हमारे समाज में कुछ प्रगतिशील महिलाओं का मानना है कि भगवान मनु स्त्री विरोधी थे। क्या जो मनु मनु-स्मृति हम पढ़ते और देखते है वह प्रमाणिक है ,, और अगर है तो कितने प्रतिशत ,, क्या ये वहीमनु-स्मृतिहै जो भगवान् मनु ने लिखी थी और पूर्ण शुद्ध रूप में हमारे सामने है ,,,, अगर ऐसा है तो इसके श्लोको में
इतना विरोधाभाष कैसे ,,, लिखने वाला एक चतुर्थ श्रेनी का लेखक भी जब अपने विषय के प्रतिकूल नहीं होता तो भगवान् मनु ने अपनी एक ही पुस्तक में इतना विरोध भाष कैसे लिख दिया ,,, एक जगह वो स्त्रियों की पूजा की बात करते है और दूसरी जगह उनकी दासता की ,, कही न कही कोई न कोई घेल मेल तो है,,,, अब वो घेल मेल क्या है उसे देखने के लिए हमें कुछ विद्वानों की ओर ताकना होगा और उनके कई शोध ग्रंथो को खगालना होगा ,,, यहाँ पर ये बहुत महत्व पूर्ण तथ्य है की हमारे जयादातर गर्न्थो का पुनर्मुद्रण और पुनर्संस्करण अग्रेजी शासन में हुआ और जयादातर अंग्रेज विद्वानों के द्बारा ही हुआ ,,, जिनका एक मात्र उद्देश्य भारत को गुलाम बनाना और भारतीय सभ्यता और संस्क्रती को नस्ट करना था,, कहीं कहीं पर उनका आल्प ज्ञान भी अर्थ को अनर्थ करने के लिए काफी था यथा
यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते॥ (ऋग्वेद क्0.90.क्क्) अर्थात बलि देने के लिए पुरुष को कितने भागो मे विभाजित किया गया? उनके मुख को क्या कहा गया, उनके बांह को क्या और इसी तरह उनकी जंघा और पैर को क्या कहा गया? इस श्लोक का अनुवाद राल्फ टी. एच. ग्रिफिथ ने भी कमो-बेश यही किया है। रह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य कृ त:। ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भयां शूद्रो अजायत॥ (ऋग्वेद क्0.90.क्ख्) इस श्लोक का अनुवाद एचएच विल्सन ने पुरुष का मुख ब्राह्मण बना , बाहु क्षत्रिय एवं जंघा वैश्य बना एवं चरण से शूद्रो की उत्पत्ती हुई किया है। ठीक इसी श्लोक का अनुवाद ग्रिफिथ ने कुछ अलग तरह से ऐसे किया है- पुरुष के मुख मे ब्राह्मण, बाहू मे क्षत्रिय, जंघा मे वैश्य और पैर मे शूद्र का निवास है। इसी बात को आसानी से प्राप्त होने वाली दक्षिणा की मोटी रकम को अनुवांशिक बनाने के लिए कुछ स्वार्थी ब्राह्मणो द्वारा तोड़-मरोड़ कर मनुस्मृति मे लिखा गया कि चूंकि ब्राह्मणो की उत्पत्ती ब्रह्मा के मुख से हुई है, इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ है तथा शूद्रो की उत्पत्ती ब्रह्मा के पैर से हुई है इसलिए वह सबसे निकृष्ट और अपवित्र है। मनुस्मृति के 5/132 वे श्लोक मे कहा गया है कि शरीर मे नाभि के ऊपर का हिस्सा पवित्र है जबकि नाभि से नीचे का हिस्सा अपवित्र है। जबकि ऋग्वेद मे इस तरह का कोई विभाजन नही है। इतना ही नही इस प्रश्न पर इतिहासकारो के भी अलग-अलग विचार है। संभवत: मनुस्मृति मे पुरुष के शरीर के इस तरह विभाजन करने के पीछे समाज के एक वर्ग को दबाने, बांटने की साजिश रही होगी। मनुस्मृति के श्लोक सं1.31 के अनुसार ब्रह्मा ने लोगो के कल्याण(लोकवृद्धि)के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र का क्रमश: मुख, बाहू, जंघा और पैर से निर्माण किया। जबकि ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के रचयिता नारायण ऋषि के आदेश इसके ठीक उलट है। उन्होने सरल तरीके से (10.90.11-12)यह बताया है कि यदि किसी व्यक्ति के शरीर से मुख, बाहू, जंघा और पैर अलग कर दिया जाए तो वह ब्रह्मा ही क्यो न हो मर जाएगा। अब जब येसा है तो मनु स्मरति के किन श्लोको को प्रमाणिक कहा जाए और किन्हें नहीं इसको ले कर बहुत लम्बी बहस हो सकती है,, परन्तु इसका उत्तर भी मनु-स्मृति में ही छिपा है ,,, मनुस्मृति मे श्लोक (II.6) के माध्यम से कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है। मनुस्मृति (II.13) भी वेदो की सर्वोच्चता को मानते हुए कहती है कि कानून श्रुति अर्थात वेद है। ऐसे मे तार्किक रूप से कहा जा सकता है कि मनुस्मृति की जो बाते वेदो की बातो का खंडन करती है, वह खारिज करने योग्य है। चारों वेदो के संकलनकर्ता/संपादक का ओहदा प्राप्त करने वाले तथा महाभारत, श्रीमद्भागवत गीता और दूसरे सभी पुराणो के रचयिता महर्षि वेद व्यास ने स्वयं (महाभारत 1-V-4) लिखा है- श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते। तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृतिर्त्वरा॥ अर्थात जहां कही भी वेदो और दूसरे ग्रंथो मे विरोध दिखता हो, वहां वेद की बात की मान्य होगी। 1899 मे प्रोफेसर ए. मैकडोनेल ने अपनी पुस्तक ''ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर'' के पेज 28 पर लिखा है कि वेदो की श्रुतियां संदेह के दायरे से तब बाहर होती है जब स्मृति के मामले मे उनकी तुलना होती है। पेज 31 पर उन्होने लिखा है कि सामान्य रूप मे धर्म सूत्र भारतीय कानून के सर्वाधिक पुराने स्त्रोत है और वेदो से काफी नजदीक से जुड़े है जिसका वे उल्लेख करते है और जिन्हे धर्म का सर्वोच्च स्त्रोत स्थान हासिल है। इस तरह मैकडोनेल बाकी सभी धार्मिक पुस्तको पर वेदो की सर्वोच्चता को स्थापित मानते है। न्यायमूर्ति ए.एम. भट्टाचार्य भी अपनी पुस्तक ''हिंदू लॉ एंड कांस्टीच्यूशन'' के पेज 16 पर लिखा है कि अगर श्रुति और स्मृति मे कही भी अंतर्विरोध हो तो तो श्रुति (वेद) को ही श्रेष्ठ माना जाएगा ,, ऐसे मे मैकडोनेल सलाह देते है कि अच्छा होगा यदि स्मृति मे किसी बाहरी स्त्रोत के दावे/बयान को जांच लिया जाए। पर ब्रिटिश भारतीय अदालतो ने उनकी इस राय की उपेक्षा कर दी। साथ ही मनुस्मृति के वास्तविक विषय वस्तु के साथ भी खिलवाड़ किया गया जिसे ईस्ट इंडिया के कर्मचारी सर विलियम जोस ने स्वीकार किया है जिन्होने मनु स्मृति को हिंदुओ के कानूनी पुस्तक के रूप में ब्रिटिश भारतीय अदालतो मे पेश और प्रचारित किया था। मनुस्मृति मे ऐसे कई श्लोक है जो एक दूसरे के प्रतिलोम है और ये साबित करते है कि वास्तविक रचना के साथ हेरफेर किया गया है, उसमे बदलाव किया गया है। बरट्रेड रसेल ने अपनी पुस्तक पावर मे लिखा है कि प्राचीन काल मे पुरोहित वर्ग धर्म का प्रयोग धन और शक्ति के संग्रहण के लिए करता था। मध्य काल में यूरोप मे कई ऐसे देश थे जिसका शासक पोप की सहमत के सहारे राज्य पर शासनरत था। मतलब यह कि धर्म के नाम पर समाज के एक तबके द्वारा शक्ति संग्रहण भारत से इतर अन्य जगहो पर भी चल रहा था। यहाँ पर इतना लम्बा चौडा लिखने और कई लेखको की सहायता लेने का उद्देश्य यही है की पहले हमें मनु-स्मृति के श्श्लोको की प्रमाणिकता को सिद्ध करना होगा और प्रमाणिक श्लोको में अगर हमें कोई विरोधा भाष मिलता है और वो स्त्री विरोधी या समाज के किसी वर्ग विशेष के विरोधी मिलते है तो हमें निश्चित ही उनका विरोध करना चाहिए ,,, और मनु-स्मृति प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए हमारे पास केवल एक मात्र प्रमाणिक पुस्तक वेद ही है ,,, जिनकी साहयता से हम मनु-स्मृति के श्लोको की प्रमाणिकता जांच सकते है ,,,,, वैसे वैदिक समय में स्त्रियों की स्थिति क्या थी मै यहाँ लिखना चाहूंगा ,,,,, ऋग्वेद की ऋचाओ मे लगभग 414 ऋषियो के नाम मिलते है जिनमे से लगभग 30 नाम महिला ऋषियो के है। इससे साफ होता है कि उस समय महिलाओ की शिक्षा या उन्हे आगे बढ़ने के मामले मे कोई रोक नही थी, उनके साथ कोई भेदभाव नही था। स्वयं भगवान ने ऋग्वेद की ऋचाओ को ग्रहण करने के लिए महिलाओ को पुरुषो के बराबर योग्य माना था। इसका सीधा आशय है कि वेदो को पढ़ने के मामले मे महिलाओ को बराबरी का दर्जा दिया गया है। वैदिक रीतियो के तहत वास्तव मे विवाह के दौरान रस्मो मे ब्7 श्लोको के वाचन का विधान है जिसे महिला ऋषि सूर्या सावित्री को भगवान ने बताया था। इसके बगैर विवाह को अपूर्ण माना गया है। पर अज्ञानता के कारण ज्यादातर लोग इन विवाह सूत्र वैदिक ऋचाओं का पाठ सप्तपदी के समय नही करते है और विवाह एक तरह से अपूर्ण ही रह जाता है. प्रस्तुति - मिथिलेश |
1 comment:
v nice article............. thanx for sharing........
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