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Sunday, April 12, 2009

जर्नलिज्म की नहीं जरूरत है जरनैलिज्म की -----सब चाहते है भगत सिंह पैदा हो पर पड़ोसी के घर में[आलेख - ममता सिंह ]

जर्नलिज्म की नहीं जरूरत है जरनैलिज्म की.........................................दैनिक जागरण के जाने माने पत्रकार जरनैल सिंह के जूते ने जर्नलिज्म को नई दिशा दी है । जिस पत्रकारिता का मकसद लोगों के लिए आवाज उठाना था , वह आज सिर्फ पैसा कमाने तक सिमट गयी है । इस बात पर बहस करना बेकार है कि जरनैल सिंह ने सही किया या गलत , पर उनके इस कदम से अगर किसी को फायदा होता है तो इसमें बुरा क्या है ?

मेरा मानना है कि अगर आप उस वक्त नहीं बोले जब आपको बोलना चाहिए, तो क्या फर्क पड़ता है , चिल्लाते रहिये जीवनभर। आज पत्रकारिता का गिरता स्तर देखके बहुत अफसोस होता है । एक पत्रकार पर कितनी जिम्मेदारी होती है , पर आज न ही जिम्मेदारी कहीं नजर आती है और न ही जुनून ..............पत्रकारिता केवल ब्रेकिंग न्यूज तक सिमट हई है । हालाकिं पत्रकार रहकर समाज सेवा करना भी बेवकूफी है पर आप में अपनी आवाज बुलंद करने का जज्बा तो होना ही चाहिए । जिन युवाओं से उम्मीद है कि वह पत्रकारिता के नए युग की शुरूआत करेंगें उनके लिए जर्नलिज्म ग्लैमर से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

इसका मतलब यह नहीं है कि आप जूते , चप्पल चलाते फिरें, पर बोलिये वहां जहां कुछ गलत हो.............आवाज उठाइये , वहां जहां किसी की मदद हो सके । इन सबके बाद अगर आप बोलें तो क्या बोले ? इससे बेहतर तो खामोश रहना ही है । सब चाहते हैं कि " भगत सिंह पैदा हो पर पड़सी के घर में

9 comments:

हिन्दी साहित्य मंच said...

आज की पत्रकारिता का कोई मकसद नहीं दिखता ...........हां पैसा कमाना जरूर नजर आता है ....आज की पत्रकारिता का पैनापन राजनेता के हाथों हैं । कलम है पर सच लिखने के लिए नहीं । इस दवाब में ऐसी ही उम्मीद की जा सकती है । विरोध करने पर नौकरी का डर तो क्या खाक पत्रकारिता करेंगें ।

निर्मला कपिला said...

aji ye joota bhi dharamik unmand me hi chala hai varna aaj desh me kya nahi ho raha jarnail ka joota kyon chup raha

आलोक सिंह said...

सही कहा अपने सब यही चाहते है की भगत सिंह पैदा हो पर पड़सी के घर में ।जिससे उनपे कोई आंच न आये और सब ठीक भी हो जाये .
आज कल दिखावे का जमाना है , छोटी खबर को कितना बड़ा और बड़ी को कितना छोटा कर सकते है यही पत्रकारिता है .

Unknown said...

काहे की पत्रकारिता । बाजारवाद में आज व्यवसाय बन गयी है पत्रकारिता । जो लिखना नहीं जानते वो बैठे हैं संपादक की कुर्सी पर तो क्या उम्मीद रखी जाय । बोलना नहीं है , लिखना नहीं , ये नहीं करना , वो नहीं करना , हमारा ऐसा सिद्धान्त है तो क्या दिन दिखायेगी पत्रकारिता । कमाओ खाओ और मौज मनाओ बाकी जाये भाड़ में । हमसे क्या मतलब ? यही है वर्तमान परिदृश्य ।

Ashish Khandelwal said...

दिमागी दिवालिएपन पर अच्छा कटाक्ष किया है आपने.. आभार

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

ऐ शासक बतलाओ! कल को बुरे वक्त में,
कौन यहाँ पर अपनी गर्दन कटवायेगा?
शासन की काली करतूतें, देख-देख कर,
कौन बाप अपने लालों को मरवायेगा??

jitendra said...

patrakarita sirf kitaab me hoti hain ..media centre me to ek patrakaar sirf naukari karta hain aur paisa kamata hain.. ye main nahin news channel ke mere dost kahte hain

Anonymous said...

सब चाहते हैं?????? कि भगत सिंह पैदा हो पर पडोसी के घर में ....???

Kapil said...

नीशू भईया, तुम्‍हारी बात ही समझ नहीं आई। बात तो तुमने कहने को अच्‍छी कह दी लेकिन इसका निचोड़ क्‍या है। मुझे समझ में आया है कि जहां सही लगे वहां अपनी बात कहनी चाहिए। कहां कहनी चाहिए? जब समाचार संपादक आपको सनसनी और सिनेमा की कहानी लाने को कहे, जब आपकी राजनीतिक खबर का एंगल आपके अखबार का मालिक तय करता हो, या तब जब आम लोगों के मुद्दों को कूड़े में फेंक दिया जाता हो। आप अगर नौकरी करते हैं तो आप राय दे सकते हैं लेकिन जल्‍द ही समझ आ जाएगा ऐसी राय देने वाले कितने अनप्रोफेशनल माने जाते हैं। इसलिए भलाई इसी में है कि पत्रकारिता के साथ कोई आदर्श-वादर्श मत जोड़ो और इसे भी किसी और नौकरी के साथ मजे से किए जाओ। बुरा लग सकता है लेकिन समझना ही पड़ेगा कि पत्रकार कोई सोफ्टवेयर, कार, टीवी नहीं बल्कि अपनी मालिक की पसंद की खबर बेचने वाले कलमघिस्‍सू हैं। वैसे तुमने आखिर में कह भी दिया है कि भगतसिंह पड़ोसी के घर में पैदा हो। तो लोकप्रचलित मान्‍यता की लकीर पर चलते चलो भली करेंगे राम...