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Thursday, May 29, 2014

हस्ताक्षर मौन है(कविता)

हस्ताक्षर मौन हैं, पहचान बनकर।
हूं उपस्थित आज, अनजान बनकर।।

सब्र को अपने चुनौती कौन देता है भला?
कर सकूं अपराध तो हो बोध इसका।।

मेरे मिटने से भला क्या हो सकेगा इस धरा का ?
रात है कहती है हर रोज सुबह उस सूर्य से।।

है नियति का खेल यह, किसको पता।
कौन डूबे और किसका होगा उदय।।


हस्ताक्षर मौन है, पहचान बनकर।।

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (30-05-2014) को "समय का महत्व" (चर्चा मंच-1628) पर भी है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'