चौराहे के किनारे बिखरी है जिंदगी,
देखता हूँ तीन-चार बंजारन बढ़ी औरत,
जिनके चेहरे पर,
बिखरी हैं झुर्रियां,
रोड डिवाइडर पर बैठ बिस्कुट खाती ,
और
मैंउनके चेहरे की उभरी लकीरों को पढ़ने की कोशिश करता,
कुछ दूर आगे देखता,
कुछ काली, कुछ सांवली,
जवान होती लड़कियां,
छीटदार घाघरा ,बड़ी कमीज पहने,
अपनी लज्जा अखबार से छुपाये,
अखबार ही बेचती,
देखता बारीक नजरों से,
सड़क से गुजरते उन राहगीरों को ,
जिनकी नजर अखबार पर कम
और उनके कमीज के टूटे बटन के बीच झांकते नाभि पर ज्यादा रहती ।
सूर्य प्रकाश जी की कलम से
8 comments:
चौराहे का सजीव चित्र आँखों के आगे घूम गया,
बेहतर......
चलताऊ बिंबों की रेलमपेल.. नौवें दशक में थोक के भाव लिखी गई कविताओं का एक हिस्सा...
निशु जी आपकी रचना ''चौराहे पर जिंदगी'' .... गिरते सामाजिक मूल्यों को प्रदर्शित करती है और बखूबी करती है .... आज लोगों कि भावनाओं में शुद्धता का आभाव सर्वत्र देखने को मिल रहा है ........... लोगों कि सोच गलत दिशा कि ओर भागती जा रही है .. आपने अपनी कविता के माध्यम से लोगों को चिंतन का मौका दिया उसके लिए आप बधाई के पात्र हैं...... शुभकामनाएं........
निसू जी
देर से सही निगाह तो गयी
गिरते आदर्शो कि और
ख़तम होती समवेदन शीलता कि ओर
आज के युवा इस आवाज को उठाए
समाज को सलीके से जीना सिखाये
बहुत-बहुत शुक्रिया चोराहे कि जिंदगी
बहुत अच्छी लगी
चौराहे पर जिंदगी
"चौराहे पर जिंदगी"मीडिया व्यूह पर पोस्ट neeshoo: की कविता के तेवर सत्य के करीब न हीं सत्य ही है ।
is link pe bhee dekhie=>http://mukulbillore.blogspot.com/2008/04/blog-post_02.html
बहुत बढ़िया कविता है बधाई लिखते रहिये
बहुत खूब जी बहुत सुंदर लगी यह
ek caurahe ka isse achha sajeev chitran nahin ho sakta hai.is rachna ko padhkar chaurahe ka chitra ubhar aaya hai..............
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