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Wednesday, August 1, 2007

फैसला मुम्बई बम काण्ड का


फैसला मुम्बई बम काण्ड का


आखिरकार १९९३ के मुम्बई बम विस्फोट मामले में प्रतीक्षा की लगभग सभी घडियां समाप्त हो गई। यह मामला कई मायनों में ऐतिहासिक है। सबसे पहले तो यह कि विश्व में अपनी तरह की इस पहली व्यापक आतंकी वारदात की सुनवाई ने एक रिकार्ड बनाया। इसके अतिरिक्त बम विस्फोट की साजिश के सरगना के हाथ न आने के बाद भी कई अभियुक्त को फांसी की सजा सुनाई गई। इस मामले मे फिल्म अभिनेता संजय दत्त को छह साल की सजा सुनाया जाना भी अपने आप में मिसाल है। यह सम्भवतः पहली बार है जब किसी इतनी जानी-मानी और लोकप्रिय हस्ती को सलाखों के पीछे जाना पडा - और वह भी तब जब उसे आतंकी नहीं माना गया। मुम्बई बम काण्ड फैसले अनेक सवाल खडे कर रहे हैं? पहला सवाल यह है कि क्या आतंकवाद को अपने बलबूते कुचलने का दावा करने वाले देश में देशद्रोह के अभियुक्त को सजा इतना लम्बा समय लगना चाहिए ? निश्चित रूप से तमाम जटिलताओं और कानूनी बाध्यताओं के बावजूद इस मामले में सजा सुनाने में जरूरत से ज्यादा देर हुई। आतंकी गतिविधियों में लिप्त लोगों को सजा सुनाने में इतनी देरी करके हम आतंकवाद को से लड नहीं सकते । विडम्बना यह है कि आतंकवाद से जुडे अन्य मामलों में भी आतंकियों को सजा सुनाने में बहुत देर हो रही है।इसका ताजा उदाहरण है १९९५ के बेअंत सिंह हत्याकाण्ड में१२ वर्ष बाद अभियुक्त को सजा सुनाया जाना। इन दोनों मामलों में सजा सुनाई गई उसे अन्तिम फैसला कहा जा सकता है। इन फैसलों के खिलाफ ऊंची अदालतों का दरवाजा खटखटाया जाना स्वाभाविक है। कोई आश्चर्य नहीं कि इन दोनों मामलों के अभियुक्तों को अन्तिम रूप दे सजा सुनाने में अभी देरी हो।

निश्चित रूप से यह ठीक नहीं कि देश को दहला देने वाले मामलों का निबटारा इतनी देर से हो कि उनका प्रभाव ही समाप्त हो जाय। आखिर कौन नहीं जनता कि न्याय में देरी एक प्रकार से अन्याय ही है। जब आतंकवाद से जुडे मामलों का निपटारा होने में आवश्यकता से अधिक विलम्ब होता है तो समूचे राष्ट्र के साथ अन्याय होता है। मुम्बई बम विस्फोट मामले में जहाँ तक संजय दत्त को छह वर्ष की सजा सुनाने की बात है,सजा की घोषणा होते ही उनके प्रति और अधिक सहानुभूति उमडना सहज ही है। अगले कुछ दिनों में संजय दत्त के प्रति और अधिक सहानुभूति देखने को मिल सकती है। इस सहानुभूति का एक अपना महत्व है।लेकिन यह ध्यान रहे कि कानून न तो भावनाओं की परवाह करता है और न ही व्यक्ति विशेष की लोकप्रियता अथवा उसकी सामाजिक पृष्टभूमि को देखता है। संजय दत्त को सजा सुनाया जाना इस बात का प्रमाण है कि कानून की नजर मे सभी बराबर हैं, लेकिन क्या कारण है कि हमारे देश में ऐसे प्रमाण दुर्लभ है? सच तो यह है कि ऐसे मामले उगलियों पर गिने जाने लायक नहीं है। सारा राष्ट्र इस बात को अच्छी तरह जानता-समझता है कि पैसा और प्रभाव रखने वाले लोग अंततः किसी न किसी तरह बच ही निकलते हैं। स्पष्ट है कि संजय दत्त का उदाहरण रखकर ऐसा दावा नहीं किया जा सकता कि कानून की निगाह में सभी बराबर हैं और वह किसी के प्रति कोई भेदभाव नही करता।


प्रेषक
निशान्त

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