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Thursday, June 11, 2009

हम जो कहते हैं क्या वही करते भी हैं ? आदर्शवादी बनना आसान है आज ?

कुछ भी बदलाव करना है तो शुरूआत खुद से ही करनी पड़ती है । वैसे किसी को कुछ भी अच्छा बताओ तो उसका जितना अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता उससे कहीं ज्यादा नकारात्मक प्रभाव सामने आता है । परन्तु यदि शक या अविश्वास की यह भावना सामने आती है तो सच में आपकी बात कहीं न कहीं अपना प्रभाव छोड़ रही है । उपदेश शायद ही किसी को पसंद हो क्योंकि मुझे खुद भी पसंद नहीं है । ( जब भी क्लास या फिर किसी सभा में ज्यादा आदर्शवादी बातें होने लगती है तो आसमान या फिर चलते हुए पंखे या पानी पीना ही बेहतर समझता हूँ ) । तो सीधा सीधा प्रश्न यह है किसी अपनी बात को किस तरह से पेश की जाये कि वह अपनी प्रवृत्ति कायम रखते हुए सामने वाले के पास पहुंच जाये ।

हम समाज में नेता या फिर इस तरह के लोगों को उदाहरण लेते हुए देख सकते हैं । कोई नेता जो भी कहता है उसका कुछ ही प्रतिशत कार्य करता है पर वह अपनी बात को जिस भी तरह से पेश करता है कि वह आकर्षित करती है सभी को । ऐसे में जरूरत यह हो जाती है कि सामने वाला तभी आप की बात को सुनेगा जब उसे उसमें मजा आयेगा ।

मैं हमेशा ही अपने दोस्तों से दहेज प्रथा के विरूध सदैव ही बात करता हूँ जब समय मिल जाता है । ज्यादातर इसे बुराई मानते हैं और खत्म तक करने की बात भी करते हैं कम से कम खुद के द्वारा ही ( कि मैं अपनी शादी में दहेज नहीं लूंगा ) । पर कुछ एक की शादी हुई तो मैं भी गया और देखआ कि खुब सारा दहेज लिया । जब बातद में मैंने सवाल किया कि भई आपने तो कहा था कि - ? तो जवाब मिलता है कि यार पापा और मम्मी ? इत्यादि बातें । ये तो रही पढ़े लिखे लोगों कि बातें ।
कभी जब गांव के कुछ लोगों से ऐसे मुद्दों पर बात होती है तो वो दहेज को एक समस्या मानते हैं पर दहेज लेने से पीछे नहीं रहते हैं अर्थात कहना कुछ और करना कुछ । अगर लड़की है तो दहेज एक बुराई और अगर लड़का है तो ठीक है । सब कुछ सही है । हम वो नहीं करते जो कहते हैं इसका सीधा सीधा कारण है कि कहना और करना दोनों अलग - अलग बातें हैं । कहने में क्या जाता है हां में हां मिलाकर अच्छे बन जाते हैं लेकिन जब समय आता है खुद उस समस्या से लड़ने का तो हथियार डाल कर सर झुका लेते हैं । इस लिए किसी को कहना या फिर बहस करना तो अच्छा है पर इस बात की गारंटी बिल्कुल नहीं कि वह जो कुछ कह रहा है वह उसकी अपनी खुद की सोच है। आदर्शवादी सोच को आगे बढ़ाना जितना आसान लगता है उससे कहीं ज्यादा मुश्किल हैखुद पर लागू करना । । इसलिए हम वहीं कहें जो हमारी करने की औकात हो ।

10 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

इसे मानेंगे हम ही
अमल भी हम ही करेंगे
पर सामने वाले की
गारंटी नहीं ले सकेंगे

Unknown said...

कहने में क्या जाता है कुछ भी कह दो पर करना सच में बहुत ही मुश्किल होता है ..............जो कि कम ही देखने को मिलता है । सुन्दर आलेख

Mustkeem khan said...

लोगों का काम केवल कहना ही है कुछ ही ऐसे हैं जो कहे हुए पर टिकते हैं । यह बदलाव नकारात्मक है । आज आदर्शवादी सभी बनना चाहते हैं पर कहीकत में कुछ और ही है । विचार १०० प्रतिशत सही है । हम वह नहीं करते जो कहते हैं । बधाई

शिव शंकर said...

सर जी आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ । मुखौटा कुछ होता है हकीकत कुछ और । अच्छा लगा पढ़कर । धन्यवाद

हिन्दी साहित्य मंच said...

रोचक आलेख । विचार अतिउत्तम है । आभार

अनिल कान्त said...

superb yaar ...mostly people r like that...nice article

Kavita Vachaknavee said...

सही है.

राज भाटिय़ा said...

नीशू भाई मेने बिना दहेज के शादी की है, जब कि मेरी मां को दहेज चाहिये था, ओर तीन साल तक मेरे से बात नही की, फ़िर भाई की शादी हुयी, शादी से पहले मेने मां से कह दिया कि शादी का सारा कर्च मै करुगां, लेकिन आप लोग दहेज मत लेना, वरना मै शादी मै नही आऊंगा, यानि मेरे भाई की शादी भी बिना दहेज के हुयी, अब मेरे दो बेटे है, ओर अगर यह बच्चे भारत मै या भारतीया लडकी से शादी करते है तो एक पेसा भी दहेज नही लूंगा.
राम राम जी की

राज भाटिय़ा said...

मेरे लेखो मै जो पढोगे मुझे वेसा ही पाओगे, कोन कहता है इमानदारी से आज के जमाने मै जीना कठीन है, बस एक बार जी कर तो देखो, कितनी शांति है, कितना मजा है,
आदर्शवादी बन कर जीना बहुत सुंदर है, बस ताकत चाहिये .

दिनेशराय द्विवेदी said...

आदर्शवाद सिर्फ ओढ़नी है। जो कहनें के अनुसार करता है वह तो यथार्थवादी है।