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Thursday, January 3, 2008

बेबसी मेरी


दूर-दूर तक देखने की कोशिश में नाकाम,
चलता रहा था राहों पर बिना रूके,
कोहरे की धुंध और सर्द हवा ने,
बदन को अपने आगोश में कर लिया था,
फिर भी बिना रूके हुए ही चलता रहा था मंजिल की खोज में।
खामोश पेड़, कटीली झाड़ियां
और
झायं-झायं करती हुई झींगुर की आवाज
अमावस की रात में बहुत ही डरावनी थी,
सड़को के किनारे पर लगे बिजली के खम्भों से
निकलता प्रकाश भी विवश था प्रकृति के आगे,
नहीं कर पा रहा था प्रकाशमय वातावरण को,
और
इन सब के बीच से आती खायं- खायं की आवाज,
जो बता रही थी कि-
तुम ही नहीं मैं भी हूँ तुम्हारी तरह,
बढ़ता ही रहा था मैं उस आवाज की ओर,
पास आती रोशनी ने सहारा दिया था मुझे,
फुटपाथ पर पड़ा, एक कम्बल से ढ़का हुआ उसका शरीर,
और पास जलती हुई आग के सहारे जिंदगी काटने का साहस किया था उसने,
में तो देखता चलता ही रहा था,
सिवाय तरस खाने के सिवा कुछ न था मेरे,
हां पर ये सोचा था जरूर कि काश कुछ कर पाता उसके लिए,
अगली सुबह चाय की दुकान पर चाय पीने आया तो देखा-
कि भीड़ इकट्ठा थी।
मन में व्याकुलता और उत्सुकता लिए जा पहुँचा था मैं ,
किसी से कुछ पूछता कि पहले ही किसी ने कहा-
" बूढ़ा बेचारा मर गया,
चलो अच्छा ही हुआ,
न कोई आगे, न कोई पीछे था इसके,
मैं एकटक देखता रहा था उस मरे हुए बूढ़े की तरफ,
उसका ठिठुरा हुआ शरीर,मुडी हुई उगलियां ,
ये बता रही थी कि-
जीवन के जंग में सांसों ने साथ नहीं दिया था उसका,
फिर मैं चल दिया था वहां से अपनी बेबसी लिए हुए,
अपनी मंजिल की तरफ...............
मन कई सवाल लिए हुए?
आखिर क्यों खुदगर्ज हुआ है आदमी इतना?
बार- बार उसका चेहरा आखों के सामने घूमता ही रहा था मेरे।।

1 comment:

नीरज गोस्वामी said...

आखिर क्यों खुदगर्ज हुआ है आदमी इतना?
बहुत शास्वत सवाल उठाया है आपने. बहुत मार्मिक और तल्ख़ सच्चाई से रूबरू करवाती दमदार रचना. बहुत बहुत बहुत बढ़िया.
नीरज