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Tuesday, September 29, 2009

प्रिये - कविता

प्रिये ,

आज तुम फिर क्यों ?
इतनी देर से आयी हो ,

तुम्हारे इंतजार में मैंने
कितने ही सपने सजाये
पर तुम्हारे बगैर ये कितने
अधूरे से हैं ।

मैंने तो कितनी ही बार
तुमसे शिकायत की
पर
तुमने हमेशा ही अपनी
मुस्कुराहट से ,
जीत लिया मुझे,
तुमसे इस तरह तुम्हारी शिकायत करना
अच्छा लगता है मुझे ,

प्रिये,

तुम्हारा इंतजार करते- करते

मैंनें बंद कर ली थी आंखें,
बंद आंखों में तुम्हारी
यादे तैरने लगी थी ,

एक उम्मीद थी कि

शायद इन यादों के साथ

नींद के आगोश में
समा जाऊं मैं ,

करवटें बदल- बदल कर
कोशिश की थी ,
रात भर सोने की
पर
सफल न हो सका था ।

कमरे के दरवाजे से
मंदिर के जलते दिये
की रोशनी ,
चांद की किरणों को
मद्धम कर रही थी ,
मैं तो चुपचाप ही ये
खेल देख रहा था ।

ऐसे में हवा के एक झोंके ने,
बुझा दिया था इस रोशनी को ,
जिसे देख मैं इंतजार कर रहा था तुम्हारा,
उस झोंके ने कोशिश की थी
मेरे विश्वास को तोड़ने की ,
पर मुझे पता है कि
तुम आओगी जरूर प्रिये ,
पर
देर से ही
और मैं
तुमसे करूंगा ढ़ेर सारी
शिकायतें
तुम चुप रह कर सुनती रहोगी
फिर
मुस्कराकर मेरा दिल जलाओगी

प्रिये ,


तुम्हारी ये अदा
मुझे सताती है ,
मेरे दिल को भाती है
इसलिए तो
तुम्हारा इंतजार करना
अच्छा लगता है ।

2 comments:

दर्पण साह said...

prem ka akatya satya...
तुम्हारा इंतजार करना
अच्छा लगता है ।

:)

राज भाटिय़ा said...

तुम्हारी ये अदा
मुझे सताती है ,
मेरे दिल को भाती है
इसलिए तो
तुम्हारा इंतजार करना
अच्छा लगता है ।
ओर आप का लिखना भी तो अच्छा लगता है