परिवर्तन होता रहा ,
सभी कहते मैं न बदला । जब भी घर जाता मां यही कहती तू तो बिल्कुल वैसा ही है ।
अपने गांव का बचपन याद आता है ,
हम लोग पेड़ पर बंदरों कीतरह चढ़कर " चिलांघो" खेलते ।
रात के गायों के बाड़े मेंछिप, खटिया ने नीचे छिप , टुक्कीटुइया का खेल खेलते ।
मां के एक बार पुकारने पर डर जाते , घर को जाते मार के डर से।
मां प्यार से पढ़ाती और फिर खाना खिलाती , सो जाते ।
सुबह-सुबह मां मुझे और भैया को तैयार करती ,
स्कूल भेजती , कई बातें याद आती हैं ,
मैं क्या बना हूँ , क्या मैं जो बनना चाहता था। ,
कभी खुद से खुश होता हूँ और कभी दुखी होता हूँ ।
शायद मैं वैसा ही बना जैसा मुझे सब बनाना चाहते थे ।
और अब भी लोग यही कहते हैं कि मैं बिल्कुल वैसा हूँ ।
क्या यही परिवर्तन है ,
तो ठीक है ,
पर क्या खोया क्या पाया कुछ याद नहीं ।
जैसा हूँ क्या यही बनना था मुझे ।
6 comments:
कितना भी बड़ा हो जाने पर भी कहीं न कहीं उस बचपन के बच्चे का अपने भीतर होना एक बहुत अच्छी बात है।
घुघूती बासूती
अच्चा है आप को लोग जैसा बनाना चाहते थे वैसे बन गए पर हम तो शायद न वही बन पाए जो लोग चाहते थे और न वो बन पाया जो मैं चाहता था.
बचपन की यादे कभी नहीं मिटती है .
kal hi padh rahi thi
time changes everything, accept something within us which is always surprised by change.
insaan banta wahi hai jo sarvashaktimaan use banana chahta hai, hum kathputli matra hain. ye mere vichar hain.
parivartan aaspaas hota hai shayad dil ya mann apna vajood kayam rakhta hai,sunder bhav hai kavita ke badhai.
बहुत अच्छा लगता है बचपन को याद करना ...
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