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Saturday, April 5, 2008

समर्पण......

जी करता
उनमुक्त गगन में उड़ चलूँ,
तुम्हारे सुर्ख होंठों पे,
अपने होठ धरूँ।
जी करता
तुम्हें बाहों में भरू,
और मुट्ठी भीच ,
तुम्हें अपने में समेट लूँ।
जी करता
तुम्हारी सांसंो की महक,
अपने सीने में भरूं,
कुछ कदम साथ चलूँ,
और संग कुछ कदम रोक लूं।
एहसास करता हूँ-
तुम मेरी हर चाहत पर ,
एक लकीर खीच देती,
हर एक रोज,
कल का वादा कर,
कुछ बंदिशें याद दिला देती,
ये नासमझ
इतना तो समझ
प्यार समर्पण है
एक हो जाने का ,
ना ही लकीर,
ना ही बंदिशों का।

7 comments:

manas bharadwaj said...

bhai achi kvita hai

GIRISH JOSHI said...

Just showing a side of mind and feelings. Missing its impression.

vinodbissa said...

अपनी कविता ''समर्पण'' में अहसासों को बहुत ही अच्छे ढंग से शब्दों में पिरोया है आपने ........... निशु जी शुभकामनाएं......

Girish Kumar Billore said...

"आप की कविताई के तेवर क्या बात है ...!!"
आपको शुभ कामनाएं

KRAZZY said...

bahut hi sundar tarike se shabdon ko jodkar kavita ki rachna ki gayi hai.mujhe is kavita se bahut kuch seekhne ko mila hai.guzarish hai aap nirantar aisi kavitaon ki rachna karte rahege.meri subhkaam naayen aapke saath sada hain.

Dr SK Mittal said...

जी करता उनमुक्त गगन में उड़ चलूँ,

तुम्हारे सुर्ख होंठों पे, अपने होठ धरूँ।

जी करता तुम्हें बाहों में भरू, और मुट्ठी भीच ,
तुम्हें अपने में समेट लूँ।

जी करता तुम्हारी सांसंो की महक, अपने सीने में भरूं,

कुछ कदम साथ चलूँ, और संग कुछ कदम रोक लूं।
एहसास करता हूँ-

तुम मेरी हर चाहत पर , एक लकीर खीच देती,

हर एक रोज, कल का वादा कर,

कुछ बंदिशें याद दिला देती,

ये नासमझ इतना तो समझ

प्यार समर्पण है एक हो जाने का ,

ना ही लकीर, ना ही बंदिशों का।

परीयवर
बधाई लगे रहो बहुत खूब

प्यार समपर्ण नहीं साधना है

अलींगन, चुम्बन, समेटना प्यार नहीं वासना है

उसका नाटना हर रोज और कल पर टालना

समझदारी है, साधना है प्यार का इकरार है

पूजा, साधना, प्यार वासना में फर्क करो

गुरु नहीं तो कवीता बेसार है

रश्मि प्रभा... said...

अच्छी है......संतुलन ज़रूरी है.