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Friday, October 3, 2008

"एक अर्सा गुजरा है " -मेरा काव्य


एक अर्सा गुजरा है
तुम्हारे बिन,
हाथों की लकीरों
पर
सपने बुने थे हम-दोनों
अब तो आदत न रही
यूँ ख्वाब में जीने की ।।
" इश्क की दास्तां
को बयां करता है,
वो सूखा गुलाब
जो कभी यूँ ही
डायरी में मिला
करता है।
मैं देखता हूँ
जब भी
उस गुलाब को
उसमें तेरा ही
नूर झलकता है ,
एक आह भी निलकती है
और
दिल भी धड़कता है
आखें खुद-ब-खुद
बंद हो जाती है ,
फिर
एक आंसू ढ़लकता है
बंद मुट्ठी को खोलता हूँ,
और
देखता हूँ
उन लकीरों को
जो अब
धुधली सी
नजर आती हैं "।

3 comments:

vipinkizindagi said...

bahut sundar

नीरज गोस्वामी said...

बहुत खूब लिखा है आपने नीशू जी...बल्कि ये कहना सही होगा की बहुत दिल से लिखा है...वाह.
नीरज

Vinay said...

बहुत ख़ूब, वाह साहब आप भी मोहब्बत के जाल में फँसे दिख रहे हैं।