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Monday, October 22, 2007

बुराई पर अच्छाई की विजय


बचपन से ही भारतीय संस्कृति के बारे में सुनती चली आई हूँ। किस्से कहानियों के माध्यम से और टेलीविज़न पर धार्मिक नाटकों के माध्यम से रामायण, महाभारत जैसे पौराणिक गाथाओं को सुना, देखा लेकिन कभी महसूस नहीं कर पाती थी। धीरे-धीरे जैसे बड़े होते गए उनके मूल्यों और महत्वों को भी समझते गए। कॉलेज में जब अपने प्रोफ़ेसर से उनके दूसरे पक्षों को सुनती थी तो सोच कर आश्चर्यचकित हो जाती थी कि सत्य क्या है जो बचपन से सुना और देखा या जो कॉलेज में किताबों मे पढ़ कर जानकारी हासिल की।
एक ओर जहाँ राम, कृष्ण, भीष्म पितामह, पाण्डव का नाम सुनते ही एक विनम्र भाव मन में जागृत होती है वहीं रावण, दुर्योधन का नाम सुनते ही मन में एक ख़ीज उत्पन्न होती है।
लेकिन सोचा जाए तो ये भेदभाव आखिर क्यों है? मुख्य कारण है धर्म-अधर्म, नैतिकता और अनैतिकता। शायद इन्हीं कारणों के कारण इन महापुरुषों में भिन्नता देखी जाती है। जहाँ एक वर्ग ने धर्म और नैतिकता का मार्ग अपनाया वहीं दूसरे वर्ग ने अधर्म और अनैतिकता का मार्ग अपनाया।
कल दशहरा था बुराई पर अच्छाई की विजय। जहाँ राम रावण का नाश करते हैं। न जाने कहाँ से मेरे मन में एक सवाल आया रावण का विनाश तो सदियों पहले हो गया था, फिर क्यों इतने लंबे अर्से के बाद भी रावण को जलाया जाता है? आख़िर एक मरे हुए को कब तक मारा जाएगा। और वो वैहशी (आतंकवादी,लुटेरे) जो रावण के भेष में सरेआम आज़ादी की सांस ले रहे हैं उनका नाश कब होगा। लोग उन लोगों को कैसे माफ़ कर देते हैं? क्यों छोड़ दिया जाता है उन्हें ऐसे जो हमारे आस-पास मौजूद हैं। देखा जाए तो रावण मरा नहीं है, वह हर घर में भेस बदल कर रह रहा है। हमें उसे ख़त्म करने की आवश्यकता है। एक पुतले को जलाने से कुछ हासिल नहीं होगा।
प्रीती मिश्रा की कलम से

2 comments:

अनिल रघुराज said...

हमारे मिथकीय चरित्र राम और रावण हमेशा से रहे हैं और हमेशा रहेंगे। इसलिए हर युग में रावण का वध जरूरी है। सच्चाई ऐसे ही जीतते हुए आगे बढ़ती है। प्रीति जी ने अच्छा लिखा है।

Udan Tashtari said...

बढ़िया चली प्रीती मिश्रा जी की कलम, अच्छा लगा.