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Wednesday, September 26, 2007

दिल के जज्बात।


सामने वाली खडकी में एक चादँ है,
वैसे तो चांद रात में ही निकलता है,
पर
ये चांद वक्त बे वक्त निकल आता है।
इस तरह से निकलना और फिर छिप जाना,
बहुत ही तडपाता है।
न जाने कितनी बार कई-२ घण्टे गुजारे हैं मैनें,
उसके दीदार के लिए?
न जाने कितनी ही रातें काटी है,
एक झलक पाने के लिए?

वैसे तो पता है उसको भी,
कि
कोई अपना है जो नजरें बिछाये राह तकता रहता है
उसकी,
पर वह करे भी तो क्या?
उसकी भी तो है कुछ मजबूरी,
उसकी भी तो है कुछ परिधि,
कुछ सीमाएं,
कुछ सरहदें।

वह भी जगमगाना चाहती है,
हमको बताना चाहती है, कि
जो तुम्हारे रास्ते है,
जो तुम्हारी मजिंले है,
मै भी तो उस पर चलना चाहती हूँ,
उसको पाना चाहती हूँ।

पर कह नहीं पाती कुछ भी,
क्या कहना ही जरूरी है हर बात को?
नहीं।
वह तो कहती है सब कुछ अपनी झुकी नजरों से,
अपनी खामोशियों से,
मैं महसूस करता है इस अनकहे जज्बात को,
उसके प्यार को।
बस एक बार सुनना चाहता हूँ तुमसे।
मुझे यकीन है तुम तोडं दोगी,
सारी बंदिशें , सारी सरहदें,
और
आओगी मेरे पास।
कहोगी अपने दिल के जज्बात।

1 comment:

Preeti Mishra said...

Dil ke jazbaat kahna chahun to kahun kaise...
Iski bhii kuch siimaein hain...
baat Ankhon se samjh lo to jane...
kaise aaun zulmi yeah zamana hai..
Khud kii parvaah nahi mujhko...
main to ek sapna huun
jo basti huun teri ankhon mein...
Gar a gayi samne to sapna toot jayega...
Tera yeah maasum sa dil khud se rooth jayega...