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Monday, September 7, 2009

आखिर कहां खो गयी हिन्दी लेखनी की ताकत ? एक प्रश्न है

रविवार का दिन छुट्टी का दिन होने के नाते कुछ नया या अलग यानी मौज मस्ती में बिताना एक नया चलन है दिल्ली जैसे शहर का , वजह भी साफ ही है कि सप्ताह भर आफिस और नौकरी की टेंशन को भुलाने के लिए ये चंद घंटे ही सप्ताह भर के लिए दवा स्वरूप होते हैं । ये उन लोगों के लिए है जो है । हमारे जैसे बेरोजगार के लिए रोज ही संडे होता है । तो फिर रोज ही छुट्टी का दिन चाहे जितना घूम टहलो या मौज करो । परन्तु इस रविवार को खास बनाने के लिए कुछ खुराफात सूझी तो सोचा क्यों न चलकर प्रगति मैदान में पुस्तक मेले का लुत्फ उठाया जाय । साहित्य से जुड़ी हुई कुछ नयी पुस्तकें भी शायद मिल जाये ।

रेडियो और टी वी के माध्यम से प्रचार किया गया था कि करीब १९ हजार लेखक की कृतियां एक छत के नीचें ही मिल रही हैं ऐसे में उत्साह काफी बढ़ना जायज है । पुस्तक मेले में जाकर उत्साह ठंडा तब पड़ गया जब मैंने वहां हिन्दी साहित्य के कुछ की दुकानें देखी और उन दुकानों पर वहीं पुस्तकें उपलब्ध थी जिसे मैं बचपन से पढ़ते या फिर उनके बारे में सुनता आ रहा हूँ । आखिर क्या आज ऐसे लिखने वाले नहीं जो कि वर्तमान हिन्दी साहित्य को उस स्तर तक ले जा सके ।दूसरी दुखद बात यह कि हिन्दी साहित्य को जो सहायता मिलनी चाहिए वो आज नहीं मिल रही है । कुछ देर ऐसे ही घूमना हुआ फिर वापस अपने आशियाने में । परन्तु यह प्रश्न छोड़ गया यह मेला कि आखिर क्यों हम साहित्य में स्तरीय साहित्य कार नहीं दे पा रहे हैं ?

4 comments:

राज भाटिय़ा said...

नीशू भाई घुम आओ लेकिन पहले इस गलती को ठीक कर दो ... नही तो सब चोंकेगे मेरी तरह.."रडियों और टी वी के" रेडियो शव्द की जगह आप ने कुछ ओर ही लिख दिया है

Mithilesh dubey said...

आपकी चिन्ता जायज है।

Udan Tashtari said...

निश्चित विचारणीय!

Unknown said...

सर जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।