किसी उँची इमारत को देखने के बाद ये पता चलती है उसकी इमारत की गहराई और उसकी मजबूती ।महसूस होता है इमारत के खड़े होने तक का संघर्ष । एक व्यक्तित्व और उसकी उपलब्धिया भी बयां करती है उसके साहस को , मेहनत को लगन को और उसके जज्बे को । कैथोलिक नन सिस्टर अलफोंसा एक ऐसा ही नाम है जिसने भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धी हासिल की है । वो भी ऐसे समय जब देश में एक तबका ईसाईयों के खिलाफ नफरत और उन्माद भड़काने में लगा है । भारत के लिए यह दूसरी बड़ी उपलब्धी है क्यों कि मदर टेरेसा एक ऐसा नाम है जिसे हम भूल नहीं सकते हैं । वैसे ये सम्मान उस जमीन का है जहां वो जन्म ली और जहां मानव सेवा की रोशनी जलायी । भारत भूमि में शुरू से संतों और महापुरूषों ने जन्म लिया है । उनका धर्म और मत चाहे जि भी रहा हो , उनका लक्ष्य एक ही रहा - मानव कल्याण दीन दुखियों की सेवा में अपना जीवन होम कर दिया । समाज में ऐसे लोगों की बातें ध्यान से सुनी और प्रतिष्ठा दी । अलफोंसा भी उसी पंरपरा में हैं ।
अल्फोंसा त्यागमय जीवन किसी भी धर्म के मतावमंबी के लिए प्ररेणा का कार्य कर सकती है । कम उम्र में ही आध्यात्म की शरण ली, और सांसरिक मोह माया और बंधन को त्याग दिया । अलफोंसा ने जाति ,धर्म और मजह को न देखते हुए गरीब है असहाय लोगों की सेवा कि और अपना दायित्व निर्वहन किया ।जो लोग आज धार्मिक भेदभाव फैलाने में लगे हैं उन्हे समझना चाहिए कि धर्म का मूल्याकंन उसके श्रेष्ठ रूप केआधार पर होता है ।और अल्फोंसा ने किसी धर्म का उपहास करके यहां तक नहीं पहुँची है बल्कि सर्व धर्म दंभाव से यहां तक का सफर किया । एक दूसे धर्म का सम्मान ही भारतीय संस्कृति का मूल है ।
8 comments:
महान आत्मा थी तभी तो तिरंगे में छपी है. सबको प्रेरणा लेनी चाहिए. खास कर हिन्दू संगठनों को की कैसे काम का नाम किया जाता है. पता नहीं कब सीखेंगे.
फिलहाल तो पुण्य आत्मा को प्रणाम. भारत का तथा हमारा अहो-भाग्य है यह.
jankari ke liye dhanyawad
regards
आम ब्लागरों से कुछ अलग लिखने के लिए बधाई...
संजय भाई की टिपण्णी बेहद सटीक लगी और कुछ हद तक आश्चर्य जनक भी :)
"एक दूसे धर्म का सम्मान ही भारतीय संस्कृति का मूल है ।"
आप की इस बात से पूर्णता सहमती जताते हुए और सिस्टर अलफोंसा और मदर टेरेसा को नमन करते हुए दो बाते जरुर कहना चाहती हूँ .
भारत एक हिंदू राष्ट्र हैं वरना हिन्दुस्तान ना कहलाता . हम हर धर्मं का सम्मान करते हैं पर क्या हमारे धर्म का सम्मान हर देश हर धर्म करता हैं . हर राष्ट्र मे मन्दिर या गुरुद्वारा बनाने के लिये परमिशन लेनी होती हैं क्यूँ ?? क्योकि उनके नियम ऐसे हैं .
हम "जब देश में एक तबका ईसाईयों के खिलाफ नफरत और उन्माद भड़काने में लगा है"
इस बात का जिक्र तो पॉप ने भी किया पर आतंकवाद मे कितने लोग मर गये , कितने घरो मे दिवाली नहीं मानेगी इसका जिक्र तो नहीं किया . वो अपने धर्म को मानने वालो के प्रति ही सहृदय हैं हिंदू धर्म को मानने वालो के प्रति नहीं ऐसा क्यूँ ?? क्युकी वोह रोम मे बोल रहे हैं वोह एक इसाई nun को संत का दर्जा दे रहे हैं . कभी उन्होने किसी हिंदू को संत का दर्जा देने के लिये क्यूँ नहीं चुना ?? और अगर किसी ने अपनी सारी जिंदगी भारत मे लगा दी तो भारत ने भी सम्मान देने मे कमी नहीं की हैं . श्याद ही किसी देश किसी धर्म ने अपना सर्वोच्च सम्मान किसी अन्य धरम के अनुयाई को दिया हो पर हिन्दुस्तान ने दिया हैं मदर टेरेसा को .
धर्म से ना जोड़े तो भी ऐसे व्यक्तित्व कम ही हैं पर अगर हम सब धर्मो को बराबर समझते हैं तो सब धर्मो को हिंदू धर्मं को भी बराबर समझना होगा . ये देश के , धर्म के अस्तित्व की बात हैं . हिन्दुस्तान मे अगर हिंदू को ये समझोगे की हिंदू धर्म तुमको कुछ नहीं देगा , कनवर्ट हो जाओ और रोटी खाओ तो कोई भी धर्म जो ये कर रहा हैं उस पर क्रोध आएगा ही . और क्रोध केवल विनाश करता हैं . कभी निशु जी और देशो मे झाँक कर देखे हिंदू धर्म को कितना निकृष्ट समझा जाता हैं . यहाँ तक की सुहागिन औरतो के मंगल सूत्र को भी "प्रश्न चिन्ह " किया जाता हैं .
हिन्दू धर्म एक धर्म नहीं, उस से बढ़ कर कुछ और है। उस में सभी उन धर्मों के लिए स्थान है। वह एक ऐसी जीवन शैली है जिस में सब को अपनी इच्छानुसार उपासना पद्धति अपनाने या न अपनाने की स्वतंत्रता है, और एक दूसरे की उपासना पद्धति और दर्शन के लिए समान सम्मान है। समस्या तो वहाँ खड़ी होती है जब कुछ धर्म अपने धर्म को बड़ा और दूसरों को छोटा समझने लगते हैं। यही कारण है कि धर्मों के प्रति भारतीय मूल स्वभाव और अभारतीय मूल स्वभाव में अंतर है। यह भाव बौद्ध, जैन और सिख धर्मावलंबियों में भी है। लेकिन ईसाई और इस्लाम में नहीं। इसी कारण वे हिन्दू जीवन पद्धति में अपना स्थान नहीं बना सके हैं।
हिंदुस्तान ही एक ऐसा देश है जहाँ दूसरे धर्मों को भी सबसे ज्यादा स्वतंत्रता, सम्मान, सुरक्षा दी जाती है किसी भी देश की अपेक्षा. कुछ अपवाद हरजगह होते है
मैं रचना जी की राय से पूरी तरह सहमत हूँ. आज एक ईसाई नन को उनके ही धर्म द्वारा सम्मान दिए जाने को भारत के अन्दर भारत के सम्मान के रूप में देखा जा रहा है. यह विशेषता केवल इस देश में है.
rachna ji se sahmat
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