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Friday, March 20, 2009

अन्तरमन......[एक कविता ]

सोचता हूँ ,

क्या है अन्तरमन ?

और

क्या है बाह्यमन?

मन तो है-

केवल मन,

चंचल है,

उच्छल है,

एकाग्र है,

गंभीर है।

मेरा मन ,

तेरा मन।

9 comments:

आलोक सिंह said...

मन बड़ा ही चंचल है .

अनिल कान्त said...

आपके मन की बात अच्छी लगी

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

रंजू भाटिया said...

मन की बात सुन्दर कही आपने

Anonymous said...

आपका मन। हमारा मन। हम सब का मन।

Yogesh Verma Swapn said...

man ko bha gai tumhari"man".

mamta said...

मन एकाग्र है चंचल है ।

बिल्कुल मन की कही ।

मोहन वशिष्‍ठ said...

ये मन बडा चंचल है
जितना इसे समझाऊं
उतना ही मचल जाए

बहुत खूब

Rakesh Mishra said...

थोड़ी अलग शैली की कविता लगी आपकी। पहले तो लगा की शायद मै पूरी कविता देख नही पा रहा हूँ लेकिन फ़िर एहसास हुआ की कविता इतनी ही है। कई बात ऐसा होता है की कविता के भाव कुछ शब्दों में ही सिमटे होते हैं और हम लंबा बयां ढूँढते हैं...खैर...अब समझ में आई आपकी शैली...और आदतन, एक कवि की भेंटस्वरुप, आपकी कविता को अपनी ४ पंक्तियाँ समर्पित कर रहा हूँ....

अंतर्मन बस एक झरोखा
सच है या फ़िर कोई धोखा
मन की गति तो मन ही जाने
भला सोंच के भी क्या होगा

चाल न समझूं, रंग न जानू
किसी रूप में न पहचानू
अभी परे है मेरी समझ के
फ़िर भी इसकी बात मै मानू

आखिर क्या है ये मन
चिंतन?
स्पंदन?
या बस एक कल्पना का बंधन?

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर ... मन पर रचना।