जर्नलिज्म का आकर्षण हमारे युवा वर्ग को बहुत प्रभावित कर रहा है। कहीं न कहीं यह ग्लैमर से जुड़ा होने के नाते युवाओं को एक अच्छा कैरियर बनाने का रास्ता दिखाता है । और इस पत्रकारिता के सपने को हकीकत में बदलने के लिए तमाम ढेर सारे मीडिया स्कूलों की भर मार हो गयी है। जिसके द्वारा स्टूडेंट अपनी मन पंसद का कोर्स कर सकते है । यह बात भी इसी से जुड़ी हुई है कि ये मीडिया स्कूल कोर्स के लिए एक मोटी रकम लेते हैं। "दूर की ढोल सुहावनी लगती है " यह कहावत बहुत हद तक मीडिया के क्षेत्र का यथार्थ दिखाता है।
हमारे युवा मीडिया में आने के बाद यह बात जरूर समझ में आ जाती है कि मंजिल इतनी आसान नहीं जितना कि शायद टीवी या फिर फिल्मों में देख कर लगता है । हकीकत से कोसों दूर यहां पर जाब के लिए एडी तलुओं का जोर लगा देना होता है । अगर मान लीजिए जाब बिना किसी एप्रोच के मिल भी गयी तो वह इतना कम पैसे देते है जिससे हमारे सपने जो हमने देखे वो शायद पूरे नहीं हो सकते हैं।
मीडिया में आने वाली युवा पीढी कुछ सोच और कुछ करने का जज्बा लेकर आती है । पर यहां तो मामला ही दूसरा है । कोई सामाजिक सरोकार नहीं हैं , केवल व्यवसायिकता और अपना फायदा। बाजारूपन कहीं न कहीं हम युवाओं को एक गहरी चोट देता है। एक युवा जरूर कुछ नया परिवर्तन चाहता है समाज में और कहीं न कहीं ये बात दिमाग में होती है कि पत्रकारिता के जरिये यह काम आसान हो सकता है । पर मीडियाकर्मी की सोच केवल वहीं होगी जिस संस्थान के लिए वह कार्य करेगा। अन्यथा आप की छुट्टी पक्की समझिये। आप को जो काम दिया जाय केवल उतना ही मतलब रखिये और ज्यादा आप को बोलने का हक नहीं है।
ऐसे हमारी सोच और हमारे विचार को कत्ल कर दिया जाता है निर्ममता के साथ और हमारी स्वतन्त्रता और अधिकार सब उस संस्थान के होते है जहां पर हमारी रोजी रोटी चलती है। यह बदलाव बहुत ही भयावह है पर शायद किया कुछ भी नहीं जा सकता है। सिवाय अफसोस के।
हमारे युवा मीडिया में आने के बाद यह बात जरूर समझ में आ जाती है कि मंजिल इतनी आसान नहीं जितना कि शायद टीवी या फिर फिल्मों में देख कर लगता है । हकीकत से कोसों दूर यहां पर जाब के लिए एडी तलुओं का जोर लगा देना होता है । अगर मान लीजिए जाब बिना किसी एप्रोच के मिल भी गयी तो वह इतना कम पैसे देते है जिससे हमारे सपने जो हमने देखे वो शायद पूरे नहीं हो सकते हैं।
मीडिया में आने वाली युवा पीढी कुछ सोच और कुछ करने का जज्बा लेकर आती है । पर यहां तो मामला ही दूसरा है । कोई सामाजिक सरोकार नहीं हैं , केवल व्यवसायिकता और अपना फायदा। बाजारूपन कहीं न कहीं हम युवाओं को एक गहरी चोट देता है। एक युवा जरूर कुछ नया परिवर्तन चाहता है समाज में और कहीं न कहीं ये बात दिमाग में होती है कि पत्रकारिता के जरिये यह काम आसान हो सकता है । पर मीडियाकर्मी की सोच केवल वहीं होगी जिस संस्थान के लिए वह कार्य करेगा। अन्यथा आप की छुट्टी पक्की समझिये। आप को जो काम दिया जाय केवल उतना ही मतलब रखिये और ज्यादा आप को बोलने का हक नहीं है।
ऐसे हमारी सोच और हमारे विचार को कत्ल कर दिया जाता है निर्ममता के साथ और हमारी स्वतन्त्रता और अधिकार सब उस संस्थान के होते है जहां पर हमारी रोजी रोटी चलती है। यह बदलाव बहुत ही भयावह है पर शायद किया कुछ भी नहीं जा सकता है। सिवाय अफसोस के।
1 comment:
ओह, इस क्षेत्र में नौजवानों की सोच के बारे में तो मुझे अन्दाज ही न था।
अपने समय में सिनेमा के ग्लैमर से नौजवानों को प्रभावित होते और उनका मोह भंग होते देखा सुना था। यह नहीं ज्ञात था कि मीडिया में भी वही मरीचिका चल रही है।
आपका लेख मुझे नयी सूचना दे गया मित्र! धन्यवाद।
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