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Wednesday, September 10, 2008

खुद को जिम्मेदार माना


हमारे समाज का स्वरूप बदल रहा है भले ही आज भी बच्चे को पहचान उसके पिता की ही मिलती है पर मां का अपने बच्चे को एक अच्छा इंसान बनाने में अहम भूमिका निभाती है।घर की रोजी- रोटी के लिए सारा दायित्व पहले पुरूष ही निभाते थे पर बदलाव के दौर में महिलाएं अपनी भागीदारी बखूबी निभा रही हैं। मैंने कुछ महिलाओं से प्रश्न किया कि आखिर क्यों हमारे समाज का ढ़ाचा इतनी तेजी से बदल रहा है? जिम्मेदार कौन है? तो इसके लिए कुछ महिलाओं ने खुद परिवार को तो कुछ ने मीडिया को बताया। महिलाएं मानती है कि महगाई के साथ-साथ हमारे अपने परिवार में दूरियां अधिक हुई है। जिससे अब हम सब को मिलकर काम करना होता है और इस कारण हम अपने बच्चों को उतना समय नहीं दे पाते हैं। जितना कि हमारे मां-बाप दे पाते थे। ऐसे में संस्कार का तो कहीं कोई अता पता नहीं। संस्कृति भी पूरी तरह से बदलती हुई नजर आ रही है।और इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार है और भविष्य में इसके परिणाम भी बहुत बुरे होगें इसका हमें अंदाजा है पर हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते हैं।
मैंने इस मुद्दे पर कुछ सुझाव मांगे तो महिलाएं इसका कोई खास सकारात्मक जबाव नहीं दे सकी। और इसे हमारे समाज कि बुराईयों से जोड़ कर अपना बचाव करती नजर आयी। कहीं किसी ने धर्म तो किसी ने आस्था से जोड़ा तो मैंने कहा कि ये अलग मुद्दा है ।कुल मिलाकर जो बात सामने आयी वह यह की आज की पाश्चात्य संस्कृति हमारे बच्चों पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ रही है जिससे बच्चे अब कुछ ज्यादा ही खुला महशूस कर रहें हैं,वैसे यह खुलापन शारीरिक ज्यादा है और मानसिक कम है। तो ऐसे में समाज में सकारात्मक बदलाव की कल्पना करना दिवास्वपन से कम न होगा।
बच्चों को पूरी तरह से खुली छूट देना क्या उचित है? और बच्चे इसको किस हद तक अपने हित में प्रयोग करते हैं? ज्यादा तर बच्चे ऐसी खुली छूट पाकर अपना भविष्य खराब करते ही नजर आतें है। लाचार माता -पिता भी ंुक जीवन जी रहें अपने बच्चों के साथ।

1 comment:

संगीता पुरी said...

आपका कहना बिल्कुल सही है ,आज की पाश्चात्य संस्कृति हमारे बच्चों पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ रही है जिससे बच्चे अब कुछ ज्यादा ही खुला महशूस कर रहें हैं,वैसे यह खुलापन शारीरिक ज्यादा है और मानसिक कम है। तो ऐसे में समाज में सकारात्मक बदलाव की कल्पना करना दिवास्वपन से कम न होगा।