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Friday, March 28, 2008

संस्कार या फिर परवारिश में आ रही है गिरावट

भारतीय समाज की अपनी अलग विशेषताहै ,जिसके कारण यह अपनने आप में विश्व के हर समाज से भिन्न है। मैंने कुछ दिनों पहले पहले धर्म और आस्था के विषय को चुना था । परआज समाज के महत्व को सामने रखने की इच्छा है। बात युवा पीढ़ी से करें तो हम आज विश्व के सबसे युवा देशमें गिने जाते हैं। और हमारे समाज के बागडोर अनुभव और समझदार बुजुर्गों के हाथ में होती है जो कि सही सलाह और सही मार्गदर्शन कराते हैं किसी भी पहलू पर ।।
जब हमारे यहां कोई बच्चा होता है तो ऊत्सव का माहौल होता है खुशियां मनायी जाती है । बच्चे को बचपन से लेकर युवा अवस्था तक पहुँचते हुऐ अनेक आचरण सिखाये जाते है। जैसे - बड़ों को सम्मान देना, माता पिता एवं अपने बुजुर्गों का आदर करना। बात संस्कार की आज मेरे मन में है जिसके लिए मैंने ये ताना बाना बुना है। हमने जिस संस्कार का विवरण ऊपर दिया है वो आज दिखते है पर ये संस्कार कुछ नकुछ धूमिल होते जा रहेंहै।। मैं ये नही कहता कि आज हमारेसंस्कार खत्म हो रहे है। पर कुछ न कुछ कमी जरूर हो रही, चाहे हो पालन-पोषण में हो या फिर परिवार के लोगों का बच्चों की परवरिश में आभाव हो।
हमारे नैतिक स्तर के स्तर में गिरावट हुई हैयह बात हम सब को माननी ही होगी।
हम अपने को बहुत पढ़ा ंलिखा होने पर बड़ों को सम्मान देना भूल जाते हैं ऐसा होते मैंने देखा है । आज के युवा का चलन आपने से बड़ों से मिलने का जो है वो है हाय, हैलोतक सीमित रह गया है।
कुछ दशक की बात करें तो हम अपने बुजुर्गों को झुककर पैर छूते थे ,यहां पर पैर छूने से जो मतलब था वो मात्र था सम्मान देने का ।
पर आज इस तरह के दृश्य हमको देखने को मिलता है कि जब बेटा बाप से मिलता है तो हाथ मिलाता है आखिर कहां गया वह भारत जहां कि हम अपने से बड़ो के लिए अपना स्थान छोड़ देते थे। । यह बदलाव विकास का है या फिर पाश्चात्य सभ्यता का है, जिसके की हम गुलाम होते जा रहें है। अच्छी बाते ं हमें हर समाज से लेनी चाहिए वो चाहे जितना बुरा कयों न हो पर बुरे समाज की बुराईयों को हम बहुत अच्छे से ले रहें है।
मुझे दुख हुआ तब जब मै आजअपने दोस्त के घर गया (जहां पर मुझे ये बताया गया था जकि हमेशा बडोंको आप सम्मान दो) वहीं मुझे उनसे हाथ मिलाना पड़ा । बहुत ही अटपटेतौर पर मैंने हाथ मिलाया और मन में यह बात बार-बार सोचता रहा कि क्याहमारे आजेहमसे दूर जा रहें है । कयों इतना बदलाव आगयाहममें । ।बाबा की बाते आज भी याद आती हैं हम को, कि भैया( साहब प्यारसे पुकारते थे) तू रोज सबेरे उठके अपने से जेतना जने बड़ा अहइ उनकै गोड़ धरा करा ( अवधी भाषा के शब्द थे ) ।
न जाने ये बात जादू जैसी लगती है।।

3 comments:

रश्मि प्रभा... said...

हम अपने को बहुत पढ़ा ंलिखा होने पर बड़ों को सम्मान देना भूल जाते हैं ऐसा होते मैंने देखा है । आज के युवा का चलन आपने से बड़ों से मिलने का जो है वो है हाय, हैलोतक सीमित रह गया है।
...........यही तो हर समझदार कह रहे हैं,
इतना अच्छा कैसे लिख लेते हो?

राज भाटिय़ा said...

हा गलती बच्चो की नही, गलती हमारी हे,जो गुण हमे अपने मां वाप से दादा दादी से मिले उसे हम ने ही उजड्ड ओर गवार कहा,अपने बच्चो कॊ गलत पहरावा, पश्चिम की सभ्याता से हम ने ही मिलवाया हे कही हमारा बच्चा ओरो से पिछड ना जाये. इसी दोड मे हम अपने संस्कार भुलते गये,हम ने तरक्की नही की, बल्कि पिछे की ओर जा रहे हे,
आप का धन्यवाद ऎसी चर्चा लाते रहे.

मीनाक्षी said...

राज जी से पूरी तरह से सहमत. इस गिरावट में कहीं न कहीं हम ही जिम्मेदार हैं. हम चाहें तो इन्हें किसी भी साँचें में ढाल सकते हैं.