माँ !
मैं जब भी देखती हूँ
ख़ुद को सीढियाँ चढ़ते
और दूसरी तरफ़
तुम्हें ढलान से उतरते हुए
तो _मेरी तड़प का अवसान
एक कर्तव्य बोध मेंहोता है ।
माँ !
मैं जरा उच्च स्वर से पाठ करुँगी
ताकि तुम भी सुनो
इस बेसुरे गले से सिर्फ़ गीत ही नहीं निकलते
आतताइयों के खिलाफ
चिंगारी भी निकलती है ।
माँ !
एक गुजारिश है तुमसे
अपने गुजारे गए जीवन का एक अंश
मुझे भी जानने दो
थोडी सी भभक मुझे भी दो
कि _ मैं जला कर राख कर दूँ उन्हें
जिससे आने वाली माँ ओं को
न गुजरना पड़े
तुम्हारे गुजारे गए जीवन से _ _ _
प्रस्तुति - मधु
1 comment:
सशक्त लेखन आपके द्वारा । शुभकामनाएं
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