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Saturday, March 7, 2009

मंजिल - एक गजल ( पंकज तिवारी)

इस मंजिल के रस्ते में, क्या-क्या छूटा कुछ याद नहीं।
ये भी नहीं लगता कि कोई मंजिल इसके बाद नहीं।।

रूह थकी सी लगती है, ऐ यारो अब तो जिस्म के साथ,
दो पल चैन से कब सोया था यह भी ठीक से याद नहीं।।

माँ ने प्यार से समझाया था, क्या करना, क्या न करना,
क्या भूला क्या याद रखा, कुछ याद नहीं अब याद नहीं।।

मैंने कितनी मंजिलें बदली, रस्ते बदले, साथी भी,
क्या जो बना हूँ, वही बनना था कन्फ्यूजन है, याद नहीं।।

7 comments:

PREETI BARTHWAL said...

बहुत खूब। लेकिन भई कुछ तो याद रखना जरुरी था।

विवेक said...

बढ़िया...

शोभा said...

बहुत सुन्दर।

Asha Joglekar said...

वाह वाह क्या बात है आपके याददाश्त की ।

सुशील छौक्कर said...

बहुत खूब।

mehek said...

waah kya baat kahi,aakharisher bahut badhiya.

surabhi said...

रूह थकी सी लगाती है ऐ यारो अब तो जिस्म के साथ ,
दो पल चैन से कब सोया था यह भी ठीक से याद नहीं बहुत प्रभावशाली है
ये line