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Thursday, November 1, 2007

बदलते चेहरे

हर चेहरे के पीछे कई चेहरे नजर आते हैं,
ज़रा ये नकाब उठाकर तो देखो।
कितना मुश्किल है सब के लिए अलग सा हो पाना,
पर इन्सान है की फितरत है बदलने की।
आखिर हैरान होता हूँ देखकर मैं इन लोगों को, कोशिश
करता हूँ समझने की इसके अस्तित्व को ।
पर हमेशा ही नाकाम रहा हूँ। आसान नहीं होता,
ये दिखावे भरी दोहरी जिन्दगी जीना ,
पर कुछ है जिन्हें अच्छा लगता है इस तरह बदलना,
मानव की प्रकृति रही है ,हमेशा से शिखर तक पहुचने की ,
मुश्किल रास्ते को आसानी से पाने की तो
, कपट ,द्वेश कर ही मानव पहुच पाता है आज अपनी मंजिल पर
स्वार्थ में सब बदले है ऐसे की मानवता का अस्तित्वखो सा गया है,
मैं सोचता हूँ कि बचा लूँ अपने को ,
कि कही एक दिन खुद ही न शिकार हो जाऊ ।

1 comment:

बालकिशन said...

कोई नही बच पाता है जी. अगर आप बचे है तो करम है उपरवाले का. अच्छी कविता के लिए बधाई.