मुझमें ढूढ़ती पहचान अपनी
बार बार वो ,
जान क्या ऐसा
था
जिसकी तलाश थी उसको ,
अनसुलझे सवाल को
लेकर उलझती जाती
कभी मैंने साथ
देना चाहा था
उसकी खामोशियों को,
उसके अकेलेपन को ,
पर
वो दूर जाती रही
मुझसे ,
अचानक ही एक एहसास
पास आता है
बंधन का
बेनाम रिश्ते का ,
जिसमें दर्द है ,
घुटन है ,
मजबूरियां है,
शर्म है ,
तड़प है ,
उम्मीद है ।मैं समझते हुए भी
नासमझ सा
लाचार हूँ
उसके सामने
शायद बयां कर पाऊं कभी
उसको अपने आप में ।
8 comments:
नीशु जी,अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए है। सुन्दर रचना है।बधाई।
वाह जी वाह अति बेहतरीन कविता के लिए आपको बधाई
बेनाम रिश्ते का ,
जिसमें दर्द है ,
घुटन है ,
मजबूरियां है,
शर्म है ,
तड़प है ,
उम्मीद है ।मैं समझते हुए भी
नासमझ सा
लाचार हूँ
उसके सामने
शायद बयां कर पाऊं कभी
उसको अपने आप में ।
सुन्दर अभिव्यक्ति प्रस्तुत की इस रचना के माध्यम से ।बेहतरीन रचना के लिए बधाई
saral shabdon mein kafee bhaavpurn racnaa likh dee aapne, bahut sundar .
अच्छी रचना बनी है ... बधाई।
अच्छी और सुन्दर रचना।
भाई जी छा गए तुस्सी ....
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
सुन्दर भाव दुविधा मे प्राण का
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