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Tuesday, April 14, 2009

अनसुलझी वो ...........[एक कविता]

मुझमें ढूढ़ती पहचान अपनी
बार बार वो ,
जान क्या ऐसा
था
जिसकी तलाश थी उसको ,
अनसुलझे सवाल को
लेकर उलझती जाती
कभी मैंने साथ
देना चाहा था
उसकी खामोशियों को,
उसके अकेलेपन को ,
पर
वो दूर जाती रही
मुझसे ,
अचानक ही एक एहसास
पास आता है
बंधन का
बेनाम रिश्ते का ,
जिसमें दर्द है ,
घुटन है ,
मजबूरियां है,
शर्म है ,
तड़प है ,
उम्मीद है ।मैं समझते हुए भी
नासमझ सा
लाचार हूँ
उसके सामने
शायद बयां कर पाऊं कभी
उसको अपने आप में ।

8 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

नीशु जी,अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए है। सुन्दर रचना है।बधाई।

मोहन वशिष्‍ठ said...

वाह जी वाह अति बेहतरीन कविता के लिए आपको बधाई

हिन्दी साहित्य मंच said...

बेनाम रिश्ते का ,
जिसमें दर्द है ,
घुटन है ,
मजबूरियां है,
शर्म है ,
तड़प है ,
उम्मीद है ।मैं समझते हुए भी
नासमझ सा
लाचार हूँ
उसके सामने
शायद बयां कर पाऊं कभी
उसको अपने आप में ।

सुन्दर अभिव्यक्ति प्रस्तुत की इस रचना के माध्यम से ।बेहतरीन रचना के लिए बधाई

अजय कुमार झा said...

saral shabdon mein kafee bhaavpurn racnaa likh dee aapne, bahut sundar .

संगीता पुरी said...

अच्‍छी रचना बनी है ... बधाई।

सुशील छौक्कर said...

अच्छी और सुन्दर रचना।

अनिल कान्त said...

भाई जी छा गए तुस्सी ....

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

-कौतुक said...

सुन्दर भाव दुविधा मे प्राण का