला जाता हूँ नींद के आगोश में ,

तुम्हारे साथ ही ।।

Thursday, September 3, 2009

मीडिया की गोद में चलती है ज्योतिष की दुकान -आलेख ( रेखा .के .मेहता )

कंचन कामिनी की चाहत तो सभी को होती है , कंचन अर्थात सोना, धन दौलत , कामिनी इन्द्रिय अथवा भौतिक सुख-कीर्ति यानि यश , मान सम्मान । देखआ जाये तो सारी दुनिया ही इस कंचन , कामिनी कीर्ति के आसपास घूमती है । हर आदमी अपने- अपने तरीके से इनको हासिल करने का प्रयास करता रहता है । मजा तब आता है जब यह तीनों चीजें एक जगह सिमट जाती हैं आदमी अपने एक प्रयास से तीनों को हासिल करता है आजकल यही तीनों टेलीविजन मीडिया में सिमट गये हैं ।क्या बड़े नेता , क्या अभिनेता , क्या खास आदमी और क्या आम आदमी , बच्चे , औरत , बूढ़े सभी का लक्ष्य टेलीविजन मीडिया है । पहले बच्चों को परम्परा , स्कूली ज्ञान आदि सिखाया जाता है , लेकिन बच्चा जरा बड़ा हुआ कि मां बाप इस कोशिश में लग जाते हैं कि जल्दी से जल्दी हमारा बच्चा विश्व विख्यात हो । वह यह भूल जातें हैं कि अनके मौलिक ज्ञान का हास हो रहा है । बहरहाल हम दुनिया की और बातें करें । और बातें तो और लोग भी कर सकते हैं । हम ज्योतिषियों से जुड़ी बातें करते हैं । इसलिए कि ज्योतिष को भी अपना लक्ष्य टिलीविजन , मीडिया में सिद्ध होता दिखाई दे रहा है । देव, देवियां और क्या कांतिलाल , क्या बाबूलाल सभी टौलीविजन की गोद में जा बैठे हैं । इस टिलीविजन मीडिया का दुलार उन्हें ऐसा रास आया है कि वह ज्योतिष की भाषा भूलकर टेलीविजन की भाषा बोलने लगें हैं । अच्छे विश्व प्रसिद्ध ज्योतिष आजकल टी.वी पर ज्योतिष सामग्री - नग धड़ल्ले से बिकवा रहे हैं । शायद ज्योतिष से भी अच्छा मुनाफा उन्हें दुकानदारी से होगा तभी वे ऐसा कर रहे हैं । इसमें सामग्री विक्रेता , टेलीविजन और ज्योतिष तीनों का भरपूर फायदा है । जरा भी नुकसान नहीं । खरीदने वाले को इसका कितना फायदा या नुकसान होगा वह खरीदनेवाला ही जाने। टेलीविजन पर खुलेआम ज्योतिष के सिद्धान्तों की धज्जियां उड़ायी जाती है और देखने वालों को ऊलजलूल मगर आकर्षक भाषा में परोस दी जाती है । अगर कहीं एक दो भूल हो तो गिनवा भी दें । यहां तो आग का दरिया है और डूब के जाना है । इस तरह से टी.वी चैनल ने काफी संख्या में ऐसे बाबाओं की खुली भर्ती करते हैं जो ऐसा कर सके और दुकान ठीक से चला सके ।

।बीते लम्हें हमे याद आते हैं।।

बीते हुए पल की याद हमें सताती है ,

क्योंकि कुछ अच्छे तो कुछ बुरे

वक्त के आगोश में लिये मुस्कराती है ।

बीते हुए पल लौट के नहीं आते ,

बिताये हुए पल कभी भुलाये नहीं जाते ,

ये पल ये लम्हें हैं साथी मेरे,

क्योंकि ये वे पल हैं जो कभी भुलाये नहीं जाते ।।

गुजरे हुए पल याद आते हैं हमें ,

कुछ लम्हों से आंखों में आंसू आ जाते हैं मेरे ,

बीता हुआ पल भी बीत के मेरे साथ है ,

इस सूनी जिंदगी में तो वही आस है ।।

कौन कहता है कि दूर है हमसे वो पल ,

हम अब भी उस पल के सहारे जिया करते हैं ,

क्या हुआ जो चला गया वो पल ,

हम अब भी उस पल की यादें सजोया करते हैं ।।

बीते हुए पल की यादें हमें सताती हैं ।।



प्रस्तुति - मिथिलेश