मीडिया रेग्युलेटरी को लेकर पत्रकारों ने जंतर मंतर पर मार्च करके इसके खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराया । भारत में वैसे तो मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है । पर इस स्तम्भ को कमजोर करने के लिए सरकार के द्वारा जो प्रयास किये जा रहे हैं वो निंदनीय है ।लोकतंत्र के और तीनों स्तम्भ को देखा जाय तो यह चौथा और आखिरी पाया बहुत ही मजबूती से अपना कार्य कर रहा है । अन्य तीनों पायों के तुलनात्मकता के हिसाब से यह पाया अभी भी बहुत हद तक सही दिशा में कार्य कर रहा है । मीडिया पर हमेशा ही यह आरोप आता रहा है कि वह अपनी मर्यादा से बाहर काम करती है । जो मुद्दे नहीं दिखाने चाहिए उसे भी बहुत ही मसाले दार तरीके से दिखाया जाता है । पर यहां पर मीडिया अपनी बात बहुत ही बेबाकी से कहती है कि " हम वही दिखाते हैं जो समाज में हो रहा है । और लोग वही देखना भी चाहते हैं। " पर कुछ जगह पर मीडिया अपनी आचार संघिता का उल्लघन भी करती है । पर इसका यह मतलब तो नहीं कि इसे प्रतिबंधित किया जाय ।
भारतीय संविधान की धारा १९ ए में स्वातंत्रता और अपनी बात को कहने का अधिकार देती है और दूसरी तरफ इस कानून के विपरीत नया प्रावधान लागू करके दायरे को सीमित करना चाहती है । यह बात बहुत ही निराशा पूर्ण है । मीडिया का अर्थ मात्र प्रिंट और इलेक्ट्रानिक न होकर फिल्म , एडवर्टाइज, एवं अन्य विधाओं से भी होना चाहिए ।क्यों कि समाज का स्वरूप हमें मीडिया के हर हिस्से से मिलता है न कि केवलम समाचार से ही । यहां यह बात साफ करनी होगी सरकार को कि किस मीडिया की बात सरकार कर रही है ।
खामियां सब में हैं । पहले कार्यपालिका और न्यायपालिका में सुधार करें तो यहां पर बेहतरी की ज्यादा उम्मीद करें । कोई भी सरकार आपने को दूध का घुला नहीं कह सकती है । तो पहले ऐसे में अपना दामन देखें फिर दूसरओं पर उंगली उठायें।
मीडिया का स्वरूप भी समाज ही तय करता है । समाज के क्रिया कलाप से ही मीडिया खबर खोज कर दिखाती है । तो व्यवस्था में सुधार से ही सब सुधार सम्भव है । पर यह मुमकिन नहीं है कल्पना मात्र है । तो प्रयास यह होना चाहिए कि जो भी परिवर्तन किये जाये वो आम राय और आम सहमति से हो तो बेहतर होगा । अन्यथा चारों स्तम्भ का एक साथ , एक जुट होकर काम करना सम्भव न होगा । ऐसे में स्थिति बेहतर के बजाय बद्तर हो सकती है ।
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