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Saturday, June 28, 2014

डर

सोचा कभी सच्चाई का सामना करूंगा। लेकिन कब और कैसे? सही समय की तलाश में शहर दर शहर भटकता रहा।दोस्तों की महफिलें गुमसुम सी होने लगी थी।कई सालों बाद एक शाम ट्रिन- ट्रिट्रिन कर फोन घनघना उठा।औपचारिक बातचीत हुई।साहस के आगे डर की जीत हुई।मन ही मन व्याकुल हो उठा था। फिर एक लंबी सांस और अपने रास्ते पर चलते रहे।
अरसा गुजर गया है सच आज भी दफ्न है। और दुनिया के सामने एक सभ्यता की मूर्ति बना दिन महीने की तरह गुजरता रहा हूँ।

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