थैला थामे , बाजार जाते समय देखता,
पांचवी तक पढ़ी पिकी को,
शाम के वक्त,
शायद उसकी मां ने ,
पिंकी के बालों को
हरे रंग क फीते से बांधी होगी,
और
आखों में काजल की हो।
सड़क के किनारे ,
लकड़ी के सहारे लगी दुकान,
जिसे कुछ ईटों ने सहारा दे रखा थआ।
वह
कपड़ों की गठरी खोलती ,
कमीज की बांह को पलटती,
पानी छ़िडकती ,
जलती लकड़ी की धीमी आँच,
और धुआँ देती इर्त्री से,
चुमड़ी कमीज को सीधा करती।
शायद उसकी भी सिकुड़ती जिंदगी को कोई ऐसे ही सवारे।
देखता
यादव की चाय की दुकान को,
जहां बिखरी है ,
३-४ प्लास्टिक के स्टूल ,
और एक बोरा बेंच पर बिछा हुआ,
कुछ किशोर, कुछयुवा लड़को को,
जो सिगरेट के धुएं
और गुटके के पीक के बीच
बहस करते नौकरी, पैसा और
देश की हालत पर,
और बीच-बीच में नजर गड़ाये पिंकी के उभार पर
शायद
चाय के साथ
जरूरत पींकी की भी हो।
सूर्य प्रकाश जी की कलम से।
5 comments:
देखता हूँ मैं............
थैला थामे , बाजार जाते समय देखता,
पांचवी तक पढ़ी पींकी को,
शाम के वक्त,शायद मां ने ,
उसकी आखों में काजल और बालों को
हरे रंग के फीते से बांधा होगा ,
सड़क के कीनारे ,
लकड़ी के सहारे लगी दुकान,
जीसे कुछ ईटों ने सहारा दे रखा था।
वह
कपड़ों की गठरी खोलती ,
कमीज की बांह को पलटती,
पानी छीड्कती ,
जलती लकड़ी की धीमी आँच,
और धुआँ देती इस्त्री से,
चुमड़ी कमीज को सीधा करती।
शायद उसकी भी सीकुड्ती जींदगी को कोई ऐसे ही सवारे।
देखता
यादव की चाय की दुकान को,
जहां बीखरे है ,
३-४ प्लास्टीक के स्टूल ,
और एक बोरा बेंच पर बीछा हुआ,
कुछ कीशोर, कुछयुवा लड़को को,
जो सीगरेट के धुएं
और गुटके के पीक के बीच
बहस करते नौकरी, पैसा और
देश की हालत पर,
और बीच-बीच में नजर गड़ाये पींकी के उभार पर
शायद
चाय के साथ
जरूरत पींकी की भी हो।
प्रियवर - ५ साल की पींकी का सहारा लेकर कया कहना चाहते हो.
वीशय गंभीर है लेकीन उपमा और समापन सुधारीये.
अगर ५ साल की पींकी की जगह
कॉलेज से आती लड़कियों का झुंड जो
पूरे दीन की पढाई से चूर चूर, माथे पर लट बीख्राए,
अलसाई आँखों से बीजिलिया
गीराता रोज गुजरता है
और उनसे आँख लड़ाने को, देवी दर्शन पाने को,
चौराहे पर चाय की दुकान पर
मनचलों का टोला रोज आ सीमटता है
जो सीगरेट के धुएं
और गुटके के पीक के बीच
बहस करते नौकरी, पैसा और
देश की हालत पर,
और बीच-बीच में
नजर गड़ाये रंग बीरंगी तीतलियों के उभारों पर
और सपना देखते हुए काश
चाय के साथ इनका भी साथ होता।
यह क्य्सा दुर्भाग्य है की
देश का चरित्र इन चाय की दुकानों पर
एक चाय के प्याले पर नीलाम हो रहा है.
good,but kuch kadwe shabd gale se niche nahi utarte.......
bhai mujhe aapki kavita ka bahut jyada yatharth parak hona samajh me nahi aaya ?????????????? aap kya kehna chah rahe hain ????
dr mittal कि बात से सहमत हू
उपमा देने में इस बात ख्याल भी रखना चाहिए
उस बात के अनरूप है या नहीं
बाकि जो विषय है वो समाज कि विकर्तियोको दरसता है
इस के लिए साधूवाद
aapke kathan se sehmat hun.aajkal k naujawanon ko na jaane kya hota jaa raha hai.western culture k prati hamara lagaav hamari paaramparik sabhyata k liye khatraa banta jaa raha hai.acchha vishay hai.
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