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Saturday, September 6, 2008

हिन्दी का भविष्यः भविष्य की हिन्दी


हिन्दी को इस वैश्वीकरण के दौर में कैसे बचाया जाय।जाहिर है ,हिन्दी बदल रही है,बदलते हुए सामाजिक परिवेश में इसके सामने कई नई चुनौतियां आई हैं।कई नये विषय आये हैं, नये शब्दों ने जन्म लिया है।ऐसी स्थिती में क्या जरूरत नहीं है कि इन शब्दों को इकट्ठा कर एक कोश बनाया जाय? जो नये शब्द आये उनका सामाजिक और ऐतिहासिक विश्लेषण भी साथ में दिया जाय ।
हिन्दी व्याकरण से मुक्त,टूटी-फूटी या सरल भाषा तभी होगी जब यह हर एक वर्ग के लिए हो।।साहित्य की भाषा वही होनी चाहिए जो आम बोलचाल की भाषा हो और आम आदमी की पहुँच की हो। बोली जो बोली जाय वही लिखी जाय। यहां तक की कविता के परंपरागत ढ़ाचे में भी बदलाव करना होगा।जापान के एक रचनाकार इशिकावा ताकुबोकु ने तान्का काविताओं को तीन लाइनों में लिखा। सरल सहज भाषा में लिखने के कारण साहित्य आम दिलों की आवाज बन जाती है।
हिन्दी साहित्य की कमी सबसे बड़ी यह है कि यहां पर पुस्तकें कम मात्रा में सुलभ है।कारण यह कि या तो वे हिन्दी में लिखी नहीं जाती या फिर उनका हिन्दी अनुवाद नहीं हो पाता है।अच्छी पुस्तकें चाहे वे किसी भी संस्कृति की हो यदि उनका हिन्दी अनुवाद हो तो इससे एक बड़ा फायदा यह है कि हम विश्व की अनेक संस्कृतियों के बारे में आदान-प्रदान कर सकेगें। और दूसरा हमारी जानकारी बढ़ेगी ।साथ ही साथ अनुवाद को एक आकर्षक व्यवसाय बनाया जा सकता है। और यह कार्य प्रकाशक कर सकतें हैं।
किसी भी विषय का अनुवाद मूल रूप से करना जरूरी है,यदि अनुवाद किसी अन्य माध्यम में किया जा रहा है तो हो सकता है कि वह प्रभावी न हो। और ऐसे अनुवाद से सांस्कृतिक छवि बनने के बजाय बिगड़ सकती है। बात सांस्कृतिक छवि की हो या मनोरंजन की, सांस्कृतिक गतिविधियां बढ़ेगी तो भाषा अपने आप बचेगी।
आज जरूरत है कि हम युवा वर्ग को अपनी संस्कृति से जोड़े वरना बाजार तो खड़ा है निगलने के लिए।

2 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

bahut hi achcha likha hai...bhaaw bhi achach hai....
achcha laga

Udan Tashtari said...

अच्छा और विचारणीय आलेख.