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Thursday, September 25, 2008

हिन्दी साहित्य के स्तम्भ के रूप में रहें दिनकर , हिंदी और हिन्द कही भुला रहा है इस महाकवि को?


जाने-माने कवि रामधारी सिंह दिनकर जीवित होते तो सौ साल के होते। हिंदी कविता के आकाश में वह एक धूमकेतु कि तरह चमके,लेकिन विड़ंबना यह है कि उनकी जन्मशती वर्ष में भी उनकि यादें अंधेरे के हवाले हैं। एक दो गोष्ठियों को छोड़कर उनकी जिंदगी और काम को लेकर हिंधी समाज में कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं हुई। बदले हु समय में इतिहास किसी युग पुरूष के साथ क्या सलूक करता है, इसका अहसास उन्हें अच्छी तरह से थाः
मसि की तो क्या बात, गली की टिकरी मुझे भुलाती है
जीते जी लड़ मरूं पर, याद किसे फिर आती है
लेकिन दिनकर ऐसे व्यक्तित्व नहीं थे जो समय की मागं पूरी करके बदलते दौर में प्रासंगिकता हासिक करते हैं। वे ऐसे तो लेखक थे जिनकी रचनाओं से गुजरकर कोई भी दौर अपना आगे का सहि रास्ता चुन सकता है। दिनकर की सस्वत प्रासंगिकता इसीलिए है। इसी कारण वह हिंदी के एक कालजयी कवि है। दिनकर जैसे लोकप्रिय कवि हिंदी में ज्यादा नहीं है। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि कविता पाठ के दौरान अपनी किसी कविता कि एक पक्ति सुनाने के बाद जरा रूकते थे तो उसकी अगली पक्ति श्रोता सामूहिक रूप से बोल देते थे।
दिनकर ने यह लोक प्रियता यूँ ही हासिल नहीं की थी। वह अपनी रचना में भारतीय समाज और अपने समय के संघर्ष को साथ लेकर चले थे, इसीलिए लोगों के बीच हमेशा उनकी प्रासंगिकता रही और आज भी है। दिनकर ने जिस समय लिखना शुरू किया, उस समय देश में अग्रेजी साम्राज्यवाद के विरूद्ध निर्णायक लड़ाई चल रही थी। दिनकर अपनी राष्ट्रवादी कविताओं के साथ इसमें शामिल हुए। उन्होनें मैथलीशरण गुप्त, बाल कृष्ण शर्मा नवीन और माखन लाल चातुर्वेदी जैसे कवियों की परम्परा का विकास किया । दिनकर जी ने अपनि दो टूक शैली में कविताएं लिखी और लाखों लोगों को उससे प्रेरित किया । कलात्मकता और लोकप्रयिता का मेल उनका सबसे बड़ा काव्य गुण था।
अपनी कविता में उन्होंने जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व किया , इसीलिए उनकी पक्तियां लोकमुख में मुहावरा बन गईः
समर शेष है नहीं पाप का भागी कवल ब्याध
जो तटस्थ हैसमय लिखेगा उनका भी अपराध
अपने इसी विश्वास के कारण उन्होनें अपने समय के संघर्ष के प्रति तटस्थ न रहकर न्याय का पक्ष लिया और हर दौर के प्रसांगिक हो गये। आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में अनेक युग आए लेकिन दिनके किसी दायरे में बंधे नहीं। अपने पहले संग्रह ' रेणुका' में ' मैं शिशर शीर्णा चली अब जाग ओ मधुमासवाली' लिखकर भी वह छायावादी नहीं हुए। इसी तरह हुंकार में उन्होनें लिखाः
हटो व्योम के मेघ तुम्हारा स्वर्ग लूटने हम आते है
दूध दूध ओ वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम आते है
या
कृषक मेध की रानी दिल्ली
वैभव की दीवानी दिल्ली
ऐसी पक्तियां लिखने के बावजूद उन्होंने खुद को प्रगतिवादी से नहीं बांधा। जनमानस से अपना संबंध कायम रखते हुए अपनी कविता का सफर तय करते रहे। वह एकांत में व्यक्ति के लिए लिखने वाले कवि नहीं थे। उन्होंने सार्वजनिक रूप से समूह के लिए लिखा और अक्सर जन आन्दोलनों के साथ रहे। इसीलिए उन्हें राष्ट्रकवि कहा गया। १९४२ के आंदोलन के बाद जब पटना के गांधी मैदान में उस समय के क्रांन्तिकारी जु प्रकाश नारायण ने सभा में दिनकर ने काव्य पाठ किया था और लोग आंदोलित हुए थे। उसके तीन दशक बाद जब पटना के गांधी मैदान में जेपी बिहार आंदोलन के अह्वान के लिए खड़े हुए तो दिनकर अपनी कविता के साथ फिर वहां मौजूद थे। वहां उन्होंने अपनी कविता 'सिहासन खाली करो कि जनता आती है' सुनाई थी। इसके बाद यह पंक्ति जेपी आंदोलन का नारा बन गई थी। स्वयं उस सभा में यह कविता सुनने के बाद जेपी ने भावुक होते हुए दिनकर के मित्र बच्चन लीएक पंक्ति उद्धृत की थी ः
तीर पर कैसे रूकूं मैं आज लहरों में निमंत्रण
दिनकर का काव्य हमें बदलता है। नए सफर के लिए ताकत देता है । इसीलिए वह बार-बार हमारे लिए प्रासमगिक होता रहेगा। दिनकर अपनी उपलब्धियों के कारण ही प्रतिष्ठित साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। दिनकर कि जन्मशती वर्ष में यह बात हमें नहीं भूलनी चाहिए।

2 comments:

आलोक साहिल said...

बिल्कुल सही कहा आपने.
मेरे प्रिय कवि को मेरा श्रद्धा सुमन.
आलोक सिंह "साहिल"

महेंद्र मिश्र.... said...

दिनकर जी हिन्दी के प्रमुख हस्ताक्षर थे . पुण्यतिथि अवसर पर श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ .