जी करता
उनमुक्त गगन में उड़ चलूँ,
तुम्हारे सुर्ख होंठों पे,
अपने होठ धरूँ।
जी करता
तुम्हें बाहों में भरू,
और मुट्ठी भीच ,
तुम्हें अपने में समेट लूँ।
जी करता
तुम्हारी सांसो की महक,
अपने सीने में भरूं,
कुछ कदम साथ चलूँ,
और संग कुछ कदम रोक लूं।
एहसास करता हूँ-
तुम मेरी हर चाहत पर ,
एक लकीर खीच देती,
हर एक रोज,
कल का वादा कर,
कुछ बंदिशें याद दिला देती,
ये नासमझ
इतना तो समझ
प्यार समर्पण है
एक हो जाने का ,
ना ही लकीर,
ना ही बंदिशों का।
6 comments:
निशू जी, बहुत जानदार नगमें शाया किये हैं आपने।
मैं सोचता हूं कि आखिर मैं इतना अच्छा क्यों नहीं लिख पाता। खैर,
हर किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता,
किसी को जमीं, तो किसी को आस्मां नहीं मिलता।।
प्यार समर्पण है
एक हो जाने का ,
ना ही लकीर,
ना ही बंदिशों का।
बहुत सुन्दर कविता , एक-एक लें चुन-चुन के लिखी गयी हैं .
प्यार समर्पण है
एक हो जाने का ,
ना ही लकीर,
ना ही बंदिशों का।
behad sunder
नीशू भइया मुझे याद है मेरा बचपन मैंने सुना था " सौ पढ़ा एक प्रतापगढ़ा".... आपकी रचना सुंदर है लेकिन भाई एक निवेदन है कि मीडिया व्यूह की पंच लाइन के अनुसार इसे बनाए रखें, खबरों की आलोचना, विवेचना और समीक्षा जारी रखें...।
सप्रेम
डा.रूपेश श्रीवास्तव
badhia hai neeshu , sahi jaa rahe ho.
बहुत सुन्दर!!
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