एजुकेशन इज माई राइट शायद ही इस वाक्य का अर्थ गरीब , मजदूर परिवार का बच्चा समझता हो । ऐसे राइट टू एजुकेशन बिल के पास होने के बाद भी बाल मजदूर और ऐसे परिवार की सोच में कोई खास फर्क नजर नहीं आता दिख रहा है । सरकार और प्रशासन को भले ही बाल मजदूर न दिखते हो पर हमको आपको बाल मजदूर ढूढ़ने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता न होगी । पास की चायवाली दुकान पर , या साइकिल पर पंचर बनाता वह लड़का या फिर सड़क पर भीख मांगते बच्चों की सबसे बड़ी जरूरत शिक्षा नहीं लगती बल्कि सबसे जरूर है " पेट की भूख " । अब किस तरह से राइट टू एजुकेशन का वास्तविक स्वरूप इन गरीब बच्चों तक पहुंच पायेगा ।
हमारे देश में कानून बना के सरकार भूल जाती है जिससे कानून पन्नों तक ही सीमित रह जाता है । सरकार की इच्छा शक्ति का आभाव नजर आता है । कानून का क्रियान्वयन पूरी तरह से नहीं हो पाता जिसका प्रभाव ये होता कि गरीब तबके के ये बच्चे लाभ से वंचित रह जाते हैं । सरकार को सबसे पहलेये देखना जरूरी है कि बच्चे आखिर क्यों स्कूलों तक नहीं जा पा रहें हैं । इस प्रकार से जो प्रमुख बात नजर आयेगी वह भूख ही है । इसलिए पहले पेट भरा रहे तब पढ़ाई भी होगी वरना अन्य कानूनों के जैसे यह कानून ही कानून बन कर रह जायेगा ।
1 comment:
नीशू जी मुद्दा आपने बहुत गंभिर उठाया है। अगर देखा जाये तो इसका जिम्मेदार कहीं न कही पढा लिखा समूह भी है, ठिक है सरकार है तो उसे काम करना चहिये लेकिन देश के जिम्मेदार नागरिक होने का हमारा क्या दायित्व है। जब हम बच्चो को चाय की दुकान पर देखते हैं तब हम क्या करते है जवाब कुछ नही। मित्र बस मु्द्दा उठाने से इसका हल नही होने वाला है, ज्यादा तो नही लेकिन हम अपने अस्तर से भी कोशिश कर सकते हैं।
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