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Sunday, April 18, 2010

तस्वीर .....(कविता) ..नीशू तिवारी

मंदिरों की घंटियों की गूँज से ,
शंखनाद की ध्वनियों से

वीररस से भरे जोशीले गीत से
नव प्रभात की लालिमा ली हुई सुबह से ,
कल्पित भारत वर्ष की छवि
आँखों में रच बस जाती है
लेकिन
नंगे बदन घूमते बच्चों को ,
कुपोषण और संक्रमण से जूझती
गर्भवती महिला को
और
चिचिलाती धुप में मजार पर बैठा
गंदे और बदबूदार उस इन्सान को
तो बदल जाती है
आँखों में बसी तस्वीर ,
फिर सोचता हूँ
इस भीड़ तंत्र के बारे में ,
जो
व्यवस्था और व्यवस्थापक के बीच
लड़ रहा है
दो जून की रोटी को ,
तब
बदल जाती हैं परिभाशायें
जो समझाती है
आकडे की वास्तविकता को
जिसमें सच नहीं
झूठ का पुलिंदा बंधा है हमारे लिए
महसूस करता हूँ
दर्द और कलह की वेदना को,

सुख और दुःख के फासले को
जो दिखा रहा है दर्पण
तमाम झूठी छवियों का ,
जिसमे असंख्य प्राणियों के
संघर्ष को बेरहमी से कुचल दिया जाता है
क्यूँ की
दर है तानाशाहों को
की कही न हो जाये पैदा
और खतरे में न पड जाये आस्तित्व
इसलिए
इनको ऐसे ही जीने दो ...

Wednesday, April 7, 2010

एक जवान = १० लाख (हो सकता है ये भी न मिले ) .....सरकार aap सो जाओ


नक्सलियों द्वारा सेना पर हुआ हमला पूरी तरह से नियोजित था .....लेकिन क्या ऐसी चूक हुई की देश के सबसे बड़े हमले को रोका न जा सका ....सरकार ने नक्सल समस्या से निबटने के लिए भले ही अभी तक लाख कोशिशे की हो लेकिन इस वारदात से हकीकत सामने आ गई और सरकार की पोल खुल गयी....नक्सल समस्या को अगर सर्कार आतंकवाद की तरह देखेगी तो शायद ही आसानी से इससे निबटा जा सके .....वैसे तोः बातचीत के रस्ते अब बंद ही होते जा रहे हैं ऐसे में अब नक्सल समस्या को कैसे ख़तम किया जायेगा .....
भारत के लगभग २२ राज्यों में यह समस्या अपने पांव पसर चुकी ह...जिसमे युवा वर्ग अपनी भागीदारी दे रहा वहहै .....या ये कहना गलत न होगा की आने वाला समय और भी भयानक होने वाला वहहै जिसके लिए हम सभी तैयार रहे .......
७६ जवान को हम आज खो चुके हैं यानी एक जाने की कीमत १० लाख रुपया .....सरकार तो किसी भावनात्मक पहलु की तरफ ध्यान न देगी लेकिन जिसने अपना पति , और जिसने अपना बेटा खोया वहहै आखिर आज उसके पासक्या वहहै इस्सका जवाब .........हम तो खबर पढ़ कर भोल जायेगे लेकिन जिसने अपना सब कुछ खोया वहहै उसकी भर पाई कौन और कैसे करेगा ? यह सवाल हर हमले के बाद आता वहहै लेकिन हमले से पहले कभी नहीं ? साडी की साडी रणनीति बेकार हो जाती वहहै जब हम सफल नहीं होते ......आम जनता तो ऐसे ही मरती वहहै और मरती रहेगी लेकिन ऐसी समस्या की जिम्मेदारी कौन लेगा ? और हाँ क्या हम परिवारों के चिराग को वापस कर सकते वहहै ? सबसे महतवपूर्ण सवाल यही हैं ..सर्कार से हम अब क्या उम्मीद करें ? बार बार हमले होने क बाद भी जब सोई हुई वहहै ........कुलमिला कर एक जवान बराबर १० लाख अगर मिले तो क्यों की यह जरुर भी भी नहीं है ...

Tuesday, April 6, 2010

कल रात नींद न आई

कल रात नींद न आई
करवट बदल बदल कर
कोशिश
की थी सोने की
आखें खुद बा खुद भर आई
तुम्हारे न आने पर
मैं उदास होता हूँ जब
भी
ऐसा ही होता है मेरे साथ
फिर जलाई भी मैंने माचिस
और
बंद डायरी से निकली थी तुम्हारी तस्वीर
कुछ ही देर में बुझ गयी थी रौशनी
और उसमे खो गयी थी
तुम्हारी हसी
जिसे देखने की चाहत लिए मई
गुजर देता था रातों को
सजाता था सपने तुम्हारे
तारों के साथ
चाँद से भी खुबसूरत
लगती थी तुम
हाँ तुम से जब कहता ये
सब
तुम मुस्कुराकर
मुझे पागल
कहकर कर चिढाती थी
मुझे अच्छा लगता था
तुमसे यूँ मिलना
जिसके लिए तुम लिखती ख़त
लेकिन
कभी वो पास न आया मेरे
और जिसे पढ़ा था मैंने हमेशा ही