दिल्ली-६ फिल्म देखने के पहले बहुत ही उत्सुकता थी । राकेश ओम प्रकाश मेहरा की ये फिल्म प्रदर्शित होने से पहले बहुप्रचारित की गयी। फिल्म में पुरानी दिल्ली की गलियों को छानमारा गया है । फिल्म में कहानी के नाम पर तो कुछ खास नहीं है । जिससे पहले हाफ में फिल्म दर्शकों को बंधाने में असफल रहती है । लेकिन दूसरे हाफ में मेहरा साहब अच्छी वापस करते हैं और फिल्म को कुछ रोमांचक बनाने में सफल हो पाते हैं। दूसरे हाफ में फिल्म को हिन्दू मुस्लिम दंगों की पृष्ठभूमि से जोडते हैं। और अन्तत फिल्म का सुखद अन्त होता है ।
अभिनय के मामले में अभिषेक बच्चन के मुकाबले सोनम कपूर ज्यादा बेहतर नजर आती है । बाकी दिव्या दत्ता , विजय राज और कुलकर्णी के साथ साथ प्रेम चोपडा और ओमपुरी ने भी बढिया अभिनय किया है। फिल्म की पटकथा खास न होते हुए भी फिल्म अपने गानों के दम पर पैसा वसूल सकती है । ए.आर.रहमान का संगीत लाजवाब है । फिल्म में ससुराल गेंदाफूल............., और मसकली, और रैना , ये सभी गाने पहले ही हिट हो चुके हैं।
फिल्म को एक बार देखने में ज्यादा परेशानी न होगी । और साथ ही पुरानी दिल्ली सिल्वर स्क्रीन पर कैसे जचती है ।
अभिनय के मामले में अभिषेक बच्चन के मुकाबले सोनम कपूर ज्यादा बेहतर नजर आती है । बाकी दिव्या दत्ता , विजय राज और कुलकर्णी के साथ साथ प्रेम चोपडा और ओमपुरी ने भी बढिया अभिनय किया है। फिल्म की पटकथा खास न होते हुए भी फिल्म अपने गानों के दम पर पैसा वसूल सकती है । ए.आर.रहमान का संगीत लाजवाब है । फिल्म में ससुराल गेंदाफूल............., और मसकली, और रैना , ये सभी गाने पहले ही हिट हो चुके हैं।
फिल्म को एक बार देखने में ज्यादा परेशानी न होगी । और साथ ही पुरानी दिल्ली सिल्वर स्क्रीन पर कैसे जचती है ।
6 comments:
देखने की चाह थोड़ी और बेहतर हुई.
नही हम तो नही देखेगे, आधी मे बोर होये, फ़िर आधी मे वही दंगे फ़सांद.... ना बाबा ना , ना हमारे पास फ़ालतू समय ही है, ओर ना ही फ़ालतू पेसा,
धन्यवाद आप का दोनो को बचबाने के लिये
फिल्म मैने आज देखी। बहुत अच्छी लगी। मैं तो सबको यही कहूँगी कि अवश्य देखें। जैसा राज जी सोच रहे हैं वैसा बिल्कुल नहीं है। एक बार अवश्य देखें।
मैंने कल ही देखी है इसे ,ठीक-ठाक है , वैसे औसत कही जा सकती है यह फ़िल्म .
देख कर ही कुछ कह सकता हूं.
बहुत पहले दूरदर्शन पर एक फिल्म आयी थी, वो जमाना था दूरदर्शन का। फिल्म का नाम था उसकी रोटी। घर का कमरा आस-पड़ौस से भर जाता था लेकिन जैसे ही वो फिल्म शुरू हुई आखिर में मैं और एक और ही शेष बचे। कुछ दिनों बाद धर्मयुग में एक व्यंग्य छपा - सूर्यबाला का, जिसमें लिखा था कि एक आदमी को पागल कुत्ते ने काट खाया था और डाक्टर ने उससे कहा कि या तो चौदह इंजेक्शन लगाओ या फिर शहर में चल रही फिल्म को देख लो। कल वो ही वाकया याद आ गया। पहली बार 200 रू. एक टिकट के बहुत खले।
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