जन संदेश

पढ़े हिन्दी, बढ़े हिन्दी, बोले हिन्दी .......राष्ट्रभाषा हिन्दी को बढ़ावा दें। मीडिया व्यूह पर एक सामूहिक प्रयास हिन्दी उत्थान के लिए। मीडिया व्यूह पर आपका स्वागत है । आपको यहां हिन्दी साहित्य कैसा लगा ? आईये हम साथ मिल हिन्दी को बढ़ाये,,,,,, ? हमें जरूर बतायें- संचालक .. हमारा पता है - neeshooalld@gmail.com

Friday, September 21, 2007

मुझको भूल जाना और मुस्कराना तुम


मुझको भूल जाना और मुस्कराना तुम ,
न मुझको याद करना तुम और न ही याद आना तुम।
तेरी तस्वीर सजा रखी है मैनें दिवार -ए-दिल पर अपने,
उसी के सहारे काट दूगां जिदगी को मैं,
मगर ये बात याद रखना तुम,
मुझको भूल जाना और मुस्कराना तुम।
ये मानकर चलना कि कोई मुशाफिर था,
जो पल में ही बन गया अपना,
और कर गया दीवाना,
फिर अगले ही पल न जाने कहां खो गया इस जमाने में।
यहां तुम मान लेना कि -
था कोई सपना
या कोई अफसाना,
और फिर यही बात गुनगुनाना तुम,
मुझको भूल जाना और मुस्कराना तुम।
न मुझको याद रखना तुम और न ही याद आना तुम।
वैसे भी क्या यह मिलना, कम था किसी चमत्कार से कम,
कुछ पल ,कुछ घड़ी में बंध गये हम जन्मों के लिए।
और बिछडे तो ये कहते हुए- मुझको भूल जाना और मुस्कराना तुम ,
न याद करना तुम और न ही याद आना तुम?????????????????????

2 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

सच कहूँ तो यह कविता, कविता के पैमानो पर जमीं नही है।

कुछ पक्तियों में आप भटक रहे है। शब्‍दों का हेर फेर कर इसे और भी सुन्‍दर बनाया जा सकता था।

कविता का भाव बहुत सुन्‍दर है किन्‍तु उतना न्‍याय आपने शब्‍दों के साथ नही किया।

आपको भरमाना मेरा मकसद नही है सिर्फ इतना कहूँगा कि लेखनी के साथ न्‍याय करों अन्‍याय नही।

संजीव कुमार said...

अच्छी कविता है.