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Sunday, October 12, 2008

अब तो कुछ ऐसी है जिंदगी अपनी


दिल्ली की लाइफ भी अन्य मेट्रो सिटी जैसी ही है , इंसान भागमभाग में हैरान परेशान है , हाल बेहाल है फिर भी दौड़ भाग नियमित है अरे भई भागना ही है तो किसी प्रतियोगिता में भाग लो तो कुछ परिणाम भी आये यहां तो बस लगे रहो " इण्डिया का नारा " है । फुरसत नहीं सांस लेने की कहते हैं बहुत से लोग तो फिर भई जिंदा भी नहीं होगे मतलब कि भूत जैसे तो कुछ नहीं । वैसे भी कहां रही आज मानवता । शायद कभी रही होगी । इंसान क्या हकीकत में इंसान है ? शक की सुई घूमती है इस प्रश्न पर जेहन में।

जब विश्वास खत्म होता है सब नाते रिश्ते , भाईचारा , प्यार सभी कुछ खत्म हो गया है , विकास में इंसान भी विकास ही कर रहा है मानव से मशीन बन गया है तो विकास ही तो हुआ न । पैसा आज ही नहीं हमेशा से जीवन के लिए आवश्यक रहा पर एक बात कि सब कुछ नहीं रहा है । हमारे विचार , हमारी सोच और हमारे जीवन जीने का ढ़ग एक रास्ता तय करता है भविष्य का पर आज की पालिशी हम सबको पता है । विश्वास का आता पता नहीं , प्रेम क्या है शायद किसी का नाम और रिश्ते वो तो मोबाइल नें जब्त कर लिये हैं । सुविधायें बनी है आराम मिला आराम हराम हो गया कब पता भी नहीं चला । खुदगर्ज होना स्वार्थी होना , चापलूसी करना ये सब आज के नये तरीके है आगे बढ़ने के।
सफलता का मापक है कमायी यानी पैसा तो ठीक है भईया करिये कमायी वो पता नहीं कहा कहां से आयी । सब समझना और फिर सब समझते हुए भी न समझना ही समझना है । देखिये सब पर ऐसा लगे कि आपने कुछ नहीं देखा आंखे है पर वही देखने के लिये जो आपको दिखाया जाय। चलो अच्छा कुछ नया नहीं करना होगा जियों ऐसे ही वैसे भी जी क्या रहे हो बस जीने का दिखावा ही है । कहते है कि बोलिये पर किसी को सुनाई न दे । सही भी है सुनना कौन चाहता ही है ।

3 comments:

श्रीकांत पाराशर said...

Bhai ho to yahi raha hai. yah jeena bhi kya jeena hai. halat to kuchh achhe nahin hain par kiya bhi kya jaye?

राज भाटिय़ा said...

इस जीने से तो मरना बेहतर है, हम जीते है सिर्फ़ पेसे के लिये या फ़िर काम के लिये, असल जिन्दगी क्या है.... यह सब भुल गये ... लेकिन यह सब कुछ किस के लिये???? सुखी जिन्दगी के लिये ? लेकिन कब शायद कभी नही ,
बहुत ही सुनदर लेख.
धन्यवाद

रश्मि प्रभा... said...

हर तरफ हताशा है-जहाँ पैसा है
और जहाँ दिल है.......
बहुत सही चित्रण