पता नहीं है क्या लिख रहा हूँ
पर
फिर भी लिख रहा हूँ।
देखता हूँ हमेशा
आस पास बड़े ही गौर से
होती एक उम्मीद
खुद से ही कुछ न कुछ
मिल ही जयेगा
जो सबके मन को भायेगा
कलम तो यो ही उठा ली थी मन बहलाने के लिए
अब पाता हुआ है मोल इसका
है ये वो तलवार जो
करती है चुपके से सब पर वार
थकता कभी -कभी खुद से
पर हार नहीं मानता हूँ
लिखना है तो लिख रहा हूँ
आज भी सब कुछ भूल के ही।
बिना कुछ सोचे
बिना कुछ विचार किये हुए।
1 comment:
पता नही क्यो टिपण्णी दे रहा हूं,
फ़िर भी दे रहा हू.
धन्यवाद
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