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Monday, October 1, 2007

रामू की सोच

एक दिन सोचा रामू ने,
मैं भी पंक्षी होता।
पंख कोलकर दूर गगन में,
मैं भी उडता होता।।

जहां चाहता वहाँ को जाता ,
उडता झूम-झूम कर।
नदी,पहाड,समुद्र और झीलें,
देखता घूम-घूमकर।।

फिर मैं देखता पंख मोर के,
कितने होते हैं।
शेर ,हिरन,भालू जंगल में ,
कहां-कहां सोते हैं।।

बागों में जाकर फल,
अच्छे-अच्छे खाता ।
और शाम होते ही वापस,
घर को आता।।

लेखक-
शशि श्रीवास्तव
मो- ९९६८१५१४०५
email-para_shashi@yahoo.com

1 comment:

Pramendra Pratap Singh said...

आप अपनी छोटी छोटी कमियों को नज़र अंदाज करते है जो ठीक नही है, ध्‍यान दीजिऐ की उक्‍त कविता पोस्‍ट करने में क्‍या क‍मी हुई है।

कविता बहुत बढि़या है। इस तरह की रचना अब कम ही मिलती है जिसमें पर्यावरण के भाव भी मिलते हो