प्रिये ,
क्यों अब आती हो इतनी देर से,
जबकि तुमको ये पता है कि -
मै कर नही पाता इंतजार,
कुछ ही पल में हो जाता हूँ बेकरार,
क्या तुम्हें कोई नया खेल सूझा है ,
मैंने तो तुम को ही पूजा है,
फिर आखिर क्यों आती हो इतनी देर से।।
जानती हो प्रिये -
अब तो करता हूँ मैं इंतजार हमेशा रात का और ,
उसमें तेरे साथ का ,
जब मिलते हैं हम दोनों कुछ पल के लिए ,
इन पलों में मैं जीता हूँ पूरी जिदगी,
पर
अब तुमने भी कम कर दिया आना ,
और
आती भी हो तो देर से,
क्या तुम भूल गयी हो मेरा प्यार ,
हम रह नही पाते थे एक दूसर के बिना,
सो नहीं पाते थे सारी - सारी रात ,
वो याद है पूनम की रात जब हम मिले थे बगीचे में ,
और पूरी रात गुजार दी थी हमने एक-दूसरे को ताकते हुए,
और फिर तुम अचानक सी जगी थी ,
आयी थी होश में जैसे,
हड़बड़ाहट में छोड़ गयी थी पाजेब निशानी अपनी,
शायद तुम तो भूल ही गयी हो ,
पर
मैं कैसे भूलूँ ,
यही तो हैं मेरे जीने का सहारा ,
मेरे जीने की ख्वाहिशें ,
हकीकत में नसही पर ख्यालों ,
ख्वाबोंें में तुम मेरी हो ,
कोई नही कर सकता जुदा हमको,
तुम भी नहीं।।
11 comments:
रचना की अंतिम पंक्तियाँ अच्छी लगी । बाकी पंक्तियों पर और भी मेहनत की आवश्यकता है।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
बढ़िया प्रयास है. लिखते रहें.
Aap Noida Mai Rahte Ho
Mujhese Milo
Apna Mobile No Do
मैं तन्हा कवि कि बात को समर्थन देता हूँ| आप प्रसंगों में भाव लाने में असमर्थ रहे है| आखरी पन्कतिया जानदार लग रही है|
गिरीश जोशी
अच्छी रचना।
जब मिलते हैं हम दोनों कुछ पल के लिए ,
इन पलों में मैं जीता हूँ पूरी जिदगी,
achchha likhai
yu hi likhate rahiye
MAN BHAAVAN
BADHAAIYAAN
यादों का खूबसूरत गुलदस्ता है ये
बहुत अच्छी
''मेरे जीने का सहारा''... नामक कविता के माध्यम से एक प्रेमी के मन में उठ रहे विचारों तथा उसकी बैचैनी को प्रस्तुत करने का बहुत अच्छा प्रयास किया है आपने ''निसू जी''........ शुभकामनाएं..
kuchh to hai is kavita mey. kai bar padhne k bad bhi padhti rahi unubhav karne k lie.bar bar ek mithi chubhan ka ahasas hua lumbi sanse bharti rahi.aur jo kavita pathak k mun tuk pahuch jaen wo kavita swayam hi sarthak bun jati hain. vakai mey kavita bahut uchchhi hai.aise hi dil k ahsas ko shabdon mey pirote rahie.
जनाब को नमस्कार, सप्रथम माफ़ी चाहूंगा, आपके सन्देश के मिलाने ठीक इक़ मुद्दत के बाद आपकी रचना पढ़ सका. कमेन्ट के रूप में रचना को ध्यान में रखते हुए यही कहूंगा कि बस लिखते रहिये, अच्छा लिख रहे हैं...रचना का शीर्षक बहुत अच्छा लगा...शुरुआत इक्दम बक्वाश रही (मेरे अनुसार) पूरी कविता में जो बहुत ही pra भाव्शाली रहा; वो पंक्तियाँ नीचे पेस्ट कर रहा हूँ.
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{क्या तुम भूल गयी हो मेरा प्यार ,
हम रह नही पाते थे एक दूसर के बिना,
सो नहीं पाते थे सारी - सारी रात ,
वो याद है पूनम की रात जब हम मिले थे बगीचे में ,
और पूरी रात गुजार दी थी हमने एक-दूसरे को ताकते हुए,
और फिर तुम अचानक सी जगी थी ,
आयी थी होश में जैसे,
हड़बड़ाहट में छोड़ गयी थी पाजेब निशानी अपनी,
शायद तुम तो भूल ही गयी हो ,
पर
मैं कैसे भूलूँ ,
यही तो हैं मेरे जीने का सहारा ,
मेरे जीने की ख्वाहिशें ,
हकीकत में नसही पर ख्यालों ,
ख्वाबोंें में तुम मेरी हो ,
कोई नही कर सकता जुदा हमको,
तुम भी नहीं।।}
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शुभकामनाओं सहित
सादर;
अमित के. सागर
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