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Thursday, March 27, 2008

क्या सामाजिक सोच में ही है बुराई?

समाजसेवा की बात आते ही ही हम अपने पैर पीछे खींच लेते है। अनेक बुराई होने पर भी हम विश्व में अभी भी सबसे अच्छे है। बात बाल विवाह की करें या फिर दहेज प्रथा की ।इन बुराइयों को हम हमेशा ही देखते है और देख कर आंख मूद लेते हैं।अपने आप में इतना स्वारथी होना कभी -कभी खुद के लिए बहुत ही घुटन भरा होता है। समाज को पढ़ा-लिखा करने की बात होती है हमेशा ही ,पर मेरा ये मानना अभी भी है कि जो जितना पढ़ा-लिखा होता या जितनी ऊँची पोस्ट पर होता है ,उसको उतना ही दहेज मिलता है वह आराम से लेता भी है ।
मैं मानता हूँ कि अगर मेरे बहन होति और जब हम उसकी शादी कहीं करते तो हमें दहेज जरूर देना होता कयों कि दहेज आज के समाज में मानव मुल्यों और उनके स्तर को नापने का तरीका है। यहां पर क्या पढ़ाई का कोई योगदान है इस बुराई को हटाने में। नहीं बिल्कुल भी नही। हमसे कुछ साल पहले मां ने पूछआथा कि तुम क्या दहेज लोगे तो मैने कहा था कि हां लूँगा कयोनंकि शादी एक ही बार होती है और इस मौके को कैसे जाने दूँगा। मेरी सोच अपरिपक्कव थी । पर जब दुनिया में कदम रखा तो यहसंकल्प किया कि कम से कम में इस बुराई को तो स्वयं में नही आने दूगा। समाज को नहीं बदल सकता पर खुद को बदलूँगा।। वैसे भी एक -एक के परिवर्तन से ही समाज बदलता है।
हां तो बात यह थी जो अपनी बहन के लिए दहेज देता है वह अगर चाहे तो दहेज न ले और इसके लिए उसे कोई भी मजबूर नही कर सकता है हां ये जरूर हो सकता है कि परिवार के कुछ लोगो के आशाओं पर प्रभाव पड़े जिन्होंने कुछ सपने पाल रखे होगे दहेज से।।
वैसे भी कुछ अच्छा करने के लिए हमेशा ही विरोध हुआ है और होता ही रहेगा । स्वयं से यह बात लानी होगी किसी के कहने से नही । खुद प्रयास करना होगा।।

14 comments:

rakhshanda said...

u r right.

Dr SK Mittal said...

You are right. Mother in law though face the same scene as daughter in law and plans to keep her daughter in law as a daughter. BUT when she becomes mother in law normally forget that she was also daughter in law earlier.

Keep it up

रश्मि प्रभा... said...

समाज की कड़वी सच्चाई को बड़े सहज ढंग से उतारा है,
निःसंदेह बदलाव खुद में लाने की ज़रूरत है.......

surabhi said...

dahej ek abhishap ban gaee hai
aaj ke yuwa hi ispar kadorata se kadam uda kar ise mita sakte hai
aapne isme paha ki is ke liye badhee ke patr hai aap

surabhi said...

ail

Udan Tashtari said...

बिल्कुल सही फरमाया.

kriyanshu saraswat said...

agar aise soch sabhi kg ho jaye to sach mai ye world change ho jayega. tumne bilkul sach kha hai

kriyanshu saraswat said...

acha likha hai, agr aisa sabhi sochne lga to ye world jaldi he change ho jayega. sahi bat hai ydi world change krna hai to khud ko chane krna prega

kriyanshu saraswat said...

acha likha hai, agr aisa sabhi sochne lga to ye world jaldi he change ho jayega. sahi bat hai ydi world change krna hai to khud ko chane krna prega

kriyanshu saraswat said...

acha likha hai, agr aisa sabhi sochne lga to ye world jaldi he change ho jayega. sahi bat hai ydi world change krna hai to khud ko chane krna prega

vinodbissa said...

क्या सामाजिक सोच में ही है बुराई? .........
अच्छा विषय है........ मेरा मानना है की बुराई व्यक्ति विशेष या व्यक्तियों में हो सकती है ..... समाज मैं नहीं... अगर समाज में बुराई होती तो ..... अच्छी बाते जो होती हैं फिर उसका आधार क्या..?.. एक बात आपने अच्छी कही है की ''एक -एक के परिवर्तन से ही समाज बदलता है।''........... वास्तव मैं यह कहावत भी है की ..हम बदलेगे युग बदलेगा , हम सुधरेंगे युग सुधरेगा ...... तो आपका चिंतन एकदम सही दिशा की ओर है की बदलाव हमे अपने में स्वयम ही लाना होगा......

Unknown said...

आपके दिन प्रतिदिन चिठ्ठा पढ़ के ऐसा लग रहा हैं की आने वाली पीढ़ी शयेद इक नए समाज की रचना कर सके जिसमें सभी को बराबर का हक़ मिले और काले गोरे उच्च नीच का भेदभाव नहीं रहेगा ....

यह भी सही हैं की हम बदलेंगे तो समाज बदलेगा ....लेकिन यह शुरुवात कौन करेगा ....
मैंने कही पढा हैं की मनुष्य इक सामाजिक प्राणी हैं ....

और समाज को मनुष्य ने बनाया हैं....

लेकिन अब्ब बहुत देर हो चुकी हैं और हमें समाज के सोच को पहले बदलना पड़ेगा ...

जैसा अपने दहेज़ के मुद्दे को लिया हैं उसके लिए लड़की और लड़के पक्छ दोनों को राजी होना चाहिए दहेज़ न लेने के लिए और न देने के लिए....

A society is a grouping of individuals which is characterized by common interests and may have distinctive culture and institutions. Members of a society may be from different ethnic groups.

ऊपर के दिए हुए शब्दों को अगर परिभाषित करे तो यह ज्ञात होता हैं की सम्माज की रचना इक व्यक्ति की सोच नहीं बल्कि इक समूह हैं जहा पे कई तरह के विचारो वाले लोग मिलकर इक विचार बनाते हैं और उस पर अमल करने की कोशिश करते हैं...

समाज हम से बना हैं और समाज को हम बदल सकते हैं..

राज भाटिय़ा said...

देखो भाई समाज को बदलने की बात सभी करते हे, सिर्फ़ बात, ओर कुछ नही, हा अगर समाज कॊ बदलना हे तो पहले आप बदलॊ,समाज की बाद मे सोचो तुम बदलो गे तुम्हे देख कर सो नही तो एक दो तो जरुर बदले गे, फ़िर यह चलता रहे गा ओर हम कामजाब होगे, मेने २० साल पहले शादी की थी,बिना दहेज के,मेरी मां को बुरा लगा,फ़िर भाई की शादी मेने खुद अपने खर्च पर की लेकिन एक पेसा भी दहेज नही लिया,मे अकेला नही बहुत से लोग हे मेरी तरह से, आप नया रास्ता बनओ लोग खुद वा खुद आप के कदमो पर चले गे

Pramendra Pratap Singh said...

राज जी से सहमत हूँ, बदलना है तो पहले खुद को बदलों आपको बदलता देख समाज खुद बदलेगा।