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Sunday, October 11, 2009

आज तुम फिर मुझसे खफा हो .........जानता हूँ मैं

आज तुम फिर खफा हो मुझसे,

जानता हूँ मैं,

न मनाऊगा तुमको,

इस बार मैं।

तुम्हारा उदास चेहरा,

जिस पर झूठी हसी लिये,

चुप हो तुम,

घूमकर दूर बैठी,

सर को झुकाये,

बातों को सुनती,

पर अनसुना करती तुम,

ये अदायें पहचानता हूँ मैं,

आज तुम फिर खफा हो मुझसे,

जानता हूँ मैं।

नर्म आखों में जलन क्यों है?

सुर्ख होठों पे शिकन क्यों है?

चेहरे पे तपन क्यों है?

कहती जो एक बार मुझसे,

तुम कुछ भी,

मानता मै,

लेकिन बिन बताये क्यों?

आज तुम फिर खफा हो मुझसे,

जानता हूँ मै।।

Saturday, October 10, 2009

ब्लागरों की कडवाहट कम होती है क्या ? अगर नहीं तो खिलाओ जलेबी पर वीडियों कैमरे से दूर होकर .......

कडवाहट इतनी बढ़ गयी है कि अब तो मिलना ही होगा .........पर भाईयों मेरे पास न तो वीडियो कैमरा है और न ही कोई ऐसा इलेक्ट्रानिक उपकरण जिससे आपकी फोटो या वीडियो बनाया जा सके ...........क्योंकि कुछ लोगों ने मिलने के लिए ये उपकरण की अनिवार्यता पर जोर दिया था । अरे हां आप ये ना समझिये कि आपका स्टिंग आपरेशन या कोई ऐसी क्लिप बनायी जा रही है जो कि सार्वजनिक करने पर आपका कोई फायदा या नुकसान होना वाला है । दुबे जी ने जलेबी समारोह कर एक नयी पहल की है जहां पर आप अपने गिले शिकवे में मिठास घोल सकते हैं । हम सभी एक मंच पर होते हुए भी अपनी बात को सही तरीके से नहीं कह पा रहे हैं ..................या यों कह लीजिये कि कहना ही नहीं चाहते । वैसे एक कहावत है कि " जब एक टोकरे में कई बर्तन होगें तो खनकने की आवाज तो आयेगी ही " । तो बंधुओं खनखनाहट तक बात समझ में आती है लेकिन जब टकराहट होती है तो स्थिति पूरी तरह से बदल जाती है । ऐसे में आपस में बातचीत करके ही मसले को सुलझाया जाना चाहिए ।

ऐसे में एक शेर अर्ज है -
" मत पूंछ क्या हाल है ? मेरा तेरे आगे

ये देख क्या रंग है ? तेरा मेरे आगे ।।

विचारों को सम्मान देना हम सभी हो सीखना होना और जो सीखे सिखाये हैं उन्हें इसका पालन करना होगा तभी तो हम आपस में भाईचारा कायम कर सकेंगें । तू तू मैं मैं का दौर अब बंद करना होगा और यह मर्यादित ब्लागर की भूमिका अदा करना होगा ।

Friday, October 9, 2009

तड़का लगा हेडिंग का ................................पर लेखन में मसाला कहां है ब्लागर बंधु ............???????? क्या कहते हो ?

भई कुछ लोगों को आजकल गुटबंदी का शौक चर्राया है मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं है । आपका विचार जिस भी तरह का हो उससे प्रेरित लोग आप से जुड़ेंगे । लेकिन गुटबंदी का सबसे बड़ा दुस्प्रभाव तब नजर आता है जब किसी एक ब्लागर के खिलाफ इसका प्रयोग किया जाता है । वैसे सच लिखना , कहना और सुनना वाकई मुशकिल होता है । कभी कोई कोशिश भी करता है तो कुछ एक ब्लागर अपना अस्त्र-शस्त्र लेकर युद्ध को तैयार होते हैं ।

ऐसे में मुझे तो किसी प्रकार की दुविधा नहीं होती है लेकिन देखा जाना चाहिए कि आखिर ऐसे कुतर्कों और व्यंग्यों की जरूरत की क्या है ? और हां ये एक मुख्य बात की बदनाम हुए तो क्या ? नाम हो होगा ही " मगर बंधु अब ऐसे काम नहीं चलने वाला है । खुलकर सामने आये हो तो वार झेलना ही होगा । इस वाक युद्ध में गुटबंदी होने से अपना पक्ष दूसरे से रखवाने के लिए कहना " यही खेल है "

मैं किसी के खिलाफ नहीं हूँ और न ही होऊंगा । सब को अपनी राय व्यक्त करने का पूरा अधिकार है परन्तु ये बात जरूर जेहन में रखकर आपनी टिप्पणी दें कि कोई आपको भी वैसा ही लिखे तो कैसा लगेगा ? पता है मुझे कि अच्छा तो कतई न लगेगा इसलिए ऐसे वर्ताव से बचना ही अच्छा होगा । अगर भड़काऊ , ओछाऔर नंगापन वाला लेख , आलेख लिखना हो तो ये काम कभी भी किया जा सकता है पर ये मेरी फितरत नहीं । बाकी आपक खुद ही समझदार है ।

और रही बात तड़केदार हेडिंग की तो यह कला लेखक अपने लेख में तो कहना कि क्या है ? पर ऐसा कम ही होता है ............ जो कि दुखद है ।



Thursday, October 8, 2009

बड़े आये हो ब्लागिंग करने ............अरे दम है तो कुछ अच्छा लिखो न ? ये तुच्छी लोकप्रियता आखिर कब तक ? सुधर जाओ

आजकल जिस तरह से नाम( धर्म )के पीछे पड़े हैं यह बात कुछ समझ नहीं आती । ब्लाग में जिस तरह का कुतर्क किया जा रहा है वह बहस कभी नहीं कही जा सकती है । सभी अपना राग अलाप रहें हैं तो ऐसे में एक सकारात्मक बात-बिवाद विषयगत ब्लागजगत में संभव ही नहीं लगता । सबसे दुखद बात यह लगती है कि कुछ ऐसे ब्लागर आ गये हैं जिन्हें अपना नाम सबकी जुबान पर रखवाना अच्छा लग रहा है । पिछले कई महीनों से यह दुर्दशा देख कर दुख होता है । ब्लाग पर ब्लागर ऐसे मुद्दे लिख रहें - जैसे धर्म की श्रेष्ठा , स्त्री की आजादी , मैं बड़ा की नंगापन .....................और सबसे आसान और तुच्छी बात है " किसी के नाम खुला पत्र । ये सब किस लिये हो रहा है इससे कोई अनजान तो नहीं है । सस्ती लोक प्रियता आखिर कब तक चल सकती है ?????

अरे धर्म पर अगर लिखना है तो कुछ ऐसा लिखो जो एक स्वच्छ संदेश देता हो । ( मतलब तो आप समझ ही गये होगें ) ऐसा नहीं कि टाईटल कुछ हो और अंदर कुछ । इस तरह से धोखा न किया जाय । कोई हिन्दूवादी है या ........इस्लामवादी या कोई और वादी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । पर खुद को बड़ा पाक साफ और अच्छा दिखाना वो भी यह लिखकर कि तुम्हारा धर्म तो मेरे धर्म से खराब है ....................उसमें ये ये खराबियां हैं ...............मैं पूछ़ता हूँ उन लोगों से जो अपने धर्म को बहुत ही अच्छा मानते हैं और अन्य किसी धर्म को नीच कहतें हैं " जब कहीं कोई कमी हो तो उसे दूर करने के लिए कितना प्रयास किया है खुद से ।

दूसरी बात कि ब्लाग पर कुछ भी लिख देना आसान होता है पर जब सवाल जवाब किये जाते हैं तो लोगों को बुरा लगता है , आखिर क्यों ? जब अतिसंवेदनशील मुद्दे को आपने उठाया है तो आखिर जवाब कौन देगा ? जब किसी को मेल कर आप महाशय के प्रश्न करते हैं तो प्रतिउत्तर में गालियों भरा ईमेल मिलता है । क्या यही है ब्लागिंग ? और इसकी मर्यादा ? मैं तो मानता हूँ कि ब्लाग पर जितने भी लोग आते हैं वह सभी शिक्षित होते हैं । ऐसे में इस तरह की तुच्छी हरकत किसी भी तरह से सही और मर्यादित नहीं कही जा सकती ......................खुद से विचार करें तो ही बेहतर होगा ।
मैं तो दुखी होता हूँ यह सब देख कर । लोगों में होड़ मची है कि खूब अच्छा गरमागरम (हाट ) , सेक्सी , भड़काऊ लिखा जाये जिससे मेरा नाम होगा ..................ऐसी भावना को दरकिनार किया जाना चाहिए ।

न किसी को ब्लागिंग से बाहर किया जाय ..........जरूरत है कि हम ऐसे लोगों को खुद से ही दरकिनार कर दें जिससे गंदगी कम फैले । आपकी क्या राय है ?

"आजादी सेल आन डिमांड " ..................यही है बाजार की मांग

लंबे समय से हम इस बात पर बहस की जा रही है कि हमारा समाज उच्छृंखल होता जा रहा है। खास कर यह उच्छृंखलता यौन मामलों में ज्यादा ही दिखाई दे रही है। समलैंगिता को मान्यता देना, यौन शिक्षा का समर्थन करना और इससे जुड़े पहलुओं का महिमामंडन करना वर्तमान समय में हमारे समाज में आम हो गया है। देखिए, जो कुछ भी होता है, इसी समाज में होता है और इस बात की दुहाई के साथ कि यह समाज का एक अंग है। मैं इससे इनकार नहीं करता।


यह बात सर्वमान्य है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है और यह भी सही है कि समाज अपने में कुछ नहीं है, जो कुछ भी है वह तो व्यक्तियों का समूह है। इसलिए व्यक्ति जो सोचता है, वह या तो व्यक्तिगत होता है या फिर सामाजिक। सोच को कभी भी थोपा नहीं जा सकता। अगर प्रकृति ने हमें यह बताया है कि दो विपरीत लिंगी विपरीत हैं तो प्राकृतिक ढंग से वे एक नहीं हो सकते। प्राकृतिक ढंग से जो विपरीत है, उसके लिए राइट टू इक्वलिटी की बात करना थोपा हुआ सच है। पश्चिमी संस्कृति में है, इसलिए हमारे यहां लागू करने में क्या हर्ज है, यह डिबेट का विषय है। भारतीय ढांचें में आर्डर ऑफ नेचर सर्वमान्य है। इसलिए यह कहना कि सब कुछ आपसी सहमति से हो रहा है, ठीक नहीं है। यह आपसी सहमति सबको मान्य हो जरूरी नहीं। कल को दो शादी-शुदा लोग आपसी सहमति से अपनी पत्नियां बदल लें तो क्या उचित है। जिस राइट टू इक्वलिटी की बात हम कर रहे हैं, वहां भी जन नैतिकता और शालीनता की बात की गई है। हम बराबरी के सिद्धांत को एक सीमा तक ले जा सकते हैं, सब कुछ बराबर ही होता तो यह प्रकृति न होती। विडंबना तो यह है कि इसे वैज्ञानिक स्तर पर प्रमाणित किया जा रहा है। डाक्टर कह रहे हैं कि इन संबंधों से कोई बीमारी नहीं होगी। ये वही विशेषज्ञ हैं, जो कल को यह भी कह रहे थे कि मां का दूध पीने से मां की बीमारियां बच्चे को हो जाती हैं, जबकि भारतीय संस्कृति में मां के दूध को अमृत कहा गया है। कहने का आशय यह है कि आधुनिक बनने के फेर में हम इतना आगे न निकल जाएं, जिसके सिर्फ नुकसान ही नुकसान हों।

न्युज चैनल हो या अखबार, अनर्गल विज्ञापनों और नग्न चित्रों से पटे हैं। तेल, साबुन, कपड़ा सभी जगह यही नग्नता। यहाँ पर मेरा सवाल उन प्रगतिवादी महिलाओं से है जो की महिला उत्थान के लिए कार्यरत है इस तरह के बाजारीकरण से उन्हे समान अधिकार मिल रहें है या उनको बाजार में परोसा जा रहा है ?। हमारे यहाँ की प्रगतिवादी महिलाएं बस एक ही चिज की माँग करती हैं वह है आजादी, समान अधिकार। मैं भी इनके पक्ष में हूँ लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है कि इन सब के पिछे ये महिलाएं कुछ चिजो को भुल जा रहीं है। इन्हे ये नहीं दिखता की आजादी को खुलापन कहकर किस प्रकार से इनका प्रयोग किया जा रहा है। चुनाव प्रचार हो या शादी का पंड़ाल छोट-छोटे कपड़ो में महिलाओं को स्टेज पर नचाया जा रहा है। यहाँ पर महिला उत्थान के लिए कार्यरत लोग न पता कहाँ है। अब उन्हे ये कौन समझाये कि उनका किस तरह से बाजारीकरण हो रहा है।

दूसरा मुद्दा है सेक्स एजुकेशन यानी यौन शिक्षा का। 9 जून 2009 को वेंकैया नायडू पेटीशन ने राज्य सभा में एडल्ट एजुकेशन बिल प्रस्तुत किया। यह यौन शिक्षा के विरोध में था। इस पर सदन में कोई बहस नहीं हुई। हम निरर्थक बहसों पर तो सदन के कितने ही दिन जाया कर देते हैं, लेकिन इस मुद्दे पर चुप्पी क्यों साध ली? हमारे शास्त्र और लगभग सभी धर्म इस बात को मानते हैं कि जिस तरह बच्चे को भूख और प्यास लगती है, उसी तरह यौन जिज्ञासा एक प्राकृतिक इच्छा है। लड़कियों को मां और बहने उन्हें इस बारे में बताती हैं और ज्यादातर लड़के समाज से यह बात सीख जाते हैं। इसके पीछ तर्क दिया जा रहा है कि यौन अनभिज्ञता की वजह से ही एड्स जैसी बीमारियां हो रही हैं। सरकार इसके पीछे इन बीमारियों का रैकेट बना कर बड़े-बड़े प्रोजेक्ट चलाए जा रहे हैं, घोटाले हो रहे हैं। हेल्थ और फेमिली वेलफेयर विभाग का प्रचार टीवी पर दिखाया जा रहा है टीवी पर दिखाए जा सारे धारावाहिक एक्सट्रा मैराइटल अफेयर पर केंद्रित हैं। तर्क यह दिया जाता है कि जो समाज में हो रहा है, हम वही दिखा रहे हैं, अगर आपको न पंसद हो तो आप स्विच ऑफ कर लें। कल को आप टीवी पर ब्लू फिल्में दिखाने लगें और कहें कि आपको पसंद न हो तो स्विच ऑफ कर लें। सरकार भी इन मामलों में पूरी तरह उदासीन है। हाल ही में लोकसभा में सांसद रवींद्र कुमार पांडे, चंद्रकांत खेड़, मधु गुडपक्षी और एकनाथ गायकवाड़ ने प्रश्न किया कि क्या सरकार का विचार समलैंगिक संबंधी कानून की समीक्षा करने और भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को संशोधित या निरसित करने का है। यदि हां तो ब्यौरा क्या है और यदि नहीं तो क्या कारण है?

इस सवाल के जवाब में गृहराज्य मंत्री एम रामचंद्रन ने कहा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक गैर सरकारी संस्था द्वारा दायर किए गए रिपिटीशन-2001 संख्या-7455 के संबंध में अन्य बातों के साथ यह कहा गया है कि जहां तक भारतीय दंड संहिता 377 तथा उससे संबंधित किसी व्यक्ति के निजी तौर पर सहानुभूति पूर्वक किए जाने वाले यौन कृत्यों को अपराध माने जाने से है तो यह संविधान के अनुच्छेद 21,14, और 15 का उल्लंघन करने वाला है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। इसी तरह पुन्नम प्रभाकर के सवाल कि टीवी चैनलों में पेश की जा रही अश्लीलता का बच्चों पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। अगर हां, तो सरकार इस संदर्भ में कौन से कदम उठा रही है। इसके जवाब में भी सरकारी पक्ष ने जवाब के तौर पर कहा कि इन मामलों की निगरानी के लिए एक कमेटी गठित की जा रही है। ऐसे मुद्दों पर सरकारी तौर पर कोई बहस नहीं की जा रही है।

अश्लीलता का यह चलन आने वाले दिनों में हमारी सामाजिक व्यवस्था के लिए खतरा बन जाएगा। हम विदेशों का उदाहरण देते हैं कि वहां खुलापन बढ़ रहा है और हम लकीर पीट रहे हैं। अमेरिका में परिवार इसी खुलेपन की वजह से टूट रहे हैं। आपको याद होगा बिल क्लिंटन ने अमेरिका में टूटती पारिवारिक व्यवस्था पर विचार करने के लिए चार बार वैश्विक स्तर पर बैठक की थी। दूसरी बात, हर मुद्दे पर सरकार का मुंह ही न देखिए। इस पर शांतिप्रद तरीके से सामाजिक आंदोलन हो। समाज का एक वर्ग तर्क दे रहा है कि हमारे शास्त्रों में समलैंगिक संबंधों और यौनिक खुलापन को जगह दी गई है। ठीक है, चार पुरुषार्थो में काम को भी रखा गया है। उसके ऊपर चिंतन करें, यह गलत नहीं, इसका उद्देश्य प्रकृति को अनवरत रूप से चलने देना है। मगर मात्र खजुराहो के मंदिर व वात्स्यायन का कामशास्त्र ही भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करते। सामाजिक नियम द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के अनुसार बदलते रहते हैं। पानी की भूमिका हमेशा एक-सी नहीं होती है। कभी वह प्यास बुझाकर जीवन देता है तो कभी बाढ़ के रूप में जीवन ले भी लेता है। अगर किसी व्यक्ति ने इन संबंधों पर लिखा है तो उसके उद्देश्य को समझिए। यह ऋषि सम्मत है या संस्कृति सम्मत, यह कुतर्क का विषय है।

Tuesday, October 6, 2009

हमारा समाज और सेक्स एजुकेशन

एचआईवी, यौन शोषण आदि से बच्चे कैसे बचें? जागरुकता लाने के प्रयास के तहत संयुक्त राष्ट्र के शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन ने यौन शिक्षा पर नए दिश-निर्देश जारी किए हैं। यौन शिक्षा पर बनाए गए अंतरराष्ट्रीय दिशा-निर्देश के तहत शिक्षक छात्रों को बताएंगे कि वे कैसे यौन शोषण, अनचाहे गर्भधारण और एचआईवी तथा यौन संचालित संक्रमण से बचें।इससे छात्रों में सेक्स संबंधी किसी तरह की भ्रांति नहीं रहेगी। हाँ जी ये कहना है भारत सरकार का जो की पश्चिम देशो के तर्ज पर भारत मे भी लागु करना चाहती है "यौन शिक्षा"। देश की अधिकांश आबादी गांवों में निवास करती है और जिसका सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना कुछ विशेष तरह का होता है। इस कारण जहां खुलेआम सेक्स का नाम भी लेना गुनाह समझा जाता है। ऐसे में भारत में यौन शिक्षा कितना कारगर साबित होगा सोचने वाली बात होगी। अब अगर ऐसे जगहों पर इस शिक्षा की बात होगी तो विवाद तो होना ही है। यौन शिक्षा के नमूने, खासकर सचित्र किताबों ने तूफान खड़ा कर रखा है। कई राज्यों की सरकारें, सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएं और राजनीतिक व गैर राजनीतिक संगठन इस पर आपत्ति उठा रही हैं। परंतु दूसरी ओर इसके समर्थकों का मानना है कि इस विषय को प्रतिबंधित न किया जाए। हां, यौन शिक्षा संबंधी सामग्री संतुलित होनी चाहिए। न तो इसमे एकदम खुलापन हो और न ही इसे बिल्कुल खत्म कर दिया जाए। यह कहना कि बच्चों को यौन शिक्षा देने की आवश्यकता नहीं है एकदम बेहूदा तर्क है। सर्वेक्षण से पता चला है कि किशोर उम्र के लड़के कभी-कभी यौन संबंध कायम कर ही लेते हैं। भारत में प्रसूति के कुल मामलों में 15 प्रतिशत किशोर उम्र की लड़कियां शामिल होती हैं। देश में इस समय 52 लाख लोग एचआईवी से पीडि़त हैं, जिनमे 57 फीसदी मामले ग्रामीण क्षेत्रों के हैं। एड्स नियंत्रण का दायित्व संभालने वाला राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) कई राज्यों की आपत्ति के चलते स्कूलों में उपलब्ध कराई जाने वाली यौन शिक्षा सामग्री की समीक्षा करने को तैयार है। नाको का मानना है कि सेक्स की शिक्षा के लिए सचित्र किताबे वरिष्‍ठ शिक्षकों के लिए हैं। वह इनसे जानकारी हासिल कर बच्चों को समझाएंगे। उसका मानना है कि इस सामग्री से किशोरो को शरीर और शारीरिक परिवर्तनों के बारे में आधारभूत सूचना मिलती है। यदि बच्चों को यौन शिक्षा नहीं दी जाए तो वे गलत फैसला ले सकते हैं जिससे उनके भविष्य और स्वास्थ्य पर गलत असर पड़ सकता है। इसके विपरीत स्कूली बच्चों को यौन शिक्षा के विचार के विरोधियों का तर्क है कि इससे लोगों की सांस्कृतिक संवेदना को चोट पहुंचती है। इस सरकारी फैसले के पीछे विदेशी हाथ है। उनका मानना है कि इससे उल्‍टे अनैतिक सेक्स को बढ़ावा मिलेगा। विदेशी कंपनियों के सूत्र वाक्य 'कुछ भी करो, कंडोम का इस्तेमाल करो' से उनकी मंशा स्पष्ट है। सुरक्षित सेक्स का ज्ञान देकर कोमल व किशोर वय के लड़के-लड़कियों को देह-व्यापार के पेशे में उतारे जाने की आशंका जताई जा रही है। बैकाक और थाईलैड की तरह भारत को भी सेक्स टूरिज्म के बड़े बाजार के रूप में विकसित करने की विदेशी चाल के रूप में भी इसे देखा जा रहा है। एक संगठन ने तो इसके खिलाफ एक किताब 'रेड एलर्ट' छापी है। कुल मिलाकर स्कूलों में बच्चों को यौन शिक्षा की नहीं बल्कि अच्छी जीवनशैली से अवगत कराने की जरूरत है। दूसरी ओर अब सवाल उठता है कि स्कूली बच्चों के लिए, जिसका कि दिमाग एक कोरे कागज के समान होता है, यौन शिक्षा एक गंभीर विषय है। ऐसे में जल्दबाजी में उठाया गया कोई भी कदम समाज और राष्ट्र के लिए घातक साबित हो सकता है। क्या इसके बदले में किशोरो को एचआईवी एड्स, नशीले पदार्थ की लत आदि के बारे में समुचित जानकारी देकर उनको मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए तैयार करना ज्यादा उचित नहीं होगा? लेकिन अब भी हमारे यहाँ के प्रगतिवादी लोग इस शिक्षा के पक्ष में हैं न जानें क्यों। उनका कहना है कि इस शिक्षा से सेक्स अपराध रुकेगें तथा बच्चे सेक्स के प्रति जागरुक होगें। जहाँ तक मुझे लगता ऐसे लोग जो भी कहते है वह बेबुनियाद है। पश्चिमी देशों मे लगभग हर जगह यह शिक्षा मान्य है, तो वहाँ क्या होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। अगर अकेले ब्रिटेन को ही देखा जाये तो वहाँ की हालत क्या है इस शिक्षा के बावजुद बेहद शर्मसार करने वाली जो की हमारे समाज में बहुत बडा अपराध माना जाता है। वहाँ की लडकियाँ शादि से पहले ही किशोरावस्था मे माँ बन जाती है। कम उम्र में मां बनने वाली लड़कियों के मामले में ब्रिटेन, पश्चिमी यूरोप में सबसे आगे है। संडे टेलिग्राफ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक बड़ी संख्या में गर्भपात के बावजूद स्कूल जाने वाली लड़कियों में गर्भधारण की संख्या तेजी से बढ़ी है। स्वास्थ्य विभाग की वेबसाइट के हवाले से अखबार ने लिखा है कि हर साल 18 साल से कम उम्र की लगभग 50,000 लड़कियां गर्भवती हो जाती हैं।अगर यौन शिक्षा से ये सब होता है तो क्या इसे हमें मान्यता देनी चाहिए।
इस तरह ब्रिटिश सरकार ने पहली बार यह माना है कि यौन शिक्षा कम उम्र की लड़कियों में गर्भधारण पर लगाम लगाने में नाकाम रही है। अब बताईये ऐसी शिक्षा की क्या जरुरत है हमारे समाज को। हमारी सरकार हमेशा से पश्चिमी देशो के परिवेश को अपनाना चाहती है लेकिन क्यों। वहाँ के बच्चो को शुरु से ही यौन शिक्षा दि जाती है तो परिणाम क्या है हम सब जानते है।

Monday, October 5, 2009

कोशिश - (कविता )

नन्ही आशाएं ,

दृढ़ निश्चय,

कुछ करने का जज्बा,

लिए हुए,

कोशिश करता हुआ वो आदमी,


सड़को के किनारे रेंग कर चलता,


हाथ में कुछ गंदी बोतलें

और

एक छोटा झोला लिये,


मेरे सामने से गुजर जाता है ,


बस के इंतजार में खड़ा देखता हूँ उसको,


दूर से आते ,

और

सामने से दूर जाते,

कितना बेबस है,

फिर भी,

चेहरे पे एक सिकन भी नहीं ,


हां कुछ पसीने की बूँदें,


और

कचरे की बदबू के सिवा,


शरीर पर फटे कपडें

गंदे मैंले है ,

शायद न धुला होगा कई दिनों से,

कितना साहस मन में लिये,

करता है ये काम ,


पूरी लगन से ,


पूरी मेहनत से,


कितना अलग है ये ,

उन सभी से ,

जो इसके जैसे हैं,


चाहता तो न करता कुछ ,

बैठा कहीं मांगता भीख,

किसी किनारे पर ,


मिल जाता पेट पालने को कुछ न कुछ,

पर


नहीं मानी हार,


करता है प्रयास ,

जिंदगी की जंग से

और

खुद से भी।

"पुरुष तो पुरुष................ महिलायें भी कम नही"



सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर रोक का कानून बने या आदेश जारी हुए भी काफी अरसा हो गया है, परंतु स्थिति बदतर होती जा रही है। विश्वभर में सिगरेट पीने वालों में से १२ फीसदी भारतीय हैं। ये आँकड़े चौंकाने वाले हैं कि धूम्रपान करने के संदर्भ में अगर वैश्विक स्तर की बात की जाए तो भारतीय महिलाओं का स्थान तीसरी पायदान पर है।

आँकड़े बताते हैं कि भारत में धूम्रपान करने वाली ६२ फीसदी महिलाओं की मृत्यु ३० से ४९ वर्ष की आयु में हो जाती है। "भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद" के अनुसार भारत में २५-६९ वर्ष आयु वर्ग के लगभग ६ लाख लोग प्रतिवर्ष धम्रपान के कारण मृत्यु का शिकार होते हैं। अध्ययन के मुताबिक २०१० के दशक में प्रतिवर्ष धूम्रपान करने वाले १० लाख लोगों की मृत्यु होगी।

धूम्रपान सेहत के लिए किस कदर हानिकारक है यह तथ्य उन आँकड़ों से सिद्ध होता है, जो कि चेन्नाई में एपिडेमियोलॉजिकल रिसर्च सेंटर द्वारा किए गए अध्ययन में सामने आए हैं। इसके अनुसार भारत में तपेदिक से मरने वाले पुरुषों में ५० प्रतिशत धूम्रपान के कारण मरते हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के जून ०८ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय बच्चों में धूम्रपान तेजी से लोकप्रिय हो रहा है और ६ वर्ष की आयु तक के बच्चे इस लत के शिकार बन चुके हैं।

धूम्रपान के घातक परिणामों को देखते हुए विश्वभर में धूम्रपान प्रतिबंध लगाने की प्रक्रिया पिछले कुछ दशकों से अनवरत जारी है। २००३ में विश्व स्वास्थ्य संगठन के सभी सदस्य देशों ने पूरी दुनिया में तंबाकू निषेध के लिए सर्वसम्मति से फ्रेमवर्क कन्वेंशन (संधि) को स्वीकार किया। इसके तहत एक छः सूत्री एम-पॉवर पैकेज की घोषणा की गई। इस एम-पॉवर पैकेज में वैश्विक और देशों के स्तर पर धूम्रपान और उसके दुष्प्रभावों के संबंध में प्रभावी निगरानी तंत्र विकसित करने, कार्यस्थल और सार्वजनिक स्थलों में धूम्रपान पूर्ण प्रतिबंधित करने की व्यवस्था है, पर कितनी कारगर सिद्ध हुई हैवह जगजाहिर है।

समस्या का एक और पहलू है कि भारतीय कानून में तंबाकू कंपनियों को उनके उत्पादों के विज्ञापन की अनुमति नहीं है। ऐसे में कई बड़ी कंपनियों ने छद्म तरीके से अपने उत्पादों के प्रचार का रास्ता अपना लिया है। जहाँ एक ओर सिगरेट बनाने वाली कंपनी वीरता पुरस्कारों की आड़ में अपने ब्रांड का प्रचार करती है, वहीं दूसरी ओर एक और कंपनी अपने अपने ब्रांड के खुले प्रचार के साथ दिल्ली और मुंबई में हर साल बड़े स्तर पर फैशन शो आयोजित करती है। ये कंपनियाँ और भी तरह-तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करती रहती हैं।

इस हालत में भला यहकैसे सोचा जा सकता है कि धूम्रपान के प्रति आकर्षण कम होगा। माना कि तंबाकू से सरकार को भारी मात्रा में राजस्व मिलता है, परंतु देश की युवा पीढ़ी की कीमत परआर्थिक मुनाफा उचित नहीं है। जब "भूटान" जैसा छोटा देश अपने आर्थिक हितों को त्याग कर तंबाकू उत्पादों की बिक्री पूर्ण प्रतिबंधित कर सकता है तो भारत क्यों नहीं?

Sunday, October 4, 2009

"विश्वास नहीं होता, लेकिन सच है"

विश्वास तो नही होता लेकिन करना पङ रहा है, शायद आप भी पढने के बाद विश्वास कर लेंगे। क्या आपको पता है विकसित देशो में जितना खाना बर्बाद होता है उससे 1.5 अरब लोगो का साल भर तक पेट भर तक सकता है जी हाँ सही सुना आपने। इन देशो की सूची मे अमरिका और ब्रिटेन सबसे आगे है, यहाँ संपन्न लोग रेस्त्रां मे थोङा बहुत खाना शेष छोङ देते है। वे एक छङ के लिए भी नही सोचते कि इस भोजन को बनाने मे विभिन्न स्तरो पर कितनी मेहनत करनी पङी होगी। यदि इस बचे हुए भोजन को गरिब लोगो को खिला दिया जाता तो इसका सदुपयोग हो जाता। अगर देखा जाये तो हम भी इससे कम नही है हमारे घर से भी न जाने कितना खाना प्रतिदिन कूड़ेदान मे जाता है।
अगर हम अपने अतीत को देंखे तो हमे इस बात का एहसास होगा की जो हम कर रहें है वह कितना भयानक हो सकता है। मैं आपको लोगो बताना चाहूंगा कि 1840 के दशक मे आयरलैंड मे अनाज की कमी के कारण हजारो लोग मौत के मुंह मे समा गये थे, । खाना बर्बाद करने वाले शायद यह भूल जाते है कि 1950 के दशक मे यूरोप और एशिया के कई देशो मे भयानक अकाल पङा था, जिस कारण हजारो लोगो की मौत हो गई थी। विवाह समारोह मे भी खाने की बर्बादी जोर सोर से होती है, इस बर्बादी को रोकने के लिए विनोबा भावे की दत्तक पुत्री निर्मला देशपाडें ने कुछ लोगो को मिलाकर एक ग्रुप बनाया, इनका कहना था कि जितना हम खा सकें उतना ही खाना लें , और जो खाना जूठा ना हो या जो बचा हो उसे किसी अनाथयालय या गरीब बस्तियों में भेज दी जाये,। लेकिन अफसोस निर्मला जी का निधन हो गया और ये प्रयास सफल न हो सका। बात जब भोजन की बर्बादी की आती है तो बङा दुःख होता, उत्तर प्रदेश व बिहार मे अब भी मृत्यु के बाद तेरहवाँ करते है और उसमे ना जानें कितना भोजन का नुकसान होता है। दुःख तब और होता है जब ये लोग इस दिखावे के लिए साहूकारो व मंहाजनो से रुपये ऊधार लेते है, और वे कर्ज अदा करते-करते चले जाते है, और उनकी भावी पीढी़ उस कर्ज को भरने मे लग जाती है।
कर्ज का बोझ पीढी़ दर पीढी़ चलता रहता है और अंत मे उस किसान को शहर जाकर मजदूरी करने को मजबूर होना पङता है। क्या समाज के ठेकेदार इस गंभीर समस्या पर कभी ध्यान देगें।
विकासशील देशो के जागरुक लोग यदी इस बात को जल्द ही ना संमझे तो उन्हे इसका गंभीर परीणाम देखने को मिल सकता है। यदि भोजन की बर्बादी अविलंब नहीं रोकी गई तो वह दिन दूर नहीं जब संसार के विभिन्न देशो को पहले की तरह ही अकाल का सामना करना पङेगा।

Thursday, October 1, 2009

फिल्म समीक्षा - वेकअप सिड ............................प्रसून आरमन तिवारी


इसमें कोई दो राय नहीं है कि हर कोई नवजवान अपना अक्स इस फिल्म के हीरो में ढ़ूढ़ने की कोशिश करगा । फिल्म की कहानी है मेट्रो सिटी मुंबई में रहने वाले रईस बाप के एकलौते लड़के की ।जिसका नाम सिड ( रणवीर कपूर )है , सिड अपनी जिम्मेदारियों को नहीं जानता और जिसका काम दोस्तों के साथ फुल टू मस्ती करना है । कहानी में मोड़ तब आता है जब सिड अपना घर छोड़कर अपनी दोस्त ( अभिनेत्री - कोकणा सेन शर्मा ) के घर आ जाता है । जहां वो अपनी जिम्मेदारियां समझना शुरू करता है और अपने आपको साबित करता है । वेक अप सिड एक साफ सुथरी हल्की फिल्म है ।फिल्म की कामेडी ने लोगों को खूब गुदगुददाया है ।हर बार की तरह अनुपम खेर ने दमदार अभिनय किया है । एक ही छत के नीचे रहते हुए हीरो और हिरोईन के बीच एक भी किसिंग और सेक्स सीन नहीं है । नये कलाकारों का अभिनय बहुत ही शानदार है । फिल्म में शंकर अहसान लॅाय का संगीत बहुत ही अच्छा है । फिल्म का टाइटल सांग " वेकअप सिड " पहले ही हिट हो चुका है । फिल्म में मात्र दो ही गाने हैं ।


साज सज्जा का पूरी तरह ध्यान रखा गया है , सिनेमैटोग्राफी बहुत ही अच्छी है .................।फिल्म का डायरेक्शन अच्छा है । फिल्म आज के युवाओं को एक संदेश देती है । सप्ताह के अंत में फिल्म को देखा जा सकता है ।