शाम की छाई हुई धुंधली
चादर से
ढ़क जाती हैं मेरी यादें ,
बेचैन हो उठता है मन,
मैं ढ़ूढ़ता हूँ तुमको ,
उन जगहों पर ,
जहां कभी तुम चुपके-चुपके मिलने आती थी ,
बैठकर वहां मैं
महसूस करना चाहता हूँ तुमको ,
हवाओं के झोंकों में ,
महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारी खुशबू को ,
देखकर उस रास्ते को
सुनना चाहता हूँ तुम्हारे पायलों की झंकार को ,
और
देखना चाहता हूँ
टुपट्टे की आड़ में शर्माता तुम्हारा वो लाल चेहरा ,
देर तक बैठ
मैं निराश होता हूँ ,
परेशान होता हूँ कभी कभी ,
आखें तरस खाकर मुझपे,
यादें बनकर आंसू उतरती है गालों पर ,
मैं खामोशी से हाथ बढ़ाकर ,
थाम लेता हूं उन्हें टूटने से ,
और
चुप होकर मैं
फीकी मुस्कान लिये ,
वापस आ जाता हूँ ,
एक नयी शुरूआत करने ।। ,
6 comments:
वाह भाई क्या खूब कहा आपने इस रचना के माध्यम से....दिल के एहसास को बयाँ किया है
कविता को सजीव कर दिया है आपने । बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति सरल शब्दों के माध्यम से । शुभकामनाएं
भाई वाह नीशू जी क्या बात है, आप ने अपने एहसास को लाजवाब तरीके से पिरो कर प्रस्तुत किया है। बहुत-बहुत बधाई
sunder abhivyakti. badhai.
वाह जी वाह कितनी सहजता से कितनी सरलता से आपने कविता में जान डाल दी बहुत खूब
bahut achi abhivakti hai bhawnaon ki badhai ho.....
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